एक उमर थी जब इब्ने सफी, बी.ए. की जासूसी दुनियां सबेरे पहले पीरियड में शुरू करते थे और तीसरे पीरियड तक खतम हो जाती थी. किराये वाली दुकान से आधी छुट्टी में दूसरी लाते थे और स्कूल से लौटते समय तक वह भी समाप्त हो जाती थी. सातवीं-आठवीं कक्षा में जुनून था जासूसी उपन्यास का. फिर गुलशन नन्दा का जुनून आया. उसके बाद हाई स्कूल तक कविता का मन बना. पहले खुद लिखीं – शृंगार की कवितायें. अधकचरी. किसी को सुना भी नहीं सकते थे. वह जुनून ज्यादा नहीं चला. उसके बाद कवि आये. हायर सेकेण्डरी में हिन्दी के पर्चे में खूब कोट किया कवियों को उत्तर देने में.
जुनूनों की परम्परा चलती रही. एक जुनून छूटता तो वापस नहीं आता. दूसरा आता. पर जुनून का वैक्यूम नहीं रहा.
अब ब्लॉगरी का जुनून है. यह कब तक चलेगा, कह नहीं सकते. जिन्दगी जुनून हॉपर की हो गयी है. इस जुनून से उस जुनून पर फुदकने की. यह एक एचीवर का ब्ल्यू-प्रिण्ट नहीं है. इस जुनून हॉपिंग से आप कुछ हद तक प्रतिष्ठा पा सकते हैं. पर आप नोबल पुरस्कार नहीं पा सकते/करोड़पति नहीं बन सकते/गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत जैसी शख्सियत नहीं बन सकते. यह रियलाइजेशन अपने आप में पेनफुल है. पुनर्जन्म के सिद्धांत को छोड दें तो भगवान ने यही एक जिन्दगी तो दी है कर गुजरने के लिये.
जुनून हॉपिंग के कई वर्जिन फील्ड अभी बचे हैं. ब्रेन इंजरी पर हिन्दी में साइट का निर्माण उनमें से एक है. दो दिन पहले आलोक पुराणिक जी ने बताया है कि वे पांच किताबें साल भर में ठेलने वाले हैं। किताब ठेलना भी एक अच्छा जुनून हो सकता है (पुराणिक जी क्षमा करें,पुस्तक लेखन अपके लिए मिशन हो सकता हैं। जूनून वाली बात आप पर लागू नहीं होती). पर जुनून समय के टुकड़े को सार्थक कर सकता है; जिन्दगी सार्थक नहीं कर सकता.
मित्रों, जुनून एक तरफ; अगर चुनाव करना हो बनने का तो मैं एक गुड ब्लॉगर की बजाय एक पूअर गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत बनना ज्यादा पसन्द करूंगा. गुड ब्लॉगर बनने में कुछ महीनों/सालों का टाइम फ्रेम है. पर पूअर गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत बनने में तो जीवन भर की साधना चाहिये। लेकिन दोनों में कोई द्वंद्व भी हैं क्या?
केवल जूनून काफी नहीं है जीने के लिये!
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अनूप शुक्ला जी (एण्ड ऑल द ब्लॉगर्स ऑफ रेप्यूट), डू यू हैव अ कमेण्ट? एण्ड आइ वुड लाइक अ लॉंगिश कमेण्ट. यह मेरे बतौर ब्लॉगर चलते रहने के लिये – और शायद अन्य ब्लॉगरों के लिये भी जरूरी होगा.
वाह वाह धन्य हो गए हम। एक से बढ़कर एक ज्ञान की बात पढ़ने को मिल रही है।लेख ही कम धांसू नहीं था उस पर एक से एक जबरदस्त टिप्पणियाँ। और तो और समीर जी भी एकदम सीरियस टिप्पणी किए हैं।आपका ब्लॉग तो ज्ञान की गंगा बनता जा रहा है।
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जनून का तो पता नहीं मगर जीने के लिये सकून जरूरी है.. इसके बिना जीता जागता आदमी भी मूर्दा समान ही है
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नाटक में ‘स्वगत कथन’ होता है — सलिलक्वी — जैसे शेक्सपीयर के ‘हेमलेट’ नाटक में हेमलेट की प्रसिद्ध ‘सलिलक्वी’ . इसमें मंच पर जोर से कह कर विचार किया जाता है और यह माना जाता है कि इसे कोई सुन नहीं रहा है पर सब सुनते हैं .एक हो्ता है ‘मोनोलॉग’ जिसमें एक अकेला आदमी मंच पर कुछ कहता है पर उसके सामने एक अदृश्य श्रोता/दर्शक हमेशा होता है .सो जीवन के नाटक में ब्लॉगिंग का जुनून ब्लॉगरों का जोर-जोर से किया गया ‘स्वगत कथन’ या ‘मोनोलॉग’ है जिसे सब सुन रहे हैं . असीम विस्तार वाले आभासी रंगमंच ने यह मौका हमें सुलभ करवाया है . इसका चमत्कार यह है कि दूर-दूर के श्रोता/दर्शक न केवल आपकी प्रस्तुति देख रहे होते हैं वरन तुरत-फ़ुरत प्रतिक्रिया भी दे रहे होते हैं . यानी इस हाथ विचार/अभिव्यक्ति दे और उस हाथ तालियां या दुत्कार ले . आप जैसे स्थितिप्रज्ञ चिठेरे को तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता होगा पर मुझ जैसे संसारी चिठेरे को तो टिप्पणियों का ही सहारा है .और आपने तो अपने ब्लॉग के ‘सब टाइटल’ में देकार्तियन शैली में खुद ही लिखा है : “मन में बहुत कुछ चलता है. मन है तो मैं हूं. मेरे होने का दस्तावेजी प्रमाण बन रहा है यह ब्लॉग.”तो आपका ब्लॉग आपके जुनून का दस्तावेज़ी प्रमाण है . आपका ‘जुनून हॉपिंग’ का जुनून चिरजीवी हो . गान्धी-डार्विन-स्टीफन हॉकिंस-कलाम-रदरफोर्ड-पंत जैसी शख्सियत बनें न बनें ,अपने में अनूठे बेहद सुघड़ ह्यूमर से रचे-पगे , दुखों को धता बताते,अपने आस-पास की दुनिया पर अन्तर्दृष्टि से भरी-पूरी नज़र रखे पं० ज्ञानदत्त पाण्डेय ‘रेलवई वाले’ बने रहें यही क्या कम है .आप ऐसे ही नई ज़मीन तोड़ते रहें .
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