मेरे पड़ोस में यादव जी रहते हैं। सरल और मेहनतकश परिवार। घर का हर जीव जानता है कि काम मेहनत से चलता है। सवेरे सवेरे सब भोजन कर काम पर निकल जाते हैं। कोई नौकरी पर, कोई टेम्पो पर, कोई दुकान पर।
अपनी छत पर जब हम चहल कदमी कर रहे होते हैं तो यादव जी के यहां भोजन की तैयारी हो रही होती है। वह भी खुले आंगन में। मिट्टी के चूल्हे पर प्रेशर कूकर या कड़ाही चढ़ जाती है। उनकी बिटिया सब्जी काटती, चावल दाल बीनती या चूल्हे में उपले डालती नजर आती है। बड़ी दक्षता से काम करती है। पास में ही वह उपले की टोकरी, दाल-चावल की परात, कटी या काटने जा रही सब्जी जमा कर रखती है। यह सारा काम जमीन पर होता है।
जब वह प्रेशर कूकर चूल्हे पर चढ़ाती है तो हण्डे या बटुली की तरह उसके बाहरी हिस्सों पर हल्का मिट्टी का लेप कर राख लगाई होती है। उससे चूल्हे की ऊष्मा अधिकाधिक प्रेशर कूकर को मिलती है। कूकर या अन्य बर्तन पतला हो तो भी जलता नहीं। इसे स्थानीय भाषा में बर्तन के बाहरी भाग पर लेवा लगाना कहते हैं।
मैने अपनी मां को कहा कि वे श्रीमती यादव से उस आयोजन का एक फोटो लेने की अनुमति देने का अनुरोध करें। श्रीमती यादव ने स्वीकार कर लिया। फोटो लेते समय उनकी बिटिया शर्मा कर दूर हट गयी। चूल्हे पर उस समय प्रेशर कूकर नहीं, सब्जी बनाने के लिये कड़ाही रखी गयी थी। उस दृष्य से मुझे अपने बचपन और गांव के दिनों की याद हो आती है।
मिट्टी के चूल्हे और उपलों के प्रयोग से यादव जी का परिवार एलपीजी की किल्लत से तो बचा हुआ है। वैसे यादव जी के घर में एलपीजी का चूल्हा और अन्य शहरी सुविधायें भी पर्याप्त हैं। गांव और शहर की संस्कृति का अच्छा मिश्रण है उनके परिवार में।
नेपाल में 10 अप्रैल को आम चुनाव हो रहे हैं। जनसंख्या में 57% मधेशी क्या नेपाली साम्यवादी (माओवादी) पार्टी को औकात बता पायेंगे? राजशाही के पतन के बाद पुष्पकमल दहल (प्रचण्ड), प्रचण्ड हो रहे हैं उत्तरोत्तर। पर अभी खबर है कि वे चुनाव को बोगस मानेंगे अगर साम्यवादी नहीं जीते और चुनाव में धान्धली हुई तो। यानी अभी से पिंपियाने लगे!
तीन सौ तीन की संसद में अभी उनके पास 83 बन्दे हैं। ये बढ़ कर 150 के पार हो जायेंगे या 50 के नीचे चले जायेंगे? पहाड़ के नेपाली (अ)साम्यवादी और तराई के मधेशी साम्यवाद के खिलाफ एकजुट होंगे?
पर नेपाल/प्रचण्ड/साम्यवाद/मधेशी? …सान्नू की फरक पैन्दा है जी!


चूल्हे का फोटो चौकस है।
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मैं जब विंध्याचल में पोस्टेड था , तो उस समय ऐसे दृश्यों को देखना बार-बार होता था , मगर अब ऐसा मौका मिलता ही नही , उस समय जब भी इच्छा होती अपने सहयोगियों से कहता और वे बाटी-चोखा -दाल-चूरमा बनाने में जुट जाते , संसाधन वही होता जिसका आपने जिक्र किया है ! वैसे यही हमारी मौलिक पहचान है !
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ज्ञान जी बचपन का दादी का घर याद आ गया । जहां रसोई को कुठरिया कहा जाता था । और वहां जैसा अनिल जी कह रहे हैं वैसा चूल्हा था। उस रोटी की खुश्बू और उस दाल का स्वाद । उफ़ । कब से मैं अपने ददिहाल जाना चाह रहा हूं । दस साल हो गये नहीं गया । वहां शायद अब भी मिट्टी का चूल्हा बचा होगा
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यादव जी के घर का चूल्हा बड़ा आसान है। पहले दो और तीन मुंह वाले चूल्हे भी बना करते थे, जिन पर एक साथ दाल-भार, तरकारी एक साथ पकती थी। मेरी मां मिटटी के ऐसे चूल्हे बनाने में माहिर थी। शायद मिट्टी की मूर्तियां बनाने का हुनर मुझे मां से ही जींस में मिला है।
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अब भी मौका मिलता है तो अपने देश आकर इसी तरह के माहौल में रहने का मौका ढूँढते हैं. चित्र देख कर फिर याद आ गई.
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हमारे मकान मालिक भी हफ्ते मे दो दिन और सरदियो मे तो लगभग रोज ही चूल्हा जलाये रहते है जी हमे भी उनकी रसोई से अक्सर् ये आनन्द मिल ही जाता है..:)
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एक गीत याद आ रहा है..मेरे घर के आंगन में छोटा सा झूला हो..सौंधी-सौंधी खुश्बू होगी, लीपा हुआ चूल्हा हो..:)
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चूल्हे का फोटो चौकस है।
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अपने देश की एक बहुत बड़ी आबादी की जीवन कथा यही है। आपके चित्रण ने कोलकाता के दिनों की याद दिला दी। वहां के मजदूर बेल्ट में ये नजारा आम है।
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क्या बताऊँ..यादव जी का जो आंगन का सेट अप देखा कि आनन्द ही आ गया. हमने भी जबसे भारत आये हुए हैं अपने आंगन में सिगड़ी और चूल्हा सेट किया हुआ है. आनन्द आ जाता है उस पर पके खाने का. रोज तो संभव नहीं होता मगर जब कभी भी.वैसे शायद पड़ोसी सोचते होंगे कि कनाडा जाकर पागल हो गया है मगर हमें तो मजा आ रहा है.पर नेपाल/प्रचण्ड/साम्यवाद/मधेशी? …सान्नू की फरक पैन्दा है जी! -हद कर दी आपने. कैसे भारतीय हैं जिसे दूसरों की नौटंकी में फरक (मजा) नहीं पड़ रहा है. अपनी कौन देखता है जी..बस, दूसरा परेशान तो समझो, हम पर खुदा मेहरबान. :)
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