“झुमरी तलैया में ब्लॉगर मीट” जैसे शीर्षक से पोस्ट छपती है और घंटे भर में उसकी टीआरपी रेटिंग स्काईरॉकेट कर जाती है. कौन सा मीट हैं यह भाई जिसके लिये लाइन लग जाती है!
ऐसा नहीं है कि मैं सामाजिकता नहीं समझता. स्वभाव से मैं अत्यंत संकोची और इंट्रोवर्ट हूं. पर लोगों के मिलने और उनके विचार विमर्श की अहमियत को बखूबी जानता हूं. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि यह मीट ज्यादा ही पक रहा है? लोग ज्यादा ही मिलनसार हो रहे हैं; वह भी गर्मी के मौसम में जब परिन्दा भी छाया में बैठना पसन्द करे बनिस्पत 25-50 मील चल कर ऐसे सम्मेलन में जाये.
अंतरमुखी व्यक्तित्व का तो यह आलम है कि मैं अपनी शादी में भी इसलिये गया था कि वहां प्रॉक्सी नहीं चलती. अन्यथा जितने निमंत्रण मिलते हैं; कोशिश यही रहती है कि अपने टोकन उपहार का लिफाफा कोई सज्जन लेकर जाने को तैयार हो जायें. मुझे मालुम है कि समारोह में अनेक लोग आयेंगे और हम जैसे कोने में गुम-सुम खड़े रहने वाले को कोई मिस नहीं करेगा.
भीड़ में भी रहता हूं वीराने के सहारे
जैसे कोई मन्दिर किसी गांव के किनारे
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तन की थकान तो उतार ली है पथ ने
जाने कौन मन की थकान को उतारे
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जैसा भी हूं वैसा ही हूं समय के सामने
चाहे मुझे नाश करे, चाहे ये संवारे
– रमानाथ अवस्थी
ब्लॉगर मीट के बारे में मेरी एक जिज्ञासा है – इंटरनेट पर आदमी की जो इमेज बनती है, वह प्रत्यक्ष मिलने पर अगर अलग होती होगी तो क्या प्रतिक्रिया होती होगी मन में? एक ब्लॉग पर ब्लॉगर मीट की फोटो देख कर एक सज्जन के बारे में लिखा है – वे ब्लॉग पर गरीबों के पक्षधर हैं पर मिलन की फोटो में “लाजपत नगर के किसी ताज़ा–ताज़ा सफल होते व्यापारी की छवि ज्यादा पेश करते दीख रहे थे!”
अव्वल तो लोग अपना प्रोफाइल नेट पर कुछ डिसीविंग ही रखते हैं. हर आदमी/औरत वह होते नहीं जो प्रोजेक्ट करते हैं. हर आदमी अपना नाम भी चाहता हैं और बेनाम धुरविरोधी भी रहना चाहता है. हर आदमी शार्प/सफल/विटी/सम्वेदनशील/जिम्मेदार दीखना चाहता है. पर वह जो होता है, वह होता है.
क्या ब्लॉगर मिलन में लोग वह दिखते हैं जो होते हैं? वहां प्रत्यक्ष मिलने में जो प्रोफाइल पेश करते हैं, उसमें कोई छिपाव नहीं होता? यह प्रश्न एक प्रसन्नमन आत्मतुष्ट ब्लॉगर-मिलन में जाने वाले ब्लॉगर को उलूल-जुलूल लग सकता है. लोगों से मिलने बतियाने; गप सड़ाका करने; अपने फोन नम्बर एक्स्चेंज करने और चाय-पान-भोजन के बाद वापस आने में क्या गलत है? पर प्रश्न है तो क्या किया जाये?
एक सार्थक चीज वह हो सकती है कि लोग ब्लॉग पर अपने प्रोफाइल में आत्मकथ्य के रूप में हाइपरबोल में लपेट–लपेट कर न लिखें. अपने बारे में तथ्यात्मक विवरण दें. अपने को न तो महिमामण्डित करें और न डीरेट. इसपर हिन्दी ब्लॉगर विचार कर सकते हैं. जब यहां कुनबा ही छोटा सा है तो डिसीविंग प्रोफाइल का क्या तुक?
मेरे जैसा व्यक्ति भीड़ में अकेला होता है और ब्लॉग पर लिखता इसलिये है कि अपने को जीवित/वाइब्रेण्ट होने का दस्तावेजी सबूत भर दे सके. उसको “झुमरी तलैया में ब्लॉगर मीट” के पोस्ट की टीआरपी रेटिंग स्काईरॉकेट करना एक अजीब फिनामिना लगता है.
यो यत श्रद्ध: स एव स: – जिसकी जैसी प्रवृत्ति है वह वैसा ही है. और वह लेखन से भी पता चलता है और प्रत्यक्ष भी.

Anoop Shukla Uvaach: बकिया कौन क्या,कैसा है अक्सर उसको खुद ही नहीं पता लगता। बहरहाल हम तो अपनी तरफ़ से अंतर्मुखी होने का झंडा नहीं उठाते!I was waiting for someone committed to offline promotion of Hindi Bloggery. And who could be better than Fursatiya? Well we can agree to disagree on some (minor) issue. And I hope I will not be targetted on this issue in your esteemed weekly times! :)
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ज्ञानदत्त जी ब्लागर अपने प्रोफ़ाइल में अतिशयोक्ति न लिखेगा तो कहां लिखेगा। मिलने-जुलने के बाद खुलने में कुछ तो समय लगेगा ही। लगेगा कि नहीं!बकिया कौन क्या,कैसा है अक्सर उसको खुद ही नहीं पता लगता। बहरहाल हम तो अपनी तरफ़ से अंतर्मुखी होने का झंडा नहीं उठाते!
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ब्लॉगों पर आमतौर पर इनट्रोवर्ट या इनट्रोवर्टेस्ट ही विचर रहा होता है नहीं तो वह ब्लॉग के बजाए किसी पान ठेले पर गप सड़ाका लगा रहा होता या फिर किसी पार्टी में होता या पार्टी के जुगाड़ में होता.:)
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जी.. काकेश जी के मुम्बई प्रवास के दौरान उनसे तमाम मजदूरगत नैतिकताओं के बावजूद मिल लिया गया.. मिलने के पहले थोड़ी शंकाएं थी.. एक मन में बनाई छवि भी थी.. पर काकेश जी मेरी बनाई हुई छवि से कम उमर के और ज़्यादा गम्भीर और शालीन निकले.. उनके लेखन से अलग आभास होता था.. पर इसके बारे में लिखने से हम तीनों ही सकुचा गये.. वैसे अपनी शादी में जाने में कोई संकोच नहीं हुआ था.. खुद ही बेशरमी से सारा इन्तज़ाम भी किया था.. ज्ञान जी..आप की मानसिक हलचलें आम तौर पर सही समय.. सुबह ६से ७ के बीच.. और सही गति पर चलती रहती हैं.. और सब को हड़हड़ाये भी रखती हैं.. बस कभी कभी किसी को चलती गाड़ी से उतार देने के आग्रह में खुद पटरी से उतर जाती हैं..
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भाइ है तो जैसे है वैसे ही है अगर गलती से इलाहाबाद पहुच गये तो भाइ साहब या तो झेले या रिजर्वेशन करा कर ट्रेन मे बैठादे,वाले है बाकी जिनको मूखौटा पंसंद है वो क्या करे वो जानेहा फ़ोटो लगाने का शौक मुखौटा वालो को भी है अब किसकी है इस पर तो आलेख लिखना ही ठील रहेगा
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अभी तक तो ये मीट खाये नहीं हैं कि पता चले कि कैसा है .. पर 2 दिन पहले अजदक जी से निर्मलानन्द के साथ मिले थे..कोई मीट वीट नहीं था… हमको तो सब सहज ही लगा ..वैसे अंतरमुखी व्यक्तित्व के मालिक तो हम भी हैं जी..आप तो बांकी दोनों से पूछिये कि कैसे झेला उन्होंने हमें…
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पाण्डेय जी बिलकुल सही बात है एसा कई बार होता है जब व्यक्तित्व की मानसिक छवि और शाश्वत छवि में मनुष्य अंतर पाता है तो व्यक्ति अपने व्यवहार और सोंच में शाश्वत छबि को ही उतारता है और उसी के अनुरूप व्यवहार करता है एसे मीट फस्ट इंप्रेशन इज लास्ट इंप्रेशन, प्लीजेंट परशनालिटि के सिद्धांत पर आधारित न हो तभी इसकी उपादेयता सिद्ध हो पायेगी । मैने स्वयं व्यावसायिक कार्य व्यवहार में अपने शाश्वत व्यक्तित्व एवं उसके प्रस्तुतिकरण के संसाधन विजिटिंग कार्ड, मेल, व्यावसायिक साख को तौला है सब धरे के धरे रह जाते जब सामने वाला आपके शाश्वत छवि को देखकर व्यवहार करता है । धन्यवाद सर, आपने हमारे जैसे जन के मन की बात को लिखा ।
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ब्लॉगर्स मीट पर सही लिखा.. यह मीट-मीटिंग का पढ़-पढ़के हमारा भी दिमाग सटकता रहता है.. आप इंट्रोवर्ट हैं तो हम इंट्रोवर्टेस्ट हैं.. अब हमारे लिखे से तो यह चीज़ सामने आती नहीं.. हमीं लोग कभी आमने-सामने पड़ गए तो पता नहीं कैसी-कैसी ख़ामोशियों की छतरी ताने एक-दूसरे को टेंसन देने लगेंगे.. उम्दा चीज़ लिखी है आपने..लेकिन ये प्रोफ़ाइल.. इसका क्या.. अपन जैसे लोग क्या करें.. जब अपने पास रेज़ुमे की कोई रेसिपी ही नहीं तो प्रोफ़ाइल पर चढ़ायें क्या?.. अभय के आज के लिखे पोस्ट पर आपकी नज़र गई ही होगी.. लिखें क्या.. बेरोज़गार, चिंता की लटक-झटक में उलझे हशिया नागरजन?.. आप तय करें.. आपही का दिया मुकुट धार के अपनी फ़ोटो बहिरिया देंगे..
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भाईसाहब, ये सब दिक़्क़तें बेनाम प्रोफ़ाइल वालों की हैं। हमारी प्रोफ़ाइल से ही विफल/ग़ैरज़िम्मेदार/असम्वेदनशील वगैरह गुणों का पता चल जाता है और थोबड़ा भी दिख जाता है, इसलिए बाद में मिलने पर किसी को शॉक नहीं लगता। :)
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“अंतरमुखी व्यक्तित्व का तो यह आलम है कि मैं अपनी शादी में भी इसलिये गया था कि वहां प्रॉक्सी नहीं चलती. अन्यथा जितने निमंत्रण मिलते हैं; कोशिश यही रहती है कि अपने टोकन उपहार का लिफाफा कोई सज्जन लेकर जाने को तैयार हो जायें. मुझे मालुम है कि समारोह में अनेक लोग आयेंगे और हम जैसे कोने में गुम-सुम खड़े रहने वाले को कोई मिस नहीं करेगा.”सही दद्दा। अपना भी कुछ यही हाल है।
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