मेरी मां के पैर में रक्त का थक्का जमने के बाद उनका एक पैर कम ताकत का हो गया। उसके चलते घर में एक शौचालय में पश्चिमी स्टाइल का कमोड़ (commode – मलमूत्र त्याग का पात्र) लगाना पड़ा। घर में दूसरा शौचालय बचा था भारतीय स्टाइल का। पर मेरे इलाहाबाद स्थानान्तरण होने पर मैने उसको भी पश्चिमी छाप का करवा लिया – पिताजी के कूल्हे की हड्डी के टूटने और मेरे खुद के शौच के दौरान अखबार आदि पढ़ने मे सहूलियत के चलते उसका उपयोग ज्यादा जान पड़ा। लिहाजा घरमें कोई भारतीय स्टाइल का शौचालय बचा ही नहीं। रेलवे के बंगलो में दो से अधिक शौचालय थे और कम से कम एक भारतीय छाप का उपलब्ध रहता था। अपने व्यक्तिगत मकान में चिर्कुट अफसर यह समस्या झेले – अजीब सी बात है। अब हम तीसरा टॉयलेट बनवाने जा रहे हैं – भारतीय तरीके का। मेरी पत्नी और बिटिया को पूर्वी तरीके का शौचालय ही पसन्द है। उनमें पानी कम इस्तेमाल होता है और कब्ज की शिकायत कम रहती है।
सवाल यह है कि पश्चिमी छाप के कमोड का चलन और सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार स्वतंत्र भारत में कैसे हुआ? यह बहुत कुछ वैसे ही है जैसे कान्वेण्ट स्कूल, अंग्रेजी की अनिवार्य शिक्षा, पाश्चात्य मूल्यों की गुलामियत से हम चिपके हैं और उसका बखान कर ऊर्जा या महत्व पाते हैं।
| "चाहे रेल के डिब्बे हों, सिनेमा हाल, अपार्टमेण्ट, होटल या हॉस्टल; कमोड उनके शौचालय डिजाइन का अनिवार्य अंग हो गया है। इसके लिये न तो इंगलैण्ड किसी तरह हमें ठेल रहा है न अमेरिका और न विश्व बैंक। यह भारत की अपनी अभिजात्य सोच की देन है।" |
कमोड का भारतीय वातावरण में एक रूप होना कई प्रकार के झंझट पैदा करता है। इनमें पानी का खर्च – एक बार में लगभग बीस-तीस लीटर होता है। पानी की किल्लत ’कोढ़ में खाज’ का प्रभाव डालते हैं। और प्रयोग किया यह प्रदूषित जल बिना ट्रीटमेण्ट के नदियों में जाता है। उन्हें और प्रदूषित करता है।
फिर भारतीय लोगों में कमोड का प्रयोग ठीक से करने की आदत नहीं है। टिश्यू पेपर का प्रयोग अगर होता है तो जरूरत से ज्यादा होता है जो सीवेज लाइन को ठस करता हैं। कुछ लोग तो कमोड की सीट पर भी भारतीय तरीके से बैठते हैं। ट्रेनों में तो पश्चिमी तरीके का शौचालय किसी भी प्रकार से साफ नहीं रह पाता। पानी और पेशाब से लोग कमोड की सीट गन्दी कर देते हैं। वैसी सीट पर तो बैठना हाजीइन के हिसाब से कतई उपयुक्त नहीं हैं।
पर आप किसी भी स्थान पर देख लें – पश्चिमी स्टाइल का कमोड़ लगाया जाना अनिवार्य सा हो गया है। चाहे रेल के डिब्बे हों, सिनेमा हाल, अपार्टमेण्ट, होटल या हॉस्टल; कमोड उनके शौचालय डिजाइन का अनिवार्य अंग हो गया है। इसके लिये न तो इंगलैण्ड किसी तरह हमें ठेल रहा है न अमेरिका और न विश्व बैंक। यह खालिस भारत की अपनी अभिजात्य सोच की देन है।
मैने कहीं पढ़ा है कि जापान में अधिकतर टॉयलेट पूर्वी प्रकार के हैं। पर भारत में तो कमोड और कमोड चिन्तन चलेगा – कलोनियल मानसिकता के चलते।
यह पोस्ट मैने घर आये प्लम्बर को काम करते देख कर सोची। उसे कमोड और सिस्टर्न (cistern – पानी की टंकी) को ठीक करने बुलाया गया था। वह अपने तरह का विशिष्ट बन्दा था। अनवरत अपनी प्रशंसा कर रहा था। अपने को मुम्बई का एक दशक काम किया सुपर दक्ष कारीगर बता रहा था जिसे घर की जिम्मेदारियों के चलते इलाहाबाद आना पड़ा। मैने उसका फोटो खींचने की बात कही तो बोला – "जरूर लीजिये साहब, बहुत से लोग मेरी दाढ़ी-मूछें देख फोटो लेते हैं!"![]()

काफी हद तक सहमत पर यही विरोध तो उस समय भी हुआ होगा जब लोगो से सुबह-सुबह लोटा लेकर जाने की बजाय घर मे ही निपटने की सलाह दी गयी होगी। वैसे देहातो मे अभी भी लोटे वाला सिस्टम है। दातून करते-करते सुबह की सैर होती है और जमकर पेट साफ होता है। लौटते वक्त वनस्पतियो का नाश्ता भी हो जाता है।
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ज्ञान का भण्डार है आप । हर विषय पर लिखने मे पारंगत।
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अपना भी बहुत सा अध्ययन वंही होता है. बड़ी शांत जगह है. खास कर पढने और सोचने के मामले मे.आपकी तरह ही विषय खोजी प्रवृति को अपनाना पड़ेगा नही तो ये ब्लाग नैया पार नही लगेगी.महीने मे ७-८ से ऊपर जा ही नही पाता हूँ.
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आपकी प्रत्येक पोस्ट कुछ न कुछ नयापन लिये व अनूठी होती है, हमेशा मुस्कुराती हूं पढ़कर….बहुत आभार
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इधर किताबों की पढ़ाई तो मेरी कमोड पर ही बैठकर पूरी होती है। कमोड के साथ लोग एडजस्ट करते जा रहे हैं, लेकिन सचमुच यह भारतीय परिवेश के लिए अनुकूल नहीं है। जब जापान जैसा विकसित देश पूर्वी स्टाइल को अपनाए रख सकता है तो हम क्यों नहीं। क्या कीजिएगा, हर जगह औपनिवेशिक मानसिकता जड़े जमाकर चली गई है क्योंकि आजादी के आंदोलन में इसे सिरे से उखाड़ा नहीं गया।वैसे प्लंबर चंबल से आया कोई डकैत लगता है। सावधान रहिएगा।
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अमेरिका में कोलोन कैंसर के बहुत ज़्यादा केसेस का कारण कमोड में खोजा गया है..ये जुर्म साबित करने वाले भी अमेरिकी लोग हैं.. उँकड़ू बैठने से बड़ी आँत पर जो दबाव पड़ता है वह कमोड पर बैठने से नहीं पड़ता और ज़ोर लगाना पड़ता है.. जिसे से समस्या होती हैं..
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बढि़या है। कमोड के सामने पोर्टेबल मेज लगाकर ब्लागिंग भी की जा सकती है। पानी तो सही में ज्यादा खर्चा होता है कमोड में। दो साल मैं सिविल मेन्टिनेन्स का काम देखता रहा। उसमें कुछ घरों में एक हिंदी और एक अंग्रेजी टाइप के कमोड लगे हैं। आये दिन लोग कहते थे हिंदी की जगह अंग्रेजी कर दो, अंग्रेजी की जगह हिंदी कर दो या फिर दोनों हिंदी कर दो या दोनों अंग्रेजी। कुछ लोग स्वास्थ्य कारणॊं से ऐसा करते थे कुछ आदतन। मूछें शानदार हैं प्लम्बर की। :)
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एक और किस्म का commode है जिसके बारे में आपने जिक्र नहीं किया।मेरे पिताजी इसे “Anglo Indian” commode कहा करते थे।इस पर दोनों तरीकों से मल-मूत्र का त्याग हो सकता है।मेरे विचार में घर में दोनों होनी चाहिए।नौजवानों के लिए भारतीय, बुजुर्गों के लिए पश्चिमी।पस्न्द अपनी अपनी।मैं दोनों का उपयोग करता हूँ।हाँ, एक बात अवश्य कहूँगा।सफ़ाई हमेशा पानी से करूँगा।यह toilet paper का प्रयोग मुझसे बर्दाश्त नहीं होता!G विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
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ज्ञान जी, धन्यवाद्। तीसरा देसी टॉयलट बनवाने के लिए। कम से कम मेरा जैसा देसी मेहमान पहले ही दिन नहीं भाग छूटेगा।
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ज्ञानदा , अद्बुत चिंतन है। नित नूतन विषय है आपके पास। इससे पहली और उससे पहली पोस्ट पर भी टिपियाने गया था मगर मैसेज बाक्स के आगे पोस्टिंग आप्शन गायब । ऐसा रोज़ हो रहा है आजकल । खुदा जाने क्यों …मजेदार है ..
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