जमीन, भैंसें और शिलिर-शिलिर परिवर्तन


मेरे घर के आसपास गाय भैंस पालने वाले रहते हैं। पिछली मुलायम सिंह सरकार के थोक वोटबैंक थे यह। उस दौरान कई सरकारी नौकरी पा गये और सभी ने शिवकुटी मेला क्षेत्र की जमीन लेफ्ट-राइट-सेण्टर हड़पी। कई अपनी दुकाने अधिकृत-अनाधिकृत तरीके से खोल कर जीवन यापन करने लगे। उनका जीवन स्तर गंवई, श्रमिक या निम्न मध्यवर्गीय शहरी जैसा है। मेरा अनुमान है कि जिस औकात के लगते हैं, उससे अधिक पैसा या रसूख है इनके पास। ये लोग श्रम करने में कोताही नहीं करते और व्यर्थ खर्च करने में नहीं पड़ते। 

सरकार बदलने से समीकरण जरा गड़बड़ा गया है। कुछ दिन पहले मेरे पड़ोस के यादव जी ने बताया कि अतिक्रमण ढ़हा देने के विषय वाला एक नोटिस मिला है उन लोगों को। उसके कारण बहुत हलचल है। पास में ही एक पार्क है। या यूं कहें कि पार्क नुमा जगह है। उसमें भी धीरे धीरे भैंसें बंधने लगी थीं। पर अब उसकी चारदीवारी रिपेयर कर उसमें कोई घास लगा रहा है। अर्थात उसे पार्क का स्वरूप दिया जा रहा है। यह सब सामान्य प्रकृति के विपरीत है। पार्क को जीवित रखने के लिये अदम्य इच्छा शक्ति और नागरिक अनुशासन की आवश्यकता होती है। वे दोनो ही नहीं हैं। तब यह क्या गोरखधन्धा है?

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"उनका जीवन स्तर गंवई, श्रमिक या निम्न मध्यवर्गीय शहरी जैसा है। मेरा अनुमान है कि जिस औकात के लगते हैं, उससे अधिक पैसा या रसूख है इनके पास। ये लोग श्रम करने में कोताही नहीं करते और व्यर्थ खर्च करने में नहीं पड़ते।" 

मेरी मानसिक ट्यूब लाइट को कुछ और इनपुट मिले। कल मेरी पत्नी ने बताया कि अतिक्रमण विरोधी मुहीम ठण्डी पड़ गयी है। सामुहिक रूप से शायद कुछ चढ़ावा चढ़ाया गया है।  अब जब जब यह नोटिस आयेगा, ऐसा ही किया जायेगा। भैसें, गायें और छप्पर यथावत हैं। पूरी सम्भावना है कि यथावत रहेगा – अगर लोग सरलता से चढ़ावा देते रहेंगे। शहर के व्यवस्थित विकास/सौन्दर्यीकरण और मेहनतकश लोगों की जीजीविषा में गड्ड-मड्ड तरीके से तालमेल बनता रहेगा।  

जो जमीन पार्क के रूप में विकसित करने की योजना है – उसका भी अर्थशास्त्र है। घास-वास तो उसमें क्या लगेगी, जमीन जरूर उपलब्ध हो जायेगी सामुहिक फंक्शन आदि के लिये। शादी-व्याह और अन्य सामुहिक कार्यों के लिये स्थानीय स्वीकृति से वह उपलब्ध होगी। और स्वीकृति निशुल्क नहीं मिलती।

परिवर्तन लाना सरल कार्य नहीं है। बहुधा हम चाहते हैं कि सब व्यवस्थित हो। पर होता अपने अनुसार है। कई बार हल्के से यत्न से या यत्न न करने पर भी बड़े परिवर्तन हो जाते हैं। सामान्यत: सब ऐसे ही शिलिर-शिलिर चलता है।    


1. एक स्वीकारोक्ति – मैं मेहनतकश लोगों की जीजीविषा के पक्ष में हूं या जमीन के अतिक्रमण के विपक्ष में; यह तय नहीं कर पा रहा हूं और यह संभ्रम ऊपर के लेखन में झलकता है। शायद ऐसा संभ्रम बहुत से लोगों को होता हो।) उसी कोण से यह पोस्ट लिख रहा हूं।

2. रवि रतलामी जी ने कल कहा कि मैं चित्रों में बहुत किलोबाइट्स बरबाद कर रहा हूं। लिहाजा मैने एमएस ऑफिस पिक्चर मैनेजर का प्रयोग कर ऊपर की फोटो १३२ किलोबाइट्स से कम कर २२ किलोबाइट्स कर दी है। आगे भी वही करने का इरादा है। मैं दूसरों की सोच के प्रति इतना कंसीडरेट पहले नहीं था। यह बी-इफेक्ट (ब्लॉगिन्ग इफेक्ट) है!Blushing

और ब्लॉगिंग में अगर कुछ सफलता मुझे मिलती है तो वह बी-इफेक्ट के कारण ही होगी।

3. शास्त्री फिलिप जी ने याद दिला दिया कि वर्ष के अन्त का समय आत्म विवेचन और भविष्य की योजनायें फर्म-अप करने का है। लिहाजा कल और परसों दुकान बन्द! आत्ममन्थनम करिष्यामि।Praying


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

12 thoughts on “जमीन, भैंसें और शिलिर-शिलिर परिवर्तन

  1. आपके नज़रिये को मैं दाद देता हूँ कुछ कहना भी एक कला ही है… अच्छा लगा आपका यह लेख…।

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  2. बड़े भाई, ये छुट्टियां कैसे झेली जाएंगी। कब्ज हो जाना है। मेरे सामने का पार्क भी कभी भैंसबाड़ा हुआ करता था। अब पार्कों में पार्क है। पर उस ने मुहल्ले में चाशनी में दूध का काम किया। अब चाशनी मैल के साथ रह रही है। ये किस्सा फिर कभी। छुट्टी से जल्दी् वापस हो लें।

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  3. गुरुवर, अब तो आपको गुरुघंटाल कहने का मन बन रहा है, मैं तो मुरीद तो हूँ ही कि एक शख़्सियत में कन्हैया से कमोड तक क्षमता है, सोचता ही रह गया और ई भईंसिया को भी आप अपने कुंजीपटल से बाँध कर प्रगट हुई गये । बड़ी अनोखी दृष्ति के स्वामी हैं आप !मेरा एक निवेदन है कि आप ब्लागर गुरुकुल चलाय दियें, तौ हमहूँ भर्ती हुई जायें , वरना यहाँ तो पानी ही भरते रह जायेंगे ।

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  4. आत्‍ममंथन का आउटपुट लेकर जल्‍दी आईये और नये साल में कुछ व्‍यक्तित्‍व विकास संबंधी कुछ हो जाए……

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  5. हमारा दोहा सुनिए :नीरज भैसन राखिये बिन भैसन सब सूनगोबर से रोटी पके मिले दूध से खून बोल बांके बिहारी लाल की जय…(कृशन भगवान जी ने ही सबसे पहले गाय और भैंस पालने के काम को सार्वजनिक प्रतिष्ठा दिलवायी थी)भैंसका शुद्ध दूध मिलता नहीं जो लोग इनको पाल कर आप को उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं उनकी कोशिशों को आप बेनकाब कर रहे हैं…ऐसे कैसे चलेगा भैय्या…लगता है अब सरस वालों ने आप के साथ कुछ सांठ गाँठ कर ली है तभी आप ऐसी पोस्ट लिख रहे हैं. जो हाल आज कल सार्वजनिक पार्क का होता है शायद आप उस से अवगत नहीं हैं ऐसे पार्कों से तो तबेले ही अच्छे.दो दिन की छुट्टियाँ मनाने जा रहे हैं तो दिमाग की खिड़की को बंद रखिये. क्या है की आप सोचते बहुत हैं.नीरज

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  6. क्या बात है दादा..? मौका अच्छा है मिल कर धंधा करते है बताईये कब आ जाऊ..आठ दस भैसे हम भी वही छप्पर डाल कर बांध लेते है.साथ मे एक हुक्का और पांच सात कुर्सिया भी डाल लेते है शाम को वही मंडली जमा करेगी ब्लोगर्स की…?

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  7. “मैं मेहनतकश लोगों की जीजीविषा के पक्ष में हूं या जमीन के अतिक्रमण के विपक्ष में;”मैं आपके नजरिये का अनुमोदन करता हूँ.चित्र और छोटा किया जा सकता है. एक पूरा लेख, हवाला इस लेख के, जनवरी में सारथी पर आ जायगा.ज्ञान जी, यह भी: “यह बी-इफेक्ट (ब्लॉगिन्ग इफेक्ट) है!”हां 2008 में प्रति दिन 20 से 30 टिप्पणी का लक्ष्य है मेरा!!

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  8. समरथ को नहिं दोष गुसांईदिल्ली में कई पार्क पार्किंग में तबदील हो लिये हैं। वैसे ये छुट्टियां आप ज्यादा ही ले रहे हैं। ये सही बात नहीं है। आत्ममंथन अपनी जगह चलता रहापोस्ट बाजी अपनी जगह चलती रहे। एक पोस्ट आत्ममंथन से पूर्व हो जायेएक पोस्ट आत्ममंथन की प्रक्रिया पर हो जायेफिर बाद में एक सीरिज हो ले। लेखन नित्यकर्म की तरह होना चाहिए। हर हाल में। येसा कि अगर न हो, अस्वस्थता महसूस हो।

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  9. ज्ञान जी परिवर्तन शिलिर शिलिर सही पर हो रहा है ना, मुंबई में वो सड़कें जो नर्क होती थीं ट्रैफिक का, वहीं देर सबेर शिलिर शिलिर फ्लाईओवर बन जाने से आनंदमय स्थिति हो गयी है । वो सब तो ठीक है पर आजकल आप छुट्टी बहुत ले रहे हैं । चक्‍कर क्‍या है । ज्ञानबिड़ी की आदत लगा दी और फिर उसे बैन कर रहे हैं । जे नाइंसाफी है, हमको पुरानी पोस्‍टें पढ़कर काम चलाना पड़ता है ।

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