कल टिप्पणी में यूनुस छैलाइ गये. “बना रहे बनारस” का केवल झांकी दिखाना उन्हे एक सुट्टे के बाद बीड़ी छीन लेने जैसा लगा. अब पूरे 188 पेज की किताब पेश करना तो फुरसतिया सुकुल जैसे ही कर सकते हैं! फिर भी मैने अपनी पत्नी से विमर्श किया. वे बनारस की हैं. उनका विचार था कि यूनुस जैसे रेगुलर ग्राहक को नाराज नहीं करना चाहिये. पूरी किताब देख कर उन्होने ही सुझाव दिया कि ये लास्ट वाला सुट्टा पिला दो यूनुस को.
तो यूनुस कहीं बीड़ी का ब्राण्ड न बदल लें, उस के डर से बना रहे बनारस का यह अंतिम लेखांश प्रस्तुत है. यह उम्मीद है कि सभी को पसन्द आयेगा:
बना रहे बनारस
(श्री विश्वनाथ मुखर्जी)
आजाद शहर
भारत को सन 1947 में आजादी मिली. अब हम आजाद हैं. आजादी का क्या उपयोग है, इसकी शिक्षा लेनी हो तो बनारस चले आइये. बनारसवाले सन 1947 से ही नहीं, अनादिकाल से अपने को आजाद मानते आ रहे हैं. इन्हे नयी व्यवस्था, नया कानून या नयी बात कत्तई पसन्द नहीं. इसके विरुद्ध ये हमेशा आवाज उठायेंगे. बनारस कितना गन्दा शहर है, इसकी आलोचना नेता, अतिथि और हर टाइप के लोग कर चुके हैं,पर यहां की नगरपालिका इतनी आजाद है कि इन बातों का ख्याल कम करती है. खास बनारस वाले भी सोचते हैं कि कौन जाये बेकार सरदर्द मोल लेने. हिन्दुस्तान में सर्वप्रथम हड़ताल 24 अगस्त सन 1790 ई. में बनारस में हुई थी और इस हड़ताल का कारण थी गन्दगी. सिर्फ इसी बात के लिये ही नहीं, सन 1809 ई. में जब प्रथम गृहकर लगाया गया, तब बनारसी लोग अपने घरों में ताला बन्दकर, मैदानों में जा बैठे. शारदा बिल, हिन्दू कोड बिल, हरिजन मन्दिर प्रवेश, गल्ले पर सेल टेक्स और गीता काण्ड आदि मामलों में सर्वप्रथम बनारस में हड़तालें और प्रदर्शन हुये हैं. कहने का मतलब हमेशा से आजाद रहे और उन्हे अपने जीवन में किसी की दखलन्दाजी पसन्द नहीं आती. यहां तक कि वेश-भूषा में परिवर्तन लाना पसन्द नहीं हुआ. आज भी यहां हर रंग के, हर ढ़ंग के व्यक्ति सड़कों पर चलते फिरते दिखाई देंगे. एक ओर तो ऊंट, बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी है तो दूसरी ओर मोटर, टेक्सी, लारी और फिटन हैं. एक ओर अद्धी तंजेब झाड़े लोग अदा से टहलते हैं तो दूसरी ओर खाली गमछा पहने दौड़ लगाते हैं.
आप कलकत्ता की सड़कों पर धोती के ऊपर बुशशर्ट पहने या कोट पैण्ट पहनकर पैरों में चप्पल पहनें तो लोग आपको इस प्रकार देखेंगे मानो आप सीधे रांची (पागलखाने) से चले आ रहे हैं. यही बात दिल्ली और बम्बई में भी है. वहां के कुली-कबाड़ी भी कोट-पैण्ट पहने इस तरह चलते हैं जैसे बनारस में आई.ई.आर. के स्टेशन मास्टर. यहां के कुछ दुकानदार ऐसे भी देखे गये हैं जो ताश, शतरंज या गोटी खेलने में मस्त रहते हैं. अगर उस समय कोई ग्राहक आ कर सौदा मांगता है तो वे बिगड़ जाते हैं. ‘का लेब? केतन क लेब? का चाही? केतना चाही?’ इस तरह के सवाल करेंगे. अगर मुनाफेदार सौदा ग्राहक ने न मांगा, तबियत हुआ दिया, वर्ना माल रहते हुये वह कह देंगे – नाहीं हव – भाग जा. खुदा न खास्ता ग्राहक की नजर उस सामान पार पड़ गयी तो तो भी उस हालत में कह उठते हैं – ‘जा बाबा जा, हमके बेंचे के नाहीं हव.’
है किसी शहर में ऐसा कोई दुकानदार? कभी-कभी वे झुंझलाकर माल का चौगुना दाम बता देते हैं. अगर ग्राहक ले लेता है तो वह ठगा जाता है और दूकानदार जट्टू की उपाधि मुफ्त में पा जाता है.
बनारस की सड़कों पर चलने की बड़ी आजादी है. सरकारी अफसर भले ही लाख चिल्लायें, पर कोई सुनता नहीं. जब जिधर से तबियत हुई चलते हैं. अगर किसी साधारण आदमी ने उन्हें छेड़ा तो तुरंत कह उठेंगे – ‘तोरे बाप क सड़क हव, हमार जेहर मन होई, तेहर से जाब, बड़ा आयल बाटै दाहिने बायें रस्ता बतावै.’ जब सरकारी अधिकारी यह कार्य करते हैं तब उन्हें भी कम परेशानियां नहीं होतीं. लाचारी में हार मान कर वे भी इस सत्कार्य से मुंह मोड़ लेते हैं.
सड़क पर घण्टों खड़े रह कर प्रेमालाप करना साधारण बात है, भले ही इसके लिये ट्रैफिक रुक जाये. जहां मन में आया लघु शंका करने बैठ जाते हैं, बेचारी पुलीस देखकर भी नहीं देखती. डबल सवारी, बिना बत्ती की साइकल चलाना और वर्षों तक नम्बर न लेना रोजमर्रे का काम है. यह सब देखते-देखते यहां के अफसरों का दिल पक गया है. पक क्या गया है, उसमें नासूर भी हो गया है. यही वजह है कि वे लोग साधारण जनता की परवाह कम करते हैं. परवाह उस समय करते हैं, जब ये सम्पादक नामधारी जीवाणु उनके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं. कहा गया है कि खुदा भी पत्रकारों से डरता है.
मतलब यह कि हिन्दुस्तान का असली रूप देखना हो तो काशी अवश्य देखें. बनारस को प्यार करने वाले कम हैं, उसके नाम पार डींग हांकने वाले अधिक हैं. सभ्यता-संस्कृति की दुहाई देकर आज भी बहुत लोग जीवित हैं, पर वे स्वयम क्या करते हैं यह बिना देखे नहीं समझा जा सकता. सबके अंत में यह कह देना आवश्यक समझता हूं कि बनारस बहुत अच्छा भी है और बहुत बुरा भी.
1. कल बोधिसत्व का ब्लॉग देखा – विनय पत्रिका. उलटने-पलटने पर कॉम्प्लेक्सिया गया. अपने से कहा – मिस्टर ज्ञानदत्त इतनी बढ़िया हिन्दी तो तुम लिख पाने से रहे. लिहाजा अपने अंग्रेजी के शब्द ठेलने का क्रम ढ़ीला मत करो. भले ही चौपटस्वामी अंग्रेजी का पानी मिलाने पर कितना भी कहें.
2. चेले को बनारस में भेजा ‘बना रहे बनारस’ खरीदने. दुकान वाला बोला – छप रही है. महीना – डेढ़ महीना लगेगा आने में.

भाई जीयह जान अच्छा लगा कि भाभी जी विमर्श कर आप सही निर्णय पर पहुँच पाये.हमारे भी सारे सही निर्णय (थोड़े से ही हैं) पत्नी की सलाह से ही हुये हैं.अब जब अगली बार विमर्श करने बैठे तो जरा यह भी पूछ लिजियेगा कि यह जो दाईं ओर ऊपर बाजू में दिये गये सर्वेक्षण के परिणाम घोषित कर उन पर अमल करना शुरु कर दूँ या हमेशा के सिर्फ़ Data Collection Centre (यह इन्गलिश आप की अदा की कॉपी करने का प्रयास है-जैसे जवानी में अमिताभ टाईप बाल रख लेते थे, यह हमारा अपने हीरो को सम्मान देने का अंदाज होता है) बना रहने दूँ भारत सरकार की तरह. लोगों को आशा बनी रहती है कि शायद हमारे दिये वोट पर अमल होगा, तो हो-हल्ला नहीं मचाते. :)आभार, बना रहे बनारस के इस अंश के लिये भी.
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खाक भी जिस जमीं की पारस हैशहर वो मशहूर बनारस है
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ताकि सनद रहे-आलोक पुराणिक की हिमेश रेशमियाई पोस्ट पर संजीत त्रिपाठीगी का कमेंट-ज्ञान दद्दा, बढ़िया हुआ कि आपने बस जानकारी ही ली रेशमिया के बारे में,दो चार गाने सुन लोगे तो दफ़्तर छोड़ रेलवे लाईन पर इंजन के सामने जाकर खड़े हो जाने की सोचोगे!!
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जे बात!सही चित्रण!!शुक्रिया कि आपने और प्रस्तुत किया!!ग़ृहमंत्रालय की राय से आपको ऐसी सदबुद्धि फ़िर फ़िर आती रहे!
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Sahi hai…Bana Ras…Bhaiya, agar ho sake to ek lota ras kal aur banaaeeyega…Yunus Bhai ko bidi ka sutta lagta hai, wahi mujhe ras lagta hai.
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ये उपरी अदालत मे जाने का रास्ता क्या है,क्या आप संदेश,शिकायत,पहुचाने के प्रति इमानदारी,दिखाते हुये हमारा संदेश पहुचा देगे..?कृ्पया किताब आने पर भेजने के लिये हमारा पता भी नोट किया जाय.रिजरवेशन के साथ..:)
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अरे मज़ा आ गया, ज्ञान जी इसे कहते हैं सही ज्ञान बिड़ी । हृदय से धन्यवाद । अब हमने इस पुस्तक को मंगवाने की ठान ली है ।
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बढ़िया और नियमित देते रहिये। बनारस विशेषांक की बहूत डिमांड है। बनारस पर पढ़ते-पढ़ते पब्लिक कभी नहीं थकेगी। आगे आपने लिखा है-चेले को बनारस में भेजा ‘बना रहे बनारस’ खरीदने. दुकान वाला बोला – छप रही है. महीना – डेढ़ महीना लगेगा आने में.इस चेले को हम बताते हैं कि आपके उस्तादजी का नालेज बहूत ज्यादा हो लिया है, सो जनरल नालेज अपडेट नहीं ना कर पाते। हिमेश को नहीं जानेंगे, तो अपने वक्त को नहीं जानेंगे, अपने वक्त के य़ूथ को नहीं जानेंगे। वक्त बहूत बदल रहा है, कम से कम मध्य वर्ग के लिए तो यह कहा ही जा सकता। सरजी अब दो कम्यूनिटीज हैं-एक आरकुट कम्यूनिटी, और दूसरी चिरकुट कम्यूनिटी। अपन दोनों में हैं। आप कहां हैं।
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बढ़िया! यह जानकर सुकून मिला कि कोई तो है दुनिया में जो आपको हम जैसा बनने के लिये ठेल रहा है। अच्छा लगा यह पाठ!
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पहली चीज तो ये कि आप अपने को कमेंटित करने वाले का ध्यान रखते हैं यदि वो गान्धीगिरी पर उतर आये तो.इससे हौसला बढ़ा कि अब हम भी गान्धीगिरी कर सकते हैं..दूसरा यह कि आप महतवपूर्ण फैसलों से पहले भाभी जी की राय लेते हैं..इसलिये हमे अपनी गुहार कहाँ लगानी है ये भी समझ आ गया. यह लेखांश तो अच्छा था..मजा आया पढकर…
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