खेती की रहर (अरहर) थोड़ी सी मिली। एक बोरी। उसको दलवाने के लिये पत्नीजी ने दो महिलाओं को बुलाया। एक दिन उन्होने एक राउण्ड चकरी चला कर उसके टुकड़े किये। दूसरी मंजिल पर उन्होने डेरा जमाया था। चकरी चलने की आवाज गड़गड़ाती हुई दिन भर आती रही मानो आसमान में मेघ गड़गड़ा रहे हों। दाल दलने के बाद उसे पानी में भिगोया गया। फिर सूख जाने पर दो दिन बाद सेकेंड राउंड दलाई आज हो रही है।
पहले राउण्ड में दाल पछोरी गई, फटकने के बाद दली गई। मोटी दलाई में छिलका नहीं उतरा। उसे पानी में भिगो कर जितना छिलका निकल सका निकाला गया। फिर भिगोने, सुखाने और आज दूसरे राउण्ड की दलाई के बाद छिलका पूरा निकल गया। दूसरे राउण्ड की दलाई जल्दी खत्म भी हो गई।
एक बोरी रहर में छिलका-चूनी निकालने के बाद कितनी दाल मिलेगी और उसमें दो दिन की दो महिलाओं की मजूरी निकाल दी जाये तो कितने की दाल मिली होगी? मैं सोचता हूं कि यह खटरम करने की बजाय बाजार से दाल खरीद कर उपयोग करना कहीं बेहतर विकल्प होगा। पर वैसा करने पर यह सब करने का आनंद कहां मिलेगा?
इस सब के विवरण में मैने चकरी प्रबंधन की बात तो की नहीं। हमारे पास चकरी है। उसका बेंट गायब हो गया था तो खाती से बनवा कर नया लगवाया। चकरी चलाने पर पता चला कि चकरी के पत्थर की कुटाई नहीं हुई है। इसलिये सुग्गी (अधियरा) की चकरी मांगी गई। उसने अपनी दाल दलने के बाद चकरी हमें उधार दी। अब फुरसत से अपनी चकरी के पाटों की कुटवाई भी करवानी है। चकरी सही हो जायेगी तो उसकी सूचना स्वत: गांव भर में वाइरल हो जायेगी। उसके बाद चकरी मांगने वाले खूब आने लगेंगे।
मैं पत्नीजी के साथ चकरी चलाती महिलाओं का फोटो-वीडियो लेने दूसरी मजिल पर गया। दोनो महिलाओं- सुरसत्ती और उषा ने जमीन पर सब कुछ जमा रखा था। एक दऊरी से सुरसत्ती एक हाँथ दाल मुट्ठी में ले चकरी में डाल रही थी और दूसरे हाथ से चकरी चला रही थी। उषा का काम उसी मूठ पर अपना हाँथ लगा चकरी को चलाने में जुगलबंदी करना था।
दोनो का यह दृश्य बहुत शानदार लग रहा था।
मैं दाल की दलाई के बाद दाल की कॉस्टिंग में नहीं जाऊंगा। मेरे लिये तो यह पूरा उपक्रम रोचक था। चकरी और जांत का जुगलबंदी में चलाना देखना आनंददायक है। आजकल महिलायें यह सब करते गीत नहीं गातीं। वह होता तो और भी आनंद आता।
मन होता है कि हम एक जांत खरीद लें। उसे नित्य मेरी पत्नीजी और मैं जुगलबंदी में चला कर जरूरत भर का गेंहू पीस कर आटा बनाया करें। उससे व्यायाम भी होगा और समय का सदुपयोग भी। हम अगर गीत नहीं गा सकें तो यूट्यूब पर तलाश कर जांत चलाते समय वह गीत भी लगा दिया करें! …. वैसे इस तरह की ऑफ-बीट सोच को मेरी पत्नीजी सिरे से खारिज कर देती हैं।
एक मिनी जांत कितने का आता होगा?
गांवदेहात #घरपरिसर

जांता?
बचपन में आसपास खूब दिखता था। अब बिल्कुल नहीं।
ग्रामीण इलाकों में जाते थे तो dhenki भी दिख जाती थी।
संजीत त्रिपाठी
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यहां तो ढेंकी बहुत पहले गायब हो गई थी। मेरे बचपन में इक्कादुक्का दिखी। जांत तो अभी भी कहीं कहीं कोने में पड़ा दिख जाता है।
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