मीक, लल्लू, चिरकुट और क्या?

यह हेडिंग अज़दक छाप हो गया है. उनके लेखों के शीर्षक ऐसे ही होते हैं, जिससे न सिर समझ में आये न पैर. फिर झख मार कर आप समझने के लिये उनके कंटिये * में फंस जायें.

खैर, अजदक को लिंक करने का मन नहीं है. यह ठोस मेरा लेख है. एक मीक वह है, जिस को ईश्वर पुत्र ने दुनियां विरासत में देने का आशिर्वाद दिया है. पर यह दूसरा वाला मीक मेरी त्योरी चढ़ा देता है (सारथी वाले शास्त्री फिलिप जी क्षमा करे, कृष्ण से हम इसी प्रकार का मजाक करते रहते हैं और ईसा का दर्जा हमारे मन में कृष्ण वाला ही है). यह मीक खालिस नहीं, वर्तमान युग की देन है. दफ्तर से घर लौटते समय किसी न किसी मीक को बांस की खपच्ची से बिजली के तारों पर कंटिया फंसाते देख लेता हूं और मुझे कष्ट होने लगता है. कल शाम तो बढ़िया नजारा देखा. सुनील (बिल्लू) किराना स्टोर (यही नाम है दुकान का) वाला शाम को कंटिया फंसा रहा था. फिर उसने कंटिये से बिजली लेकर बल्ब जलाया और बल्ब जलतेही ऊपर की ओर हाथ जोड़कर भगवान को नमस्कार भी किया. शायद भगवान को कंटियेसे बिजली देनेका धन्यवाद दिया. कितनी सरल मीकता है कोई अपराध बोध नहीं!

प्रियंकर कहेंगे कि अफसर महोदय को तगड़ा हाथ मारता सेठ या कॉरपोरेट जगत का सीईओ नहीं नजर आता. क्या बतायें. प्रियंकर जी, उनपर लिखने के लिये तो पूरी समाजवादी परिषद, अजदक जी की विद्वत मण्डली और फुटकर ब्लॉगर हैं ही. इस मीक को तो कोई नहीं पकड़ता!

बहुत समय पहले नर्मदा किनारे मैने परक्म्मावासी वृद्धाओं का समूह देखा था. खालिस मीक. सरल सी, पवित्र सी उन स्त्रियों को शिवलिंग पर श्रद्धा से फूल चढ़ाते देख मुझे ईश्वर के सामीप्य की अनुभूति हुई थी. पर वैसे मीक ज्यादा देखने को नहीं मिले.

चिरकुटई या लल्लूपन वह है, जो अगर व्यक्ति में हो तो व्यक्ति कभी बड़े कैनवास पर नहीं सोच सकता. उसकी कल्पनादानी इतनी छोटी होती है कि उसमें से जो कुछ जन्म लेता है वह या तो डिफॉर्म्ड होता है या फिर उसमें से सृजन का मिसकैरिज हो जाता है. ऐसे लोग केवल सरकारी नौकरी की महत्वाकांक्षा रखते हैं और अगर न मिल पायी तो उनका जीवन बेस्वाद कबार (पशु-चारा) सा हो जाता है. नौकरी मिल गयी तो बाकी सारा जीवन धन्य होने, नौकरी से अधिकाधिक दुहने और अकर्मण्यता के तरीकों पर शोध मे व्यतीत होता है.

भगवान की बड़ी कृपा है कि ये लोग मीक, लल्लू या चिरकुट हैं. अन्यथा गली-गली में मिथिलेश कुमार (उर्फ नटवरलाल) या हर्षद मेहता दिखाई पड़ते. अगर लोगों के छ्द्म का दायरा इन शब्दों की परिधि में कैद न होता तो दहेजलोलुपता में शायद ही कोई नारी बचती. मेरे घर के पास महादेव रोड पर अभी केवल 100-125 बिजली के कंटिये प्रति किलोमीटर फंसे दीखते हैं. अगर ये सब छुद्र बिजली चोर नहीं, कॉर्पोरेट के सीईओ की सोच के वितान वाले और चोर होते तो इन सब की बिजली चोरी ही सारे ग्रिड को बैठाने में सक्षम होती!

मीकनेस, लल्लुत्व या चिरकुटई डिवाइन हो और अपने आप में गर्व करने की चीज हो – यह तो किसी कोण से सही नहीं है. दुर्भाग्य तब होता है जब लोग मिडियॉक्रिटी पर प्रीमियम लगाने लगते हैं. यह वर्तमान युग का चलन है जहां (प्रजातंत्र में) सब आदमी बराबर हैं और सबका एक वोट होता है चाहे वह चिरकुट हो या उत्कृष्ट. और चिरकुट संख्या में ज्यादा हैं.


* यह अलग बात है कि उनके कंटिये में फंसने पर बहुधा अच्छा लिखा पढ़ने को मिलता है!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

8 thoughts on “मीक, लल्लू, चिरकुट और क्या?

  1. आप अगर ऐसी कंटिया न भी फंसाते तो भी आपका लेखन तो परमानेन्ट कंटिया है और हम सब फंसे हैं उसमे चाहे वो चिरकुटई ही क्यूँ न हो. बहुत सधा हुआ लेखन. जो कार्य गलत है वो सभी के लिये गलत है. यह कंटिया संस्कृति मुझे यू पी मे कुछ ज्यादा ही देखने मिली. मध्य प्रदेश के जिन भी शहरों में मैं रहा हूँ, कम से कम आज तक तो नहीं देखा.बहुत बढ़िया दिशा दी प्लेटफार्म (रेल्वेवाले को लिख रहा हूँ) डिफ्रेन्शियेसन को. बधाई.

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  2. प्रियंकरजी की ई-मेल से टिप्पणी: ज्ञान जी! आपका रचनात्मक प्रत्युत्तर बहुत भाया . विविधताओं से भरे इस देश और जटिलताओं से भरे इस समय में किसी भी किस्म के ‘जनरलाइजेशन’ के — सामान्यीकरण के — अपने खतरे हैं जिनकी ओर आपने आपनी विशिष्ट अननुकरणीय शैली में इशारा किया है . आपसे सहमत हूं . छोटे-मोटे मतभेद के बावज़ूद आपकी अन्तर्दृष्टि और सूझ-बूझ पर भरोसा अटल है . — प्रियंकर

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  3. लो जी गई भैस पानी मे ,अब तक हम प्रमोद जी से ही प्रार्थना करते थे कि भाई जी हमे जरा चिरकुटो की टोली मे शामिल होने से बचालो जरा मेल पर अपना लेख समझादे ,अब यहा ज्ञान भाईसा से भी यही प्रार्थना अग्रिम ही कर लेते है.खुब कटिया फ़साये मे उसताद हो दादा :)पर हम सब तो वैसे ही फ़से है बिना कटिया के :)

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  4. “चिरकुटई या लल्लूपन वह है, जो अगर व्यक्ति में हो तो व्यक्ति कभी बड़े कैनवास पर नहीं सोच सकता. उसकी कल्पनादानी इतनी छोटी होती है कि उसमें से जो कुछ जन्म लेता है वह या तो डिफॉर्म्ड होता है या फिर उसमें से सृजन का मिसकैरिज हो जाता है.”मै भी यही कहूँगा..बडी उम्दा बात कही है..पूरे लेख का सार यही मिल जाता है..अच्छा है.

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  5. “चिरकुटई या लल्लूपन वह है, जो अगर व्यक्ति में हो तो व्यक्ति कभी बड़े कैनवास पर नहीं सोच सकता. उसकी कल्पनादानी इतनी छोटी होती है कि उसमें से जो कुछ जन्म लेता है वह या तो डिफॉर्म्ड होता है या फिर उसमें से सृजन का मिसकैरिज हो जाता है.”क्या खूब कहा है।

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  6. अरे ये तो परमोद भईया का असर चढ़ गया लगता है । अब समझ में आया है कि अज़दकी कितनी बढ़ती जा रही है । हाय मेरी ज्ञान-बिड़ी, हाय ये अज़दकी फ्लेवर ।

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  7. तो आप को भी चिरकुटई दिख ही गयी…हम तो सोचे कि इस पर सिर्फ अजदक मियां का ही कॉपी राइट है. लो हम भी फंस ही गये ना आपकी कटिया में.

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