पण्डित विष्णुकांत शास्त्री (1929-2005) को मैं बतौर आर.एस.एस. के सक्रिय सम्बद्ध व्यक्ति, पश्चिम बंगाल भाजपा के अध्यक्ष, भाजपा के उपाध्यक्ष अथवा उत्तरप्रदेश/उत्तराखण्ड के राज्यपाल के रूप में नहीं वरन एक लेखक के रूप में याद कर रहा हूं. और उस रूप में अच्छे ब्लॉगर के लिये एक सबक है – जो मैं बताना चाहता हूं.
पण्डित विष्णुकांत शास्त्री को मैं धर्मयुग में पढ़ा करता था. उन्होने पूर्वी बंगाल (बांगलादेश) के स्वातंत्र्य के विषय में बहुत लिखा था. उस समय हमारी किशोरावस्था थी, विषय सामयिक था, और शास्त्री जी का लेखन अद्भुत!
मुझे दो वर्ष पहले कहीं से उपहार में “विष्णुकांत शास्त्री : चुनी हुई रचनायें” के दो खण्ड जो श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता ने प्रकाशित किये थे, प्राप्त हुये. जैसा मुफ्त में प्राप्त पुस्तकों के साथ होता है – इन दोनो खण्डों का अवलोकन टलता गया. अब मैने हाथ में लिया है इन्हें पढ़ने/ब्राउज करने को.
पहले भाग में प्रस्तावना के रूप में पण्डित विष्णुकांत शास्त्री का एक लेख है – “मेरी रचना प्रक्रिया”. उनकी रचना प्रक्रिया में बहुत कुछ है जो एक अच्छे ब्लॉगर को अपने में उतारना चाहिये.
“मेरी रचना प्रक्रिया” में उन्होने अपने लेखन के आयाम बताते हुये लेखन की तैयारी के विषय में कहा है. मैं उनके द्वारा उनके लेखन के आयामों की सूची देता हूं :
- उपाधि के लिये शोध ग्रंथ लेखन
- संस्मरण और यात्रा वृतांत लेखन
- बांगला मुक्ति संग्राम विषयक लेखन
- आध्यात्म लेखन
मैं समझता हूं कि इन मूल आयामों के अतिरिक्त भी शास्त्री जी के लेखन में बहुत विस्तार था. यह विस्तार ऐसे ही नहीं आ जाता. मां सरस्वती सतत और कठोर साधना मांगती हैं. अत:, बतौर ब्लॉगर लेखन को बहु आयामी बनाना मैं पहली आवश्यकता मानता हूं.
अपनी लेखन तैयारी के विषय मे उन्होने जो कहा है वह भी महत्वपूर्ण और रोचक है. उसके कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं :
“मैं जितना लिख सकता था. उतना लिख नहीं पाया…. इसका बाहरी कारण मेरा बहुधन्धीपन रहा….इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि अल्प महत्व के तात्कालिक प्रयोजन वाले कार्य ही अधिकांश समय चाट जाते रहे और स्थायी महत्व के दीर्घकालिक प्रकल्प टलते रहे. लेखन भी इन्ही प्रकल्पों के अंतर्गत आता है.
“इससे भी अधिक गुरुतर कारण मेरा भीतरी प्रतिरोध रहा है. मेरी पूर्णता ग्रंथि ने मुझे बहुत सताया है. गंभीर विवेचनात्मक लेख लिखते समय मेरा अंतर्मन मुझे कुरेद-कुरेद कर कहता रहा है कि इस विषय पर लिखने के पहले तुम्हे जितना जानना चाहिये, उतना तुम नहीं जानते, थोड़ा और पढ़ लो, इस विषय के विशेषज्ञों से थोड़ा विचार विमर्श कर लो, तब लिखो……
”मैं यह भी नहीं मानता कि इस ग्रंथि के कारण मुझे केवल हानि ही हुई है. नहीं, इसका एक विधायक पक्ष भी है. इसी भावना के कारण मेरे लेखों से भले ही कुछ विद्वान असहमत हों, पर उन्हें हंस कर नहीं उड़ाया जा सकता. निराला की दो पंक्तियां भी मेरे मन में बराबर कौन्धती रहती हैं: भाव जो छलके पदों पर, न हों हल्के न हों नश्वर.
मैं भी चेष्ठा यही करता हूं कि हल्के लेख न लिखूं. कितना सफल हो पाया हूं, इसका फैसला तो आप ही लोग कर सकते हैं.
“कविता मेरे लिये ऊर्जा का स्रोत रही है. कठिन परिस्थितियों में भी कविताओं की कुछ पंक्तियां कौन्धती रही हैं, मुझे कष्ट झेल कर भी कार्य करने की प्रेरणा देती रही हैं. लिखूं, न लिखूं की मनस्थिति में श्रीकांत वर्मा की कुछ पंक्तियों ने मुझे बहुत सहारा दिया है, जो मुझे अनायास याद आ रही हैं –
चाहता तो बच सकता था,
मगर कैसे बच सकता था!
जो बचेगा, कैसे रचेगा!!
पहले मैं झुलसा, फिर धधका
चिटखने लगा,
कराह सकता था,
मगर कैसे कराह सकता था,
जो कराहेगा, कैसे निबाहेगा!!!
“प्रभु से प्रार्थना है कि बिना कराहे सृजन की ज्वाला झेलता रहूं, और जो अच्छे से अच्छा दे सकता हूं दे जाऊं….”
आप समझ सकते हैं कि किस प्रकार का परफेक्शनिस्ट था पण्डित विष्णुकांत शास्त्री में. हम ब्लॉगर जो फटाफट पोस्ट बना पब्लिश करने के फेर में रहते हैं, वे अगर पण्डित विष्णुकांत शास्त्री के अच्छे से अच्छा लिख कर दे जाने की भावना ले कर चलें, बहु आयामी बनें, अपना ज्ञान परिपक्व करें तो शायद किसी भी प्रकार के हथकण्डों की आवश्यकता ही न पड़े!

सरजी चुनाव करवा के लिखेंगे क्या।बहुआयामी आपका लेखन है। जो मन आये, वो लिखें। आपको आपसे ज्यादा कौन जानता है, जो सुझाव देगा, और आपके लिखने पर वोट देगा। वैसे मेरी राय है कि पु्स्तक चर्चा, व्यक्तित्व विकास पर ज्यादा लिखें। और राय ना मानें तो कोई हर्ज भी नहीं है।
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रचनाकार और अनुकरणीय आदर्श वाली पोस्ट का लिंक ये है-http://hindini.com/fursatiya/?p=63
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शास्त्रीजी से मुझे एक बार मिलने का और कई बार सुनने का अनुभव हुआ। वे विलक्षण वक्ता थे। सरल, सहज, उदारमना। बोलते थे तो कविताऒं के उद्धरण पूरे के पूरे सुनाते। अद्भुत स्मरण शक्ति थी उनकी। उनके एक वक्ततव्य का केंद्रीय भाव मुझे अभी भी याद है -श्रेष्ठ रचनाकार अपने आदर्श अपने श्रेष्ठ पात्र के मुंह से कहलवाता है। शाष्त्रीजी खुद कहते थे कि उन्होंने अधिकांश साहित्य यात्राओं में बांचा है। वे संघ से जुड़े थे लेकिन साहित्य में पसंदगी /नापसंदगी में अपनी विचारधारा को आड़े नहीं आने देते थे। एक बार हरिशंकर परसाईजी के घर उनके जन्मदिन के अवसर पर गये। परसाई जी का सम्मान किया। परसाईजी बोले- सेवक सदन स्वामि आगमनू, मंगल करन अमंगल करनू। शाष्त्रीजी ने कहा- नहीं बंधु बात यो हैं-एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आधि,तुलसी संगति साधु की हरै कोटि अपराध। पचहत्तर साल की उमर में उन्होंने कम्प्यूटर सीखना शुरू किया था। वे महान व्यक्ति थे।आपने शाष्त्रीजी की बातें लिख कर अच्छा किया। आप वैसे ही बहुआयामी ब्लागर हैं। निरंतरता भी है आपमें। आप अनुकरणीय ब्लागरों में सुमार होने लगे। आपकी सभी श्रेणियां मुझे पसंद हैं। लेकर हास्य-व्यंग्य से पुस्तक चर्चा तक। लिखते रहें।
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आप ऐसे ही उत्कृष्ट पढ़ते रहें और हमें सार बांटते रहें!!धन्यवाद दद्दा!!
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प्रतीक उवाच > …सब इस तरह लिखने लगे तो महीने में पन्द्रह-बीस पोस्ट्स ही लिखी जाएंगी हिन्दी ब्लॉग जगत में। :) ऐसा है, जब आप उत्कृष्टता के फ्रेम ऑफ माइण्ड में अपने को रखें तो आप 200-500 शब्दों की पोस्ट पर काम नहीं कर रहे होंगे. आप समांतर बहुत चीजों पर चल रहे होंगे. उस उत्कृष्टता से इतनी छोटी पोस्ट तो सरलता से लिख लेंगे प्रतीक जी. हां शास्त्री जी जैसे विशाल निबन्ध तो 15-30 क्या महीने में 1-2 ही लिख पायेंगे! खैर, बात केवल अध्ययन और अपने को परिमार्जित करने की है – उससे तो कोई विरोध हो नहीं सकता. एण्ड यू आर अ वर्सेटाइल पर्सन! यू काण्ट डिनाई द पॉवर ऑफ लोडेड वर्ड्स! :)
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ज्ञानद्त्त जी,पं विष्णुकांत शास्त्री जी के बारे मेंजानकारी देने के लिए धन्यवाद।
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शास्त्री जी सहज थे. विद्वता का आडंबर ओढ़कर नहीं चलते थे. मैंने उन्हें तब देखा था जब वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे. दिल्ली में एक गोष्ठी को संबोधित करने आये थे. उस समय एक ही बात लगी ये राजनीति में क्या कर रहे हैं.
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आपने पुरानी यादें ताजा कर दी। शास्त्री जी से कई बार मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कभी छात्र के रूप में, कभी रिपोर्टर के रूप में, वो पश्चिम बंगाल बीजेपी की कमान संभाले हुए थे। बहुत अच्छे इंसान थे। ऐसे सज्जन, विद्वान लेकिन विनम्र व्यक्ति आज के युग में तो दुर्लभ ही हैं।
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अच्छी जानकारी दी है आपने। सब इस तरह लिखने लगे तो महीने में पन्द्रह-बीस पोस्ट्स ही लिखी जाएंगी हिन्दी ब्लॉग जगत में। :)
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ज्ञानदत्तजी,पं विष्णुकांत शास्त्री जी के लेखन के बारे में जानकारी देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद । आपके लेख की दो बातों ने जैसे गले को ही पकड लिया, …इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि अल्प महत्व के तात्कालिक प्रयोजन वाले कार्य ही अधिकांश समय चाट जाते रहे और स्थायी महत्व के दीर्घकालिक प्रकल्प टलते रहे ।और,मेरी पूर्णता ग्रंथि ने मुझे बहुत सताया है. गंभीर विवेचनात्मक लेख लिखते समय मेरा अंतर्मन मुझे कुरेद-कुरेद कर कहता रहा है कि इस विषय पर लिखने के पहले तुम्हे जितना जानना चाहिये, उतना तुम नहीं जानते, थोड़ा और पढ़ लो, इस विषय के विशेषज्ञों से थोड़ा विचार विमर्श कर लो, तब लिखो……मात्र लेखन मे ही नहीं बल्कि किसी भी रचनात्मक कार्य के लिये ये कहा जा सकता है । अपने शोधकार्य के संदर्भ में कह सकता हूँ कि मैने दोनो परिस्थितियों का अनुभव किया है । आपके आज के लेख ने मुझे दोनों विचारबिंदुओं पर नये सिरे से सोचने का अवसर प्रदान किया है । तहेदिल से धन्यवाद,
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