श्रीमती रीता पाण्डेय की एक पोस्ट


कुछ दिनों पहले मैने एक पोस्ट लिखी थी – स्वार्थ लोक के नागरिक। उस पर श्री समीर लाल की टिप्पणी थी:

…याद है मुझे नैनी की भीषण रेल दुर्घटना. हमारे पड़ोसू परिवार के सज्जन भी उसी से आ रहे थे. सैकड़ों लोग मर गये मगर उनके बचने की खुशी में मोहल्ले में मिठाई बांटी गई…क्या कहें इसे स्वार्थ और उनके परिवार को समाज का नासूर??

इस पर मेरी पत्नीजी ने एक पोस्ट लिखी है। मैं उसे यथावत प्रस्तुत कर देता हूं:

 रीता विवाह  के पूर्व। अपने स्वार्थ पर मैं रोई

उस समय मेरा बेटा ट्रेन से दुर्घटना ग्रस्त हो कर जळ्गांव में नर्सिंग होम में मौत से जूझ रहा था। वह कोमा में था। तरह तरह के ट्यूब और वेण्टीलेटर के कनेक्शन उससे लगे थे। हम लोग हमेशा आशंका में रहते थे।

उसी नर्सिंग होम में तीसरे दिन एक मरणासन्न व्यक्ति भर्ती किया गया। वह बोहरा समाज का तीस वर्षीय युवक था और नर्सिंग होम के डाक्टर साहब का पारिवारिक मित्र भी। तीसरी मंजिल से वह गिर गया था और उसकी पसलियां टूट गयी थीं। शाम के समय वह भर्ती किया गया था। उसके परिवार और मित्रों का जमघट लगा था। परिवार की स्त्रियां बहुत रो रही थीं। इतनी भीड़ देख मैं हड़बड़ा कर नर्सिंग होम से रेस्ट हाउस चली गयी। रेस्ट हाउस जळगांव रेलवे स्टेशन पर था – नर्सिंग होम से ड़ेढ़ किलोमीटर दूर।

रात में मैने दुस्वप्न देखा। एक भयानक आकृति का आदमी मेरे लड़के के बेड़ के नीचे दुबका है। मैं पूरी ताकत से एक देव तुल्य व्यक्ति पर चीख रही हूं – "यही आपकी सुरक्षा व्यवस्था है? आपके रहते यह जीव अंदर कैसे आया??"

शायद मेरी चीख वास्तव में निकल गयी होगी। मेरी नींद टूट गयी थी। ज्ञान मेरे पास बैठे मेरा कंधा सहला रहे थे। बोले – "सो जाओ; परेशान होने से कुछ नहीं होगा।" 

मैं लेट गयी। पर नींद कोसों दूर थी। सुबह इधर उधर के कार्यों में अपने को व्यस्त रख रही थी। नर्सिंग होम नहीं गयी। मेरी सास मेरे साथ नर्सिंग होम जाने वाली थीं। जब बहुत देर तक मैं तैयार न हुई तो वे मुझ पर झल्ला पड़ीं। उन्होंने कुछ कहा और मेरी इन्द्रियां संज्ञा शून्य हो गयीं। मुझे लगा कि इन्हें नर्सिंग होम पंहुचा ही देना चाहिये। रेस्ट हाउस में ताला लगा कर बाहर निकले। कोई ट्रेन आ कर गयी थी। यात्रियों के बीच हम रास्ता बनाते निकल रहे थे कि परिचित आवाज आयी। देखा; दशरथ (हमारा चपरासी) दौड़ता हुआ आ रहा था। बोला – "मेम साहब अभी मत जायें; अभी नर्सिंग होम में बहुत भीड़ है।"

उस समय; हर आशंका से ग्रस्त; मेरी धड़कन जैसे रुक गयी। रक्त प्रवाह जैसे थम गया। लड़खड़ाते हुये मैं एक दुकान के बाहर बेंच पर बैठ गयी। मुझे लगा कि मेरा बेटा नहीं रहा। मेरी दशा भांप कर दशरथ जल्दी से बोला – "मेम साहब वह बोहरा जो था न…" मेरे कानों ने बोहरा शब्द को ग्रहण किया। मेरा रक्त संचार पुन: लौटा। मुझे सुकून मिला कि मेरा बेटा जिन्दा है।

अपनी सासजी का हाथ पकड़ कर मैं वापस रेस्ट हाउस में लौटी। सोचने लगी कि मेरा बेटा बच गया, हालांकि वह मरणासन्न है। पर जो गया, वह भी तो किसी का बेटा था। उसकी तो पत्नी और एक छोटा बच्चा भी था। यह कैसा स्वार्थ है?अपने स्वार्थ पर अकेले कमरे में मैं खूब रोई।

समीर भाई की टिप्पणी में नैनी दुर्घटना में बचने पर लोगों के स्वार्थ प्रदर्शन की बात है। पर मैं जब भी अपने स्वार्थ और अपनी बेबसी की याद करती हूं तो आंखें भर आती हैं। शायद यही हमारी सीमायें हैं।  


फोटो रीता पाण्डेय की तब की है जब वे सुश्री रीता दुबे थीं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

23 thoughts on “श्रीमती रीता पाण्डेय की एक पोस्ट

  1. आपकी जगह कोई भी होता तो ठीक इसी तरह सोचता! सचमुच हमारी अपनी सीमायें हैं!ये स्वार्थ से ज्यादा प्रेम है जो हमारे मन में अपने प्रियजनों के लिए है!

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  2. यही जीवन है , यही वो समाज जिसमे हम रहते है यही हम गीता सुनते सुनाते है, यही हम परायो का गम पराया जानकर अपनो के सुख दुख मे डुबते रहते है , जो ऐसा नही करते समाज उन्हे बावला पागल बालक बुद्धी के नाम से नवाजता है , उस्की हसी उडाता हू वो समाज मे बैठने काबिल नही माना जाता ,

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  3. मानव स्वभाव है, कुछ नहीं किया जा सकता है। स्वार्थ, आत्मकेंद्रित होना नेचुरल होता है। करुणा, पर हितकारी वृत्तियां विकसित करनी पड़ती हैं। गुजरात में कुछ साल पहले विकट भूकंप आया था, तब अहमदाबाद से एक खबर आयी थी। खबर यह थी कि मातम के बहुत दृश्यों में एक बारात धूमधाम से निकल रही थी। लोगों ने नाराज होकर दूल्हे की और बारातियों की पिटाई कर दी थी। दूल्हे का पक्ष भी खबर में छपा था, रोते हुए उसने बताया था कि शादी तो वह पूरी लाइफ में सिर्फ एक ही बार कर रहा है। वह भी कायदे से ना करे, तो कैसे काम चलेगा। औरों के लिए व्यक्तिगत हितों की बलि कितनी दी जा सकती है। बचपन में मिशनरी स्कूल में एक प्रार्थना होती थी, जिसका अंत कुछ यूं होता था कि हे यीशु, हमें परीक्षा में ना डाल। परीक्षा शायद ऐसे ही कुछ मौकों पर होती होगी, जब व्यक्तिगत स्वार्थ का टकराव सामूहिक हितों से होता होगा। भगवान करे, ऐसी विकट परीक्षा में किसी को ना डाले। इस परीक्षा में पास होना या फेल होना, दोनो ही यंत्रणाकारी है।

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  4. यह तो सामान्‍य मनुष्‍य स्‍वभाव है । संकट से निकलने के बाद ही हमें अपनी चूक अनुभव होती है । यह भी छोटी बात नहीं है । यही तो आत्‍मा है । संकट के समय संयत रह पाना असाधारण लोगों के लिए ही सम्‍भव हो पाता है । हम सब सामान्‍य हैं ।ईश्‍वर की क्रपा है कि अब सब ठीक ठाक है ।

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  5. स्वार्थ नामकी जो भावना है उसका स्वभाव ही नही वरन नियति भी है कि वो हमेशा स्वयं से शुरू होता है, इसमें अफसोस करने जैसा कुछ नही है। जहाँ ये स्वयं से शुरु नही होता वहाँ शायद नर नही बल्कि नारायण निवास करते हों ऐसा मेरा मानना है।

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  6. ज्ञान जी, आप के पुत्र के बारे में इतनी जानकारी न थी। आज इस आलेख से ही पता लगा। इसे संयोग, दुर्योग, देवयोग कुछ भी कहा जा सकता है। पर जो भी कर्तव्य और सुख-दुख नियति हमें प्रदान करती है, हमें जीवन को उस के अनुकूल ढालना होता है। यदि हम सभी प्राणियों के बारे में एक जैसा महसूस करने लगें तो फिर हम मनुष्य से ऊपर उठ जाएंगे। जिस बेटे को माँ ने नौ माह गर्भ में अपने रक्त से सींचा हो उस के बारे में और किसी भी अन्य के बारे में भावनाएँ भिन्न हों तो उस में कैसा स्वार्थ है? यह तो स्वाभाविक है। इस में ग्लानि का कोई कारण ही नहीं।

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  7. ऐसा व्यवहार सहज ही है ,हाँ मिठाई बांटने वाला मामला जरूर असामान्य था अब बेटा कैसा है ? क्या कर रहे हैं ?

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  8. सच ही है, मानव मन की भी नैसर्गिक सीमायें हैं और उनकी परिक्षा संकट की ऐसी ही घड़ियों में होती हैं – जाके कभी न पडी बिवाई सो का जाने पीर पराई. हम इनसे ऊपर उठने की कोशिश करते रहते हैं और हम में से कई सफल भी होते हैं, वही दूसरों के लिए जान देने का जज्बा रखते हैं: कोई हर रोज़ मरता हैशहादत कोई पाता है.

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