गरीबों की पीठ पर विज्ञापन कभी नहीं आयेंगे – घोस्ट बस्टर


घोस्ट बस्टर बड़े शार्प इण्टेलिजेंस वाले हैं। गूगल साड़ी वाली पोस्ट पर सटीक कमेण्ट करते हैं –

GhostBusterPhotoहम तो इस साड़ी के डिजाइनर को उसकी रचनात्मकता के लिए बधाई देंगे और आपको इस बढ़िया चित्र के लिए धन्यवाद….

निश्चिंत रहिये, गरीबों की पीठ पर विज्ञापन कभी नहीं आयेंगे. दर्शकों को मूर्ख समझे, बाजार इतना मूर्ख नहीं।

मुझे समझ में आता है। गरीब की किडनी निकाली जा सकती है, उसका लेबर एक्स्प्लॉइट किया जा सकता है, पर उसमें अगर इनहेरेण्ट अट्रेक्शन/रिपल्शन वैल्यू (inherent attraction/repulsion value) नहीं है तो उसका विज्ञापनीय प्रयोग नहीं हो सकता।

pallette पर गरीबी में भी सेक्स अट्रेक्शन है; जबरदस्त है। इतने दर्जनों चिरकुट मनोवृत्ति के चित्रकार हैं, जो बस्तर की सरल गरीब औरतों के चित्र बनाने में महारत रखते हैं। उनके पास कपड़े कम हैं पर जीवन सरल है। कपड़े वे सेक्स उद्दीपन की चाह से नहीं पहनतीं। वह उनकी गरीबी का तकाजा है। पर वही दृष्य चित्रकार के लिये उद्दीपन का मामला बन जाता है। फिर यही चित्र कलाकृति के नाम पर जाने जाते हैं। यही सड़ियल भाव वह पेण्टर-टर्न्ड-चित्रकार रखता है जो हिन्दू मानस की कमजोरी को ठेंगा दिखाता है – हिन्दू देवियों के अश्लील चित्र बना कर। कहीं बाहर घूम रहा था(?) न्यायिक प्रक्रिया से बचने को।

गरीबी का एक्प्लॉइटेशन चाहे बांगलादेशी-नेपाली लड़कियों का कमाठीपुरा में हो या (भविष्य में) विज्ञापनों में हो, मुझे परम्परावादी या दकियानूसी के टैग लगने के खतरे के बावजूद मुखर बनायेगा उनके खिलाफ। और उसके लिये चाहे धुर दक्षिणपंथी खेमे की जय-जयकार करनी पड़े।

GhostBuster
गरीब और गरीबी का विज्ञापनीय शोषण न हो – जैसा घोस्ट बस्टर जी कह रहे हैं; तो अति उत्तम। पर अगर होता है; तो उसकी घोर निंदा होनी चाहिये।

मैं फ्री मार्केट के पक्ष में हूं। पर मार्केट अगर सेनिटी की बजाय सेनसेशन की ओर झुक जाता है तो उससे बड़ा अश्लील दानव भी कोई नहीं!

(जब फ्री हैण्ड लिखा जाता है तो अंग्रेजी के शब्द कुछ ज्यादा ठुंस जाते हैं। आशा है घोस्ट बस्टर जी अंग्रेजी परसेण्टेज की गणना नहीं निकालेंगे; अन्यथा मैं कहूंगा कि उनका नाम १००% अंग्रेजी है!)  


उसी पोस्ट पर महामन्त्री-तस्लीम का कमेण्टहालत यहाँ तक जरूर पहुंचेंगे, क्योंकि जब इन्सान नीचे गिरता है, तो वह गहराई नहीं देखता है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

22 thoughts on “गरीबों की पीठ पर विज्ञापन कभी नहीं आयेंगे – घोस्ट बस्टर

  1. बाजार जब अश्लील होता है, उससे ज्यादा अश्लील कुछ भी नहीं होता है। बाजार जब अच्छे रिजल्ट देता है, तो उनसे बेहतर रिजल्ट हो ही नहीं सकते। बाजार अपने आप में कुछ नहीं है, कुछेक मानवीय प्रवृत्तियों का निचोड़ है। कुछ निम्न मानवीय वृत्ति जैसे लालच, और डर बाजार को चलाते हैं। जीतने की इच्छा, महत्वाकांक्षाएं भी बाजार को चलाती हैं। गड़बड़ तब है, जब हर बात को बाजार के नजरिये से देखा जाये। बाजार के बारे में एक और कही जाती है कि बाजार कीमत हर चीज की लगा सकता है, पर वैल्यू किसी चीज की नहीं जानता। संतुलन बहुत जरुरी है। पर संतुलन साधना आसान काम नहीं है। आस्ट्रेलिया में कुछ साल पहले एक कंपनी शेयर जारी करके , पब्लिक से पैसा लेकर, घोषित तौर पर वेश्वालय चलाया करती थी। यह धंदा मंदीप्रूफ था। यह बाजार की अति है। पर दूसरी और समाजवादी अतियां भी कम नहीं हैं। फुलमफुल सेलरी लेना काम धेले का नहीं करना। यह दूसरी अति है। अतियों के बीच झूलती प्रवृत्तियों में कभी कभार संतुलन दिख जाता है। वरना तो ज्यादातर हम अतियों के ही आदी है।

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  2. जगजीत सिंह का एक पुराना गजल याद आ रहा है..कैसे कैसे हादसे सहते रहे..फ़िर भी हम जीते रहे हँसते रहेगरीबो के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति है…

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  3. सही फरमाया आपने …..गरीबों की पीठ पर अभी वैसे भी नरेगा का बोझ है .

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  4. आज भी जब गांव जाता हूं तो ऐक दूकान के आगे लिखे विज्ञापन ध्यान खींचते हैं – जाने वाले ध्यान किधर है, मधुशाला ईधर है- तो सोचता हूं कि क्या वाहियात पंचलाईन है, अब वो लाईने आजकल के बंदर और अंडर वियर वाले विज्ञापन से ज्यादा अच्छी लगती हैं।

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  5. एक बात और … पूंजी, बाजार, उत्पादन में तो गरीब की पीठ का इस्तेमाल नहीं हो सकता। उसे कम से कम कला के लिए तो रहने दें अन्यथा उसे कहाँ स्थान प्राप्त होगा? वह दृश्य से ही गायब हो जाएगी। और एक बात ….. पहली बार पता लगा कि पूंजी, बाजार और उत्पादन गरीबों को भी हिन्दू और मुसलमान के नजरिए से देखता है। मैं तो समझता था कि वह केवल उसे अपने लिए धन बनाने के सस्ते औजार के रूप में ही देखता है।

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  6. ज्ञान जी, ग़लती से “और हाँ, ग़रीबों की पीठ नहीं आयेंगे, पता नहीं ………. ” लिख गया, इसे यूं पढ़ा जाए :”और हाँ, ग़रीबों की पीठ पर विज्ञापन नहीं आयेंगे, पता नहीं ………. “

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  7. गरीब की पीठ पर विज्ञापन के लिए स्थान कहाँ है? वह तो खुदै ही पूंजी,बाजार,मुनाफे की अर्थव्यवस्था की महानता और इंन्सान की वास्तविक कीमत का विज्ञापन बनी हुई है।

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  8. आप की बात से सहमत हूँ, ख़ास तौर पे “हिन्दू मानस की कमजोरी को ठेंगा” दिखाने की बात से. हम में से ही बहुत से लोग न जाने किन बातों का हवाला दे कर ऐसी हरकतों को बर्दाश्त करते हैं …… और हाँ, ग़रीबों की पीठ नहीं आयेंगे, पता नहीं ………. कम से कम photography exhibitions में तो धड़ल्ले से, और बड़े फख्र से, ग़रीबों को, और उन की ग़रीबी को (इस में उन की पीठ भी शामिल है) art के नाम पर प्रर्दशित किया जाता है.

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  9. निश्चिंत रहिये, गरीबों की पीठ पर विज्ञापन कभी नहीं आयेंगे….मैं यूँ भी निश्चिंत हूँ इस ओर से. घोस्ट बस्टर जी ने मेरी अनाव्यक्त सोच पर हस्ताक्षर ही किये हैं. मैं उनकी भावना का सम्मान करता हूँ और समर्थन तो है ही. अमरीका/कनाडा समृद्ध देश हैं. यहाँ लड़कियाँ अपने विश्वविद्यालय के नाम खुदी पेन्टों को पहन कर गर्व महसूस करती हैं जो कि उनके हिप्स को पूरी तरह ढकें रहता है. क्या सोच आप समझते हैं इसके पीछॆ विश्वविद्यालय की कि सबकी नजर वहाँ तो जायेगी ही?? यह पैन्टस नार्मल पैन्टस से बहुत मँहगी हैं और गरीब इन्हें पहने, वो तो सवाल ही नहीं. अफोर्ड करना संभव ही नहीं. अगर क्रेज है, विज्ञापन ध्यान खींचते हैं..वो लोग मार्क करते हैं जो टीवी पर विज्ञापन देखते ही नहीं..तो उस दृश्टिकोण से तो सफल ही कहलाया. सब वही बेच रहे हैं जो बिकता है…गरीब क्या खरीदेगा..इसकी कौन चिन्ता करता है.मेरे नज़रिये से गुगल सफल का विज्ञापन सफल रहा. आप का आलेख शायद मेरी ही तरह कईयों को जगाये कुछ कहने को. आभार इस प्रस्तुति का.

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