अपनी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी की शिक्षा में गड़बड़ नहीं है। गड़बड़ अंग्रेजियत की शिक्षा में है। जब हमारा वैल्यू सिस्टम बदलता है तो बहुत कुछ बदलता है। अंग्रेजियत ओढ़ने की प्रक्रिया में जो बदलाव आता है वह डिस्टॉर्शन (distortion – विरूपण, कुरूपता, विकृति) है – सही मायने में व्यक्तित्व में बदलाव या नया आयाम नहीं। अगर हम इस डिस्टॉर्शन से बच कर अंग्रेजी भाषा सीख कर उससे लाभ उठाते हैं, तो श्रेयस्कर हो सकता है?
अंग्रेजियत के डिस्टॉर्शन क्या हैं? मैं उनको सूची बद्ध करने का यत्न करता हूं। यह सूची पूर्ण कदापि नहीं कही जा सकती और इसमें और भी मुद्दे जोड़े जा सकते हैं। कुछ लोग एक आध मुद्दे को सम्भव है डिस्टॉर्शन न मानें। पर कुल मिला कर अंग्रेजी और अंग्रेजियत की बहस चल सकती है।
अंग्रेजियत के कुछ तत्व यह हैं:
- मातृभाषा के प्रति हिकारत। अंग्रेजियत के चलते भारत वह देश बन जायेगा जहां अशिक्षा अधिकतम है और जहां मातृभाषा की अशिक्षा भी अधिकतम है। यह एक प्रकार से नव उपनिवेशवादी षडयंत्र है। उपनिवेश काल में लोगों ने अंग्रेजी सीखी थी पर मातृभाषा से जुड़ाव भी बरकरार रहा था। अब यह जुड़ाव गायब हो रहा है। अब लोग अपने बच्चे से ही नहीं अपने कुत्ते से भी अंग्रेजी बोल रहे हैं।
- अंग्रेजियत का अर्थ यह नहीं कि अंग्रेजी भाषा में प्रवीणता की दशा है। जो स्तर अंग्रेजी का है वह कुछ स्लैंग्स, भद्दे शब्दों, पोर्नोग्राफिकल लेक्सिकल आइटम और अर्धशिक्षित अंग्रेज की अंग्रेजी के समतुल्य है। असल में आपको अगर अपनी भाषा पर कमाण्ड नहीं है तो आपकी किसी अन्य भाषा पर पकड़ तो स्तरीय हो ही नहीं सकती। कुछ और केवल कुछ ही हैं जिनकी मतृभाषा अंग्रेजी है और सोच भी अंग्रेजी। वे बड़े शहरों में हैं और आम जनता से कटे हैं। पर वे बहुत कम हैं।
- अधकचरी अंग्रेजी जानने वाले अंग्रेजियत के अभिजात्य से युक्त अवश्य हैं पर अपने परिवेश और समाज को बौद्धिक और नैतिक नेतृत्व प्रदान करने में पूरी तरह अक्षम हैं। मैं इसमें तथाकथित बड़े राजनेताओं की आगे की पीढ़ी के राजकुमारों और राजकुमारियों को भी रखता हूं। भारत में राजनीति पारिवारिक/पैत्रिक वर्चस्व का मामला है पर उत्तरोत्तर अंग्रेजियत के चलते बौद्धिकता/नैतिकता के गुण गायब हो गये हैं।
संस्कारों का उत्तरोत्तर अभाव और अज्ञता। वीभत्स कॉमिक्स ने जातक कथाओं, लोक कथाओं और दादी-बाबा की शिक्षाप्रद बातों का स्थान ले लिया है। रही सही कसर टेलीवीजन के तथाकथित लोकरंजन युक्त कार्यक्रमों नें पूरी कर दी है।
- स्थानीय कला, संगीत, साहित्य और गुणों का ह्रास। उसका स्थान अश्लीलता और भोण्डेपन द्वारा उत्तरोत्तर ग्रहण करते जाना।
- पर्यावरण से प्रेम का अभाव। विरासत पर गर्व न होने और धुर स्वार्थवादिता की आसुरिक इच्छा के चलते अपने आसपास, नदी, पहाड़, झरनों और फ्लोरा-फाउना का वर्चुअल रेप।
मैं कोई समाजशास्त्री या भाषा विज्ञानी नहीं हूं। और मैं अपनी मातृभाषा पर जबरदस्त पकड़ रखता हूं – ऐसा भी नहीं है। कुछ ही महीने पहले हिन्दी लेखन में सफाई न होने के कारण मुझे हिन्दी ब्लॉग जगत में बाहरी तत्व माना जाता था। पर अपनी सोच में कई भारतीयों से अधिक भारतीय होने को मैं अण्डरलाइन करना चाहता हूं। उसके चलते मैं यह अवश्य कहूंगा कि शिक्षा में अंग्रेजी हो; जरूर हो। पर वह अंग्रेजियत की बुनियाद पर और स्थानीय संस्कृति तथा भाषा के प्रति हिकारत के साथ न हो।
शिक्षा में अंग्रेजी शामिल हो; अंग्रेजियत नहीं।
मैं अपने पास की गुण्डी की मां को देखता हूं। वह खुद ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पातीं, अवधी मिला कर गूंथती हैं हिंदी के आटे को। निम्न मध्यम वर्गीय जीवन जी रहा है उनका परिवार। अगले सेशन से उन्हें अपनी लड़की – पलक नाम है उसका – को स्कूल भेजना है। पास में कोई अंग्रेजी स्कूल स्तर का नहीं है। उसे नौ किलोमीटर दूर सिविल लाइन्स में कॉन्वेण्ट स्कूल में भेजने का मन्सूबा बांध रही हैं वह। दो किलोमीटर दूर महर्षि पातंजलि स्कूल है। वहां शुरू से अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती है।
पर वहां? वह तो देसी है!

अंग्रेजियत के कारण हो रहे डिस्टॉर्शन को बखूबी रेखांकित है आपने। दूसरों की तुलना में विशिष्ट और श्रेष्ठ दिखने की कोशिश करना तो एक स्वाभाविक मानवीय ग्रंथि है, लेकिन अंग्रेजियत के कारण भारतीय समाज में जो डिस्टॉर्शन हो रहा है, उसके मूल में है सत्ता और संपन्नता के साथ अंग्रेजी का रिश्ता। हिन्दी एवं दूसरी भारतीय भाषाओं को सहजता से अपनाने वाले लोग भी जब आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्ति-संपन्न बनने लगेंगे तो यह हालात बदलेंगे।
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बढ़िया और ईमानदार विश्लेषण.मैं कई ऐसे ‘इंडियन्स’ से मिला हूँ जो देसी लोगों से बातचीत में भी अंग्रेजों जैसा बोलने की क़वायद करते हैं. कॉल सेंटर में फ़िरंगियों की सेवा करते हुए या फिर फ़िरंगियों को संबोधित करते हुए ऐसा करना समझ में आता है, लेकिन देसी लोगों से बातचीत में पंजाब को पुन्जाब और बिहार को बीहाss कहने का क्या मतलब?
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शानदार पोस्ट! ४२ साल पहले रागदरबारी में मास्टर मोतीराम ने कहा था- साइंस साला बिना अंग्रेजी के आयेगा? आज मास्टर मोतीराम बहुतायत में हो गये हैं। :)
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मेरे हिसाब से सिर्फ़ हिन्दी और अग्रेजी क्युं, जितनी भाषाएं आदमी सीख सके उतनी सीखे और अच्छी पकड़ बनाए उन सब भाषाओं पर्। पर अपनी जमीन से जुड़ा रहे। अपनी जमीन से उख्ड़ा पेड़ दूसरी जगह कभी अपने पूरे सामर्थ्य जितना नहीं फ़ल फ़ूल सकता
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एक बहुत ही सही मुद्दे पर सही बात कही आपने।मेरे पांच भतीजों में से दो कॉन्वेण्ट स्कूल से, और दो महर्षि स्कूल से पढ़े हैं जबकि एक अभी महर्षि में ही पढ़ रहा है। इनमे तुलना करता हूं तो कभी-कभी महर्षि स्कूल के प्रोडक्ट वाले भतीजों में आदमीयत ज्यादा महसूस होती है। यह मेरी गलतफहमी भी हो सकती है पर ऐसा ही लगा।और सबसे छोटा जो अभी महर्षि स्कूल में पढ़ ही रहा है प्राईमरी में, उस पे तो कई पोस्ट लिखी जा सकती है। ;) उधम मचाने मे इतना एक्स्पर्ट है वह।
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