सवेरे रेल फाटक पर वाहन रुकने पर मैने पाया कि कालीन सेंटर पर काम करने जाती महिलायें बांस के पेड़ की छाया में टेम्पो का इंतजार कर रही हैं। पास में ही गांव की दलित बस्ती है। वहां की ये शादीशुदा औरतें हैं। कुछ अधेड़ हैं और कुछ जवान। कोई स्थूल नहीं है। कोई विपन्न भी नहीं लगती। थोड़ा बहुत सिंगार किया है उन्होने। माथे पर टिकुली-सिंदूर है। शरीर पर चांदी के ही सही, पर गहने जरूर हैं। उनके पैरों में पायल और बिछुआ जरूर है। वे जमीन पर बैठे इंतजार कर रही हैं। एक दो जिन्हें सड़क पर बैठना शायद अटपटा लगता हो, खड़ी हैं।
एक दो पान तम्बाकू खाने वाली भी हैं। तम्बई रंग का होने के साथ साथ उनके चेहरे की बनावट में आकर्षण है। वे बहुत कुछ वैसे लगती हैं जैसे आंध्रा-तेलंगाना की महिलायें। सभी प्रसन्न दिखती हैं। आपस में हंस बोल रही हैं। लेवल क्रॉसिंग की रेलिंग पर उन्होने अपने प्लास्टिक के थैले रखे हुये हैं। उनमें उनका दोपहर का भोजन है।
मेरा वाहन चालक अशोक बताता है कि बाबूसराय के कालीन बुनाई केंद्र पर दिन भर काम करेंगी ये। एक ऑटो वाला इन्हे ले कर जाता और वापस लाता है। दिहाड़ी का पौने दो सौ से दो सौ रुपया मिलता है इन्हें। बीस पच्चीस रुपया ऑटो वाला लेता होगा। इनके परिवार के लगभग सभी वयस्क लोग काम करते हैं। लड़कियां (और औरतें भी) किरियात में सब्जी, मिर्च तोड़ने के लिये जाती हैं। आजकल तो अनाज की कटाई में भी काम मिल रहा है। काम सबको मिल रहा है। वह जो काम से जांगर नहीं चुराता, काम पा ही रहा है।
मेरी घर पर काम करने वाली महिला बताती है कि एक किशोरी जो अपनी सहेलियों के साथ गेहूं की कटाई के लिये जा रही है, सीजन में मजदूरी में दस-पंद्रह टीना (कनस्तर का टीन, जिसमें 13-14 किलो अनाज आता है) गेंहू संग्रह कर लेती है। जिस घर में लड़कियां हैं, वह घर खुशहाल रहता है। लड़कियां, आजकल काम मिलते रहने के कारण बोझ नहीं हैं परिवार पर। कष्ट तो उनकी शादी के बाद चले जाने पर है। पर क्या वास्तव में? रेल फाटक पर खड़ी इन आधा दर्जन औरतों को देख मुझे लगता है कि चाहे लड़कियां हों या शादीशुदा, औरतें घर की आय बढ़ाने में पूरा योगदान कर रही हैं।
ज्यादा समस्या गरीब सवर्णों – बाभन/ठाकुर – के यहां है जो अपनी महिलाओं को काम करने के लिये बाहर नहीं निकलने देते और उनकी पारिवारिक आमदनी घर का खर्च चलाने में पूरी नहीं पड़ती। सामाजिक संरचना ऐसी है कि उन बाभन-ठाकुरों की लड़कियां-औरतें मजदूरी करने की सोच भी नहीं रखतीं। और कोई काम उन्हें मिलता नहीं और खेत-कारखाने में वे काम करने वे जाती नहीं। वहां गरीबी विकट से विकततर होती जा रही है। उसके उलट दलित अगर अपने कुटैव – नशा और पैसे का गलत खर्च करना – त्याग दें तो बहुत तेजी से तरक्की करेंगे। और कर भी रहे हैं।
फाटक के सामने से पेट्रोल वैगनों वाली मालगाड़ी गुजर रही है। यह रूट तो बीटीपीएन यातायात का नहीं है। कोई ट्रेन भूले भटके इस रूट पर आ गयी है। कोई समय था जब मैं केवल रेल यातायात की सोचता था, अब गांव की दशा दिशा पर ही सोच कर अपना दिन गुजार रहा हूं। और मुझे कोई मलाल नहीं है।
कोई भी विपन्न नहीं लगती… बेहद सटीक
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Great story sir. I really appreciate your ways of writing. Read our blog: https://newskibaat.com/cataract-treatment-for-kids-at-bokaro-k-m-memorial-hospital/
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धन्यवाद जी!
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