कुछ मूलभूत काम करने का अभ्यास छूट गया है। रोटी बेलना नहीं आता – या आता था; अब नहीं आता। धूमिल की कविता भर में पढ़ा है – “ एक आदमी है जो रोटी बेलता है “ । खाना आता है, बेलना नहीं आता। जरूरत पड़े तो आ जायेगा। पर ईश्वर करें कि रोटी से खेलने की मति न दी है, न भविष्य में दें।
परिवार में रहते हुये रोटी के लिये खटने का काम मेरे जिम्मे है। जिसे लद्द-फद्द तरीके से निभा रहा हूं। बाकी काम – और जो ज्यादा महत्वपूर्ण काम हैं; मेरी पत्नी और अम्मा ने उठा रखे हैं। इन दोनो के बिना हम पंगु हैं। और भगवान जैसे पंगु की बाकी इन्द्रियाँ मजबूत कर देते हैं; उसी तरह मेरे इन अवलम्बों को मजबूत बनाया है।
रविवार को गेहूं बीनने का कार्यक्रम था। अम्मा जी ने हम सब को एक एक थाली पकड़ा दी। खुद धूप में सुखाये गेंहू को चलनी से चाल-चाल कर हर एक की थाली में डालती जातीं। हम सभी उसमें से कंकर, अंकरा, डांठ, गांठ, खेसार, जई आदि को बीन कर अलग करने लगे।
धीरे धीरे हम सब में स्पर्धा बनने लगी। जहां चार-पांच लोग (मेरे मां, पिता, पत्नी, मैं व मेरा लड़का) मिल कर कोई यंत्रवत काम करने लगें, वहां या तो चुहुलबाजी होने लगती है, या गीत या स्पर्धा की लाग-डांट। गीत गवाई तो नहीं हुई, पर चुहुल और स्पर्धा खुल कर चली। हम एक दूसरे को कहने लगे कि हम उनसे तेज बीन रहे हैं। या अमुक तो गेंहू बीन कर फैंक रहे हैं और कंकर जमा कर रहे हैं! देखते देखते सारा गेंहू बीन लिया गया। मायूसी यह हुई कि गेहूं और ज्यादा क्यों न था बीनने को।
रविवार का यह अनुष्ठान सिखा गया कि कोई उपेक्षित सा लगने वाला काम भी कैसे किया जाना चाहिये।
अब गेहूं बीन कर घर के पास में एक ठाकुर साहब की चक्की पर पिसवाया जाता है। बचपन की याद है। तब सवेरे सवेरे घर पर ही जांत से आटा पीसा जाता था। उसे पीसना स्त्रियां गीत के साथ करती थीं। अब तो गुजरात के जांतों के लकड़ी के बेस को मैने कई घरों में बतौर शो-पीस ड्राइंग रूम में देखा है।
यहां मेरे घर में जांत नहीं, चकरी है – दाल दलने के लिये। कुछ महीने पहले मैने मिर्जापुर (जहां पास में विंध्याचल के पहाड़ी पत्थर से चकरी-जांत बनते थे) में स्टेशन मास्टर साहब से जांत के बारे में पता किया था। अब जांत नहीं बनते। गांवों में भी लोग आटा चक्की का प्रयोग करते हैं।
कल ममता जी ने बताया था कि ब्लॉगर पर पोस्ट पब्लिश के लिये शिड्यूल की जा सकती है। यह बहुत अच्छा जुगाड़ है।
आलोक पुराणिक अपनी पोस्ट वर्डप्रेस पर सवेरे चार बजे पब्लिश के लिये शिड्यूल कर खर्राटे भरते हैं। हम सोचते थे कि कैसे प्रकाण्ड वेदपाठी ब्राह्मण हैं यह व्यंगकार जी। सवेरे ब्रह्म मुहूर्त में उठते हैं। अब हम भी पोस्ट साढ़े चार बजे शिड्यूल कर खर्राटे भरेंगे। हम भी वेदपाठी ब्राह्मण बनेंगे ब्लॉगस्पॉट पर। यह देखिये हमारे डैश बोर्ड पर हमने यह पोस्ट शिड्यूल भी की है –
हां आप अपनी पोस्ट शिड्यूल करने के लिये अपने डैशबोर्ड को ड्राफ्टब्लॉगर (http://draft.blogger.com/home) से अप्रोच करें। ब्लॉगर (http://www.blogger.com/home) से नहीं!
1998 तक तो चक्की पर खुद खड़े रह कर आटा पि्सवाने का काम तो हमने भी किया है पर डब्बा बाई उठाती थी , जब से मकान बदला है पैकेट ही जिन्दाबाद है। आप को घर के काम में हाथ बंटाते देख अच्छा लगा, पी्छे गुलाबी फ़ूल भी अच्छे लग रहे हैं सबकी फ़ोटो दिखाते तो अच्छा था समय निर्धारित कर पोस्ट डालने वाला नुस्खा अपने लिए बेकार है, रोज लिखते ही नहीं। कोई ऐसी तरकीब हो कि हमारे मन में हलचल हो और वो पोस्ट बन ब्लोग पर आ जाए तो जरुर बताइएगा…।:)
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प्रणाम ! बहुत दिनों बाद पुरानी दिनचर्या में लौटे हैं और आपकी इस पोस्ट ने तो बहुत कुछ पुराना याद दिला दिया. गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर जाने का इंतज़ार रहता.गेहूँ चुनने से चक्की में पीसने तक का आनन्द हमने लिया है.और तो और गोबर के गोल गोल ही नहीं दिल के डिज़ाइन के उपले भी बनाए हैं.
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आपकी सुबह साढ़े चार बजे की पोस्ट रात में साढ़े नौ बजे पढ़ रहा हूं ।वाकई एक अलग ही माहौल/मजा होता है जब घर के सब लोग ऐसे किसी एक काम को करने बैठे हों,बचपन में ऐसे ही माताजी या दीदी अपने साथ बिठा लेती थी काम करने को! गेहूं बीनने से से ज्यादा उसे पीठ पर लादकर या सायकल पर टांगकर पिसवाने चक्की जाने का अनुभव ज्यादा है अपन को
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Bahut purane dino ki yaad dila di apne. Hamarey yahaan bhi aisa hi karyakram hota thaa. Sardiyan shuru hone aur khatam hone par garam kapde aur razaaiyan ko dhoop dikhana bhi ek project hua karta tha. aap ne to sirf gehun bina hai lekin bahut pehle 1972 ya 73 main railway workshop jagadhari main union ne jabardast strike ki thee magar CWM jinka naam yaad nahin bilkul nahin jhuke yahan tak ki unke bungalow se bhi sara staff union se mil gaya. Log batate hain CWM saheb ne apne scooter par gehun ka tin rakha aur workshop ke paas ki market main chakki par pahuch gaye.Agal bagal ke log pahuch gaye dekhne. chakki wale ne kaha saheb main pees kar bungalow par pahucha doonga magar CWM saheb ne apni bari ka wait kiya aur aata lekar hi ghar gaye.Union ko bhi samajh aa gaya ki jhujharu officer hai aur baad main compromise par utar aaye
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भैया, गाँव में तो अभी भी गेंहू धोकर उसे चारपाई पर चादर डालकर सुखाया जाता है. उसके बाद चक्की में पिसवाया जाता है. घर की महिलाएं अब जांत तो नहीं चलाती इसलिए गाना नहीं गाया जाता. लेकिन हमारे यहाँ कलकत्ते में भी अभी भी अम्मा गेंहू धोकर उसे सुखाकर ही भेजती है चक्की पर पीसने के लिए. आटा बहुत ही बढ़िया होता है.बहुत ही बढ़िया पोस्ट है.
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यहां तो नही पर अभी भी हमारे मायके मे घर मे गेहूँ धोकर बीनकर पिसवाया जाता है।बचपन मे चक्की पर जाकर गेहूँ पिसते हुए देखने मे बड़ा मजा आता था।
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घर और पड़ोसियों का आटा जरुर पिसवा हूं
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ज्ञान जी यह तो बहुत बढिया बात है कि गाँव का गेहूँ मिल जाता है। भगवान करे कि यह सदा ही मिलता रहे। जई के विषय मे अम्मा जी से राय ले के बताये। या इसका माइक्रो चित्र भेज दे।
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@ पंकज अवधिया – हमारे घर का गेहूं अधिकतर गांव के खेत का है। उसमें कोई रासायनिक खाद भी नहीं है। अधिया पर खेती करने वाला ट्रेक्टर-थ्रेशर का प्रयोग भी नहीं करता।जमीन के हिसाब से बहुत कम मिलता है हमें – पर घर का काम चल जाता है।
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संस्मरणात्मक पोस्ट …अच्छी लगी.
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