कल प्रोफेसर गोविन्द चंद्र पाण्डे के “ऋग्वेद” की रुपये आठ सौ की कीमत पर कुछ प्रतिक्रियायें थीं कि यह कीमत ज्यादा है, कुछ अन्य इस कीमत को खर्च करने योग्य मान रहे थे। असल में खुराफात हमने पोस्ट में ही की थी कि “आठ सौ रुपये इस पुस्तक के लिये निकालते एक बार खीस निकलेगी जरूर। शायद कुछ लोग पेपरबैक संस्करण का इन्तजार करें”।
वर्णिका जी ने टिप्पणी में एक मुद्दे की बात की – क्या इस स्तर की अंग्रेजी की क्लासिक पुस्तक के लिये हम भारतीय इतना पैसा देने को सहर्ष तैयार रहते हैं और हिन्दी की पुस्तक के लिये ना नुकुर करते हैं? क्या हमारे हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकों की कीमतों के अलग-अलग बेन्चमार्क हैं?
शायद इस पर प्रतिक्रियायें रोचक हों। वैसे तो मैं इस पर एक पोल की खिड़की डिजाइन करता; पर मुझे मालुम है कि मेरे जैसे ब्लॉग की रीडरशिप इन पोल-शोल के पचड़े में नहीं पड़ती। लिहाजा आप बतायें कि आप हिन्दी और अंग्रेजी की पुस्तकों की कीमतों के बारे में सम दृष्टि रखते हैं या अलग पैमाने से तय करते हैं?
पता चले कि हिन्दी पुस्तक खरीद में किफायत की मानसिकता है या अच्छे स्तर को देख दरियादिली से खर्च की प्रवृत्ति!
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प्रोफेसर गोविन्द चंद्र पाण्डे के “ऋग्वेद” से एक अंश:
मण्डल ३, सूक्त १५, ऋषि कात्य उत्कील:, देवता अग्नि तुम हमारे लिये इस उषा की लाली प्रकट होने पर मानव साक्षी कामवर्षी पिछली उषाओं के अनुसार (प्रो. पाण्डे ने पदानुसारी भावानुवाद के साथ व्याख्या भी दी है) |


yeh baat sahi hai ke jyadater mitra english ke kitabo ko he padna pasand kerte hai.Aur humare chote sharoon ke ladke bhi jab acche sansthano mein padne jate hein to apna tajurba english mein he bayan kerte hein , shayad iseleay One Night At Call Center jaise pustak prachalit hai aur uske smakash koi hindi pustak chapne ke soch bhi nahi sakta ..kyon ke koi bhe yuva use nahin padhega……..
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निश्चय ही हिंदी और अंग्रेज़ी की पुस्तकों की क़ीमतों के अलग-अलग बेन्चमार्क हैं. आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि अंग्रेज़ी के प्रकाशक किसी किताब की मार्केटिंग में हिंदी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ख़र्च करते हैं, जिसका दाम पर असर दिखता है. शायद अंग्रेज़ी वाले प्रकाशक लेखक को ढंग की रॉयल्टी भी ईमानदारी से देते होंगे, और दाम में इसका भी कुछ योगदान रहता होगा. दूसरी ओर हिंदी प्रकाशकों के बारे में आम राय ये है कि उनकी प्राथमिकता(ख़ास कर हार्डकवर संस्करण के मामले में) आम पाठक नहीं बल्कि थोक ख़रीद करने वाले सरकारी संस्थान/पुस्तकालय/शिक्षण संस्थान होते हैं, इसलिए किताब की लागत और मूल्य में कोई तार्किक संबंध नहीं होता. हिंदी प्रकाशक लेखकों को मेहनताना देते हैं, ऐसा मानने वाले लोग अब भी थोड़े ही हैं. इस तरह की मान्यताएँ स्वीकार्य होने पर अंग्रेज़ी की किताबों के लिए थोड़ा ज़्यादा ख़र्च करते समय लोग ज़्यादा सोच-विचार नहीं करते.(ऋग्वेद का अंश प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.)
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भुवनेश शर्माजी,कड़ी की सूचना देने के लिए धन्यवाद।नोट कर लिया है मैंने।हिन्दी नाटक में विशेष रुचि है।देखने को मिलता नहीं, कम से कम पढ़ना चाहता हूँ।मोहन राकेश का नाम याद आ रहा है।किसी और नाटककार का नाम बता सकते हैं जो आपको प्रिय हो?अंग्रेज़ी की किताबें मैं तब खरीदता हूँ जब किताब हमेंशा उपयोगी सिद्ध होगी (जैसे रेफ़ेरेन्स की किताबें)। उपन्यास मैं कभी नही खरीदता। दोस्तों से या रिश्तेदारों से आसानी से मिल जाते हैं। माँगना भी नहीं पढ़ता। कुछ किताबों तो वे बिना पूछे ही दे देते हैं। अपने घर में धूल से बचाने के लिए, या shelves पर जगह बचाने के लिए, या केवल इसलिए कि वे जानते हैं कि मैं कभी किताबी कीड़ा था और किताब मेरे घर में अधिक शोभा देंगी और सुरक्षित होंगी। घर में दो अलमारियाँ हैं चका चक भरी हुई, इन किताबों से। हर साल योजना बनाता हूँ इन को पढ़ने का। अभी तक सफ़ल नहीं हुआ। बात समय की पाबंदी नहीं है। बस “distractions” आजकल इतने ज्यादा हो गये हैं (खासकर टीवी और अन्तर्जाल) कि किताबों की तरफ़ ध्यान देना मुश्किल हो गया है। और तो और, इन ब्लॉगों के चक्कर में उन किताबों के लिए समय निकालना अब और भी मुश्किल हो गया है।कोई बात नहीं। No regrets. ब्लॉग जगत में दोतरफ़ा interaction हो पाता है, जो किताबों की दुनिया में नहीं होता।आज बस इतना ही। देख रहा हूँ कि ज्ञानदत्तजी ने आज एक और पोस्ट लिखें हैं। जरा उसे भी पढूँ।
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ये कहाँ आप खरीदने के चक्कर में पड़ गए? अभी जेफ़री आर्चर पुणे आए थे तो पत्रकारों ने उन्ही की जाली पुस्तक सड़क के किनारे से खरीदकर उनको १/४ दाम पर दे दी और कहा की ये बिना तोल-मोल के है तोलमोल करने पर दाम अभी और कम हो सकता है. जेफ़री जी ने कहा की हिन्दुस्तान में १ पुस्तक ५० लोग पढ़ते हैं ! तो हम तो इस प्रथा के अनुयायी है… ख़ास कर अंग्रेजी पुस्तकों के मामले में. पढने को तो मिल ही जाती हैं… फिर खरीदता तभी हूँ जब बहुत पसंद आ जाय और संग्रह करने लायक हो. पर हिन्दी के मामले में ये फार्मूला काम नहीं करता एक तो हमारी मित्र मंडली हिन्दी की पुस्तकें खरीदती नहीं (पढ़ती ही नहीं) और दूसरा घर में भी लोग पढ़ते हैं तो खरीदता ही हूँ और अगर खरीदना है तो फिर कीमत नहीं देखता. अगर बात धार्मिक पुस्तकों की आ जाय तो फिर पढूं या न पढूं खरीदता तो हूँ ही… मैं न सही घर वाले पढ़ डालते हैं और कभी न कभी पढने की इच्छा है धार्मिक पुस्तकों की. धार्मिक पुस्तक खरीदने का एक और कारन है… मेरी माँ को बहुत खुशी होती है, लगता है लड़का लायक है… और जो बात मेरी माँ को अच्छी लगती है उसे करने से पहले मैं कभी सोच ही नहीं सकता !
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