कौन बर्बर नहीं है?


प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी मुकाम पर जघन्य बर्बरता के सबूत देती है। प्रत्येक धर्म-जाति-सम्प्रदाय किसी न किसी समय पर वह कर गुजरता है जिसको भविष्य के उसके उत्तराधिकारी याद करते संकोच महसूस करते हैं। इस लिये जब कुछ लोग बर्बरता के लिये किसी अन्य वर्ग को लूलूहाते (उपहास करते) हैं – तो मुझे हंसी आती है।

बहुत पढ़ा है हिटलर की नात्सी बर्बरता के बारे में। संघ के बन्धु इस्लाम की आदिकालीन बर्बरता के बारे में अनवरत बोल सकते हैं। नरेन्द्र मोदी को दानवीय कहना तो जैसे फैशन नैतिक अनुष्ठान है। उनके चक्कर में सारे गुजराती बर्बर बताये जा रहे हैं। यहूदियों पर किये गये अत्याचार सर्वविदित हैं। ईसाईयत के प्रारम्भ में यहूदी शासकों ने भी अत्याचार किये। कालांतर में ईसाइयत के प्रचार प्रसार में भी पर्याप्त बर्बरता रही। हिन्दू धर्म में अपने में अस्पृष्यता, जाति और सामंतवाद, नारी उत्पीड़न, शैव-वैष्णव झगड़े आदि के अनेक प्रकरणों में बर्बरता के प्रचुर दर्शन होते हैं।

बर्बरता के बारे में बोलने से पहले गिरेबान में झांकने की जरूरत है।

नेताजी सुभाष बोस अंग्रेजों के खिलाफ सन 1942 में जापानियों के साथ मिल गये थे। सामान्य भारतीय के लिये अंग्रेज विलेन, नेताजी हीरो हैं। तो तार्किक रूप से जापानी मित्र नजर आते हैं। जापानी भारत के मेनलैण्ड पर विजयपताका फहराते नहीं आये। अन्यथा हमारी सोच कुछ और होती – जापानियों के प्रति और शायद नेताजी के प्रति भी।

मनोज दास की एक पुस्तक है – मेरा नन्हा भारत। अनुवाद दिवाकर का है और छापा है नेशनल बुक ट्रस्ट ने।  पेपर बैक की कीमत रु. 75.-

इस पुस्तक में प्रारम्भ के कुछ लेख अण्डमान के बारे में हैं। उन्हें पढ़ें तो जापानी गर्हित बर्बरता के दर्शन होते हैं। मैं आपको एक छोटे अंश का दर्शन कराता हूं:

…..दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था। जापानियों ने 23 मार्च 1942 को पोर्ट ब्लेयर पर हमला बोल दिया। ….अभागे देशवासियों को दांतपीसते घुसपैठियों के स्वागत के चिन्ह प्रदर्शित करने की जुगत करनी पड़ी। बिन एक भी गोली चलाये बारह घण्टे के अन्दर पूरा अधिकार हो चुका था।… जल्द ही जापानियों को बाजारों में घूमते, जो भी इच्छ हो उसे उठा लेते और किसी भी दुकान से ऐसा करते देखा जाने लगा। …कुछ को तो अपने चेहरे पर शिकन लाने के लिये थप्पड़ भी खाने पड़े।

….जापानी जुल्फिकार के घर में घुसा और उसने दो अण्डे उठा लिये। पीड़ा से दांत पीसते हुये भी नर्म दिखाते हुये जुल्फिकार को घृष्ट होना पड़ा कि "कृपया एक छोड़ दें, क्यों कि हमारे एक बच्चा है जिसे इसकी जरूरत होती है।" लेकिन जापानी अधिकारी ने उसे धमकाने वाले अन्दाज में देखा कि जुल्फिकार उसे रोकने का साहस तो करे। अचानक जुल्फिकार ने अपनी बन्दूक निकाली और गोली चला दी।

…. जुल्फिकार की गोली तो जापानी के सिर को छूती हुई निकल गयी पर वह जल्दी ही हजारों सैनिकों को ले आया। वे राइफलों से हर दिशा में गोली बरसा रहे थे। रास्ते में आने वाले सभी घरों को आग लगा रहे थे। अंतत: उन्होने जुल्फिकार को पकड़ लिया। ….उसे घसीटा गया, क्रूरता से पीटा गया और गोली मार दी गयी।

आगे जो विवरण है वह नात्सी बर्बरता से किसी प्रकार कम नहीं है। बहुत से भारतीयों को सामुहिक यातना देने और जापानियों द्वारा उनकी केल्कुलेटेड हत्या के प्रसंग हैं। नेताजी किनके साथ थे! और उन्हे पता भी चला जापानी बर्बरता का या नहीं? (कृपया नीचे बॉक्स देखें) 

मैं नेताजी को गलत नहीं ठहरा रहा। मैं नेताजी के द्वारा प्रयोग किये गये विकल्प को भी गलत नहीं कह रहा। मैं यह  भी नहीं कह रहा कि ब्रिटिश जापानियों से बेहतर थे। मैं केवल यह कह रहा हूं कि बर्बरता किसी एक व्यक्ति-वर्ग-जाति-सम्प्रदाय-देश का कृत्य नहीं है। घर में देख लें – पति पत्नी से बर्बर हो जाता है।

अत: मैं पहले पैरा में लिखी लाइनें पुन: दोहरा दूं - 

इस लिये जब कुछ लोग बर्बरता के लिये किसी अन्य वर्ग को लूलूहाते (उपहास करते) हैं – तो मुझे हंसी आती है।

नेताजी को अण्डमान में देशवासियों से कैसे मिलाया गया:
दिसम्बर 29’1943:
विमान से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस निकले और उन लोगों के बीच से गुजरे जिन्हे दो पंक्तियों में खड़े रहने का आदेश दिया गया था। "मानो वे गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण कर रहे हों"। जापानी अधिकारी उनके आगे और पीछे मार्च कर रहे थे और कभी कभी बगल में भी रहते थे। उनके पास भारतीयों से बातचीत का कोई अवसर नहीं था। उन्होने जरूर असहज महसूस किया होगा लेकिन वह उनके लिये सवाल उठाने या प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने का अवसर शायद नहीं था।
                           —— मनोज दास, पुस्तक में एक लेख में।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

19 thoughts on “कौन बर्बर नहीं है?

  1. आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ। बस यही कहना चाहूँगा कि अन्य लोगों की तुलना में हिन्दुस्तानी कौम कम बर्बर रही है।

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  2. बर्बरता मनुष्य का मूल स्वभाव है लेकिन, रहने लायक समाज बनाने के लिए जरूरी है कि किसी की भी बर्बरता को ठीक न ठहराया जाए। कहीं किसी संदर्भ में वो ठीक हो तब भी। क्योंकि, एक बार बर्बरता को ठीक ठहराने से आगे बर्बरता के दुहराव की संभावना बढ़ जाती है।

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  3. बर्बरता के बारे में बोलने से पहले गिरेबान में झांकने की जरूरत है। — प्रभावशाली लेख है.

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  4. हम भारतीयों से ज़्यादा बर्बरता के संदर्भ में और कौन वयान कर सकता है ? हमने देखा है युगों- युगों से लगातार बर्बरता का ख़ौफ़नाक मंज़र किसी न किसी रूप में, बहुत सुंदर प्रसंग रखा है आपने.वैसे बर्बरता को किसी जाती- धर्म या संप्रदाय से जोड़कर नही देखा जा सकता, हर मनुष्य के भीतर गंदगी और सुंदर अस्तित्व का समागम होता है, हर मनुष्य के भीतर छलकता है प्यार , मगर खोखले आदर्श को ज़िंदा रखने की प्रवृति और बनावटी दंभ उसे बर्बरता की ओर उन्मुख कर देता है. आपने सही कहा है, बर्बरता के बारे में बोलने से पहले गिरेबान में झांकने की जरूरत है। यह सच है कि प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी मुकाम पर जघन्य बर्बरता के सबूत देती है। बहुत सुंदर और सारगर्भीत है आपका यह पोस्ट, नि:संदेह प्रसन्श्नीय है.बधाई स्वीकार करें..!

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  5. आपका ये लेख मुझे अब तक का लिखा हुआ सबसे अच्छा और विचार करने योग्य प्रतीत होता है…बधाई स्वीकार करें..

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  6. बर्बरता किसी जाती धर्म या समाज मैं नहीं बल्कि व्यक्ति मैं होती है. मनुष्य मूल रूप से पशु ही तो है सिर्फ़ एक ही अन्तर है की पशु हँस नहीं सकता बाकी सारे गुण समान हैं. हम लाख छुपाने की कोशिश करे लेकिन हिंसक प्रवर्ती कहीँ न कहीँ मौका और साधन मिलते ही प्रकट हो जाती है. हमेशा की तरह अपने नाम के अनुरूप बहुत ज्ञान वर्धक लेख लिखा है आपने. साधुवाद.नीरज

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  7. अपहरण, शोषण वही कुत्सित वही अभियानखोजना चढ़ दूसरों के भष्म पर उत्थानशील से सुलझा न सकना, आपसी व्यवहारदौड़ना रह-रह उठा उन्माद की तलवारद्रोह से अब भी वही अनुरागप्राण में अब भी वही फुंकार भरता नागदिनकर जी की ये पंक्तियाँ, मनुष्य के चरित्र को उजागर करती हैं…..शायद जो लंका में रहता है, वही रावण बन जाता है.

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  8. सबकुछ देखने वाला किस वर्ग का है, किस गुट का है इस पर निर्भर करता है । मुझे आतंकवादी बर्बर लगते हैं । आतंकवादियों के परिवार जनों को पुलिस व सरकार बर्बर लगती है । जो हमें बर्बर लगता है वह किसी का हीरो होता है । सच तो यह है कि अवसर मिलते ही लगभग हर मनुष्य आततायी हो सकता है । इसीलिये किसी भी एक व्यक्ति को इतनी शक्ति नहीं मिलनी चाहिये कि वह उसका दुरुपयोग कर सके ।घुघूती बासूती

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  9. बहुत सही मुद्दे पर बहुत ही सावधानी से लिखा है आपने!!!वाकई हम सबमें ही एक बर्बरता छिपी रहती है जो कि मौका पाते ही उद्घाटित हो उठती है!!

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