भारत के संविधान या भारत के नक्शे में हम भारत ढूंढते हैं। सन १९४६-५० का कॉन्सेप्ट है वह। नक्शा बना सिरिल रेडक्लिफ के बाउण्ड्री कमीशन की कलम घसेटी से। संविधान बना संविधान सभा के माध्यम से। उसमें विद्वान लोग थे। पर आदि काल से संगम के तट पर विद्वतजन इकठ्ठा होते थे कुम्भ-अर्ध कुम्भ पर और उस समय के विराट सांस्कृतिक – धार्मिक वृहत्तर भारत के लिये अपनी सर्वानुमति से गाइडलाइन्स तय किया करते थे। वह सिस्टम शायद डिसयूज में आ गया है?!
जब मेरे मन में छवि बनती है तो उस वृहत्तर सांस्कृतिक – धार्मिक सभ्यता की बनती है जो बर्मा से अफगानिस्तान तक था। और जिसका अस्तित्व बड़े से बड़े तूफान न मिटा पाये।
लिहाजा जब सतीश पंचम जी के हाथ कांपते हैं, राष्ट्रीयता के लिये “भारत” भरने विषय पर; तब मुझे यह वृहत्तर भारत याद आता है। मुझे लगता है कि मेरे जीवन में यह एक पोलिटिकल एण्टिटी तो नहीं बन पायेगा। पर इसे कमजोर करने के लिये जो ताकतें काम कर रही हैं – वे जरूर कमजोर पड़ेंगी।
मुझे भारत के प्राचीन गणतन्त्र (?) होने पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। मुझे यह भी नहीं लगता कि वैशाली प्राचीनतम गणतन्त्र था। वह सम्भवत: छोटे राजाओं और सामन्तों का गठजोड़ था मगध की बड़ी ताकत के खिलाफ। लिहाजा मुझे अपरिपक्व लोगों की डेमोक्रेसी से बहुत उम्मीद नहीं है। बेहतर शिक्षा और बेहतर आर्थिक विकास से लोग एम्पावर्ड हो जायें तो बहुत सुन्दर। अन्यथा भरोसा भारत की इनहेरेण्ट स्ट्रेन्थ – धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि पर ज्यादा है।
क्या आपको लगता है कि यूं आसानी से भारत फिस्स हो जायेगा?

मुश्किल सवाल से आँखे चुराने को मन कर रहा है. एक शक्तिशाली भारत का सपना है, मगर जमीनी वास्तवीकता कुछ और ही है. जिस घर को दीमक लग जाए वह कब तक खड़ा रह सकता है? भारत सिमटता जा रहा है.
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भारत आज यदि कहीं है तो विदेशों में बसे सफलतम भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों, डॉक्टरों, व्यसायियों में है। वह अन्य अनेकों देशों में तो है किन्तु यदि कहीं नहीं है तो सिर्फ भारत में।यदि भारत के आसानी के साथ फिस्स हो जाने की जरा भी संभावना है तो अब समय आ गया है कि हम सब मिल कर उस संभावना को नष्ट कर दें और अपने भारत को वापस भारत में ले आयें।
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आप के इस लेख के सन्दर्भ में मैं विष्णु बैरागी जी की बात से सहमत हूँ–कि ‘हम परम्परावादी समाज हैं और निरक्षर भले ही हों, नासमझ नहीं । ‘और आप की इस बात से -कि – ‘बेहतर शिक्षा और बेहतर आर्थिक विकास से लोग एम्पावर्ड हो जायें तो—‘मुझे तथा और भी भारत के बाहर रह रहे लोगों को भारत का भविष्य बहुत ही उज्जवल दिखयी देता है.भारत का पुनर्जनम तो हो चुका है…२१विन सदी के आरंभ से ही.
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अच्छा और उपयोगी लेख !
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“जब मेरे मन में छवि बनती है तो उस वृहत्तर सांस्कृतिक – धार्मिक सभ्यता की बनती है जो बर्मा से अफगानिस्तान तक था। और जिसका अस्तित्व बड़े से बड़े तूफान न मिटा पाये।”और मुझे तो पूरा यकीन है की हम अब और नही बटेंगे ! हालांकी सबकी पीडा है , की हम “बर्मा से अफगानिस्तान” नही रहे ! आज जो हालत दिख रहे हैं वो चिंताजनक अवश्य हैं पर उनके इरादे अब सफल नही होंगे ! और मुझे तो लगता है की ये प्रजातान्त्रिक तरीके से सत्ता हथियाने का स्टंट मात्र है ! जब पंजाब और बंगाल को काबू किया जा सकता है तो ये कौन से खेत की मूली हैं ?
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@भारत की इनहेरेण्ट स्ट्रेन्थ – धर्म, सद्गुणोंका सम्मान, त्यागी जनों के प्रति अगाध श्रद्धा, जिज्ञासा का आदर आदि…गुरुदेव, यह जो भारत की अन्तस्थ (आन्तरिक)शक्ति है वह राजसत्ता से निरपेक्ष रही है। भारतीय समाज का संचालन इन्हीं सनातन मूल्यों ने किया है जिनका प्रसार `वर्मा से अफगानिस्तान तक’ रहा है।राजा-रजवाणे आये और चले गये। उनका प्रभाव ग्राम्य जीवन और संस्कृति पर कम ही पड़ा। दिल्ली का ताज चाहे जिस के सिर पर पर बँधा रहा हो आम जनमानस तो हमारी ऋषि परम्परा और सनातन धर्म से ही आलोड़ित होता था। तभी तो गोस्वामी जी ने कहा था-कोउ नृप होहिं हमें का हानी। सम्राट अकबर ने जब उन्हें अपने राज-दरबार का कवि बनाना चाहा था तो मना करते हुए उन्होंने सन्देश भेजा था-संतन को कहाँ सीकरी सो काम(फतेहपुर सीकरी)
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हम परम्परावादी समाज हैं और निरक्षर भले ही हों, नासमझ नहीं । जो भी अति करता है, मदानध होता है, उसे कूडे के ढेर पर फेंक देते हैं फिर वह इन्दिरा गांधी हो या अटल बिहारी । ‘आत्मा’ और ‘आत्मा ही परमात्मा है’ की अवधारणा हमें बेचैन किए रहती है । रोटी के मुकाबले आज भी यहां स्वाभिमान को प्राथमिकता दी जाती है । नाउम्मीद नहीं, बाउम्मीद रहना हमारा स्थायी भाव है, भले ही हम सबको कोसते रहें ।
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अव्व्ल, सतीश भाई का सम्मान क कोई ठेस न पहुँचाते हुए, हाथ कांपना ही चाहिये जब आप नागरिकता भारतीय की जगह भारत लिखें. :)दूजा, विश्वास या अंध विश्वास..भारत के फिस्स होने का सपना..जो कई राष्ट्र इन्क्लूडिंग आतंकवादी गाहे बगाहे देख लिया करते हैं..वो महज एक गालिब ख्याल अच्छा है, दिल को बहलाने के लिए. ही है और उससे उपर कुछ नहीं. क्यूँकि भारत की खासियत यह है कि प्रशासन पर डिपेन्डेन्ट नहीं है. पूरी संसद मिट जाये..वो ऐसा ही चलता रहेगा,,,,भले ही गर्त की दिशा में. सबरे सक्षम हों तो हस्तक्षेप ठीक नहीं. :)आपने ठीक ही विचार किया..महर्षि अरविन्द की यह किताब कई बार छानी है..मगर छलनी में ही तथ्य बह गये क्यूँकि आम नागरिक था अतः सतह से उट नहीं पाया. शायद बहुतों के साथ हो ऐसा..मगर कितने मानेंगे..इसीलिए भारत चलता जायेगा.
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मुझे लगता है कि अंधाधुंध बाजारीकरण और राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते सामाजिक और राष्ट्रीय पतन होना निश्चित है।
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यदि आप १९७७ को याद करें तो ध्यान आयेगा की जहाँ पढ़े लिखे प्रबुद्ध भारतीय रेलों के समय पर आने, आस-पड़ोस की झुग्गी बस्तियों के तोडे जाने, छोटे-मोटे अपराधियों के मुठभेड़ में मार दिए जाने आदि से प्रसन्न होकर आपातकाल के पक्ष में थे, भारत के अधिकाँश अशिक्षित, अल्प-शिक्षित, और युवा छात्रों (तथाकथित अपरिपक्व वर्ग) ने मिलकर नेहरू-गांधी वंश का अविश्वसनीय रूप से सफाया ही कर डाला था. भारत में विभिन्न स्थानों और विभिन्न कालों में स्वतंत्र गणराज्य होते थे और जहाँ राजवंश थे वहाँ भी जनप्रतिनिधियों के रूप में मंत्रिमंडल होता था जिसको काटकर निरंकुश होना कठिन था. कंस आदि जिन राजाओं ने ऐसा प्रयास किया भी उन्हें जन-गन ने परस्त कर अपने चुने हुए नेता को वापस सत्ता दिलाई.
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