चाय उदर में सतत डालते आदमी
अच्छे और बुरे को झेलते आदमी
बेवजह जिन्दगी खेलते आदमी
गांव में आदमी शहर में आदमी
इधर भी आदमी, उधर भी आदमी
निरीह, भावुक, मगन जा रहे आदमी
मन में आशा लगन ला रहे आदमी
खीझ, गुस्सा, कुढ़न हर कदम आदमी
अड़ रहे आदमी, बढ़ रहे आदमी
हों रती या यती, हैं मगर आदमी
यूंही करते गुजर और बसर आदमी
आप मानो न मानो उन्हें आदमी
वे तो जैसे हैं, तैसे बने आदमी
सवेरे तीन बजे से जगा रखा है मथुरा के पास, मथुरा-आगरा खण्ड पर, एक मालग़ाड़ी के दो वैगन पटरी से खिसक जाने ने. पहले थी नींद-झल्लाहट और फिर निकली इन्स्टैण्ट कॉफी की तरह उक्त इंस्टैण्ट कविता. जब हम दर्जनों गाड़ियों का कतार में अटकना झेल रहे हैं, आप कविता झेलें. वैसे, जब आप कविता झेलेंगे, तब तक रेल यातायात सामान्य हो चुका होना चाहिये.
पुन: बेनाम टिप्पणी में सम्भवत: चित्र पर आपत्ति थी. मैने स्वयम बना कर चित्र बदल दिया है.

मै भी था आदमी तुम भी थे आदमीवो भी था आदमीयह भी था आदमीहम भी थे आदमीआदमी से आदमीआदमी को आदमी आदमी आदमी आदमी आदमी आदमी आदमी
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मजबूरी में फंस चुका है, जीता मरता आदमी.संबंधों की लाज रखने, टिप्पणी करता आदमी.–अच्छा है जब हम नहीं सो पा रहे तो किसी को क्यूँ चैन से सोने दें वाली फिलास्फी भी ठीक ही है, भाई साहब!!
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