चार भारी भरकम पूअरली डिजाइण्ड पावरप्वॉइण्ट के प्रवचन और बीच बीच में चबा चबा कर बोली गयी अंग्रेजी के लम्बे-लम्बे उद्गार। मीटिंग खिंचती चली जा रही थी। पचीस तीस लोगों से खचाखच बैठक में अगर बोरियत पसरी हो तो हम जैसे अफसर मोबाइल निकाल कर परस्पर चुहल के एसएमएस करने लगते हैं।
एक साहब ने मार्क फेबर का फेमस कोटेशन (?) ठेला –
| मार्क फेबर ने अपने मासिक इनवेस्टमेण्ट बुलैटिन में अन्तिम रिमार्क के रूप में कहा –
“फेडरल सरकार हम सब को $600 का रिबेट दे रही है। अगर वह हम वालमार्ट में खर्च करते हैं तो पैसा चीन चला जायेगा। अगर गैसोलीन पर खर्चते हैं तो अरबिस्तान। हम कम्प्यूटर खरीदने में लगायेंगे तो वह भारत के हिस्से आयेगा। सब्जी/फल खरीदें तो वह मैक्सिको चला जायेगा। एक अच्छी कार खरीदने में लगायें तो वह या तो जापान जायेगा या जर्मनी। कोई बेकार सी चीज खरीदें तो वह ताइवान के हिस्से आयेगा। पर पैसा अमेरिका में ही रहे, इसके लिये एक ही तरीका है – पैसा वैश्याओं और बीयर पर खर्च किया जाये। यही अब अमेरिका में आंतरिक रूप से उत्पादित होता है। |
उसके बाद एसएमएस की धारा बह निकली। एसएमएस बनाने में झंझट ज्यादा था, सो कुछ समय बाद उनके साथ कागज की पर्चियां आदान-प्रदान होने लगीं।
मेरे उन एसएमएस ठेलक आशुकवि मित्र ने बड़े काम की पर्चियां सरकाईं मेरे पास। एक मीटिंग में चल रही अंग्रेजी पर थी –
| अफसर बोले अंग्रेजी, लोग सुनें हरसाय। चल खुसरो घर आपने, बैरन भई सभाय। |
कुछ समय बाद देखा तो वास्तव में वे आशुकवि जी चुपके से सरक
लिये थे। पर लंच से कुछ पहले वापस आ गये थे। यह पूछने पर कि वापस कैसे आये, उन्होने अगली पर्ची सरकाई –
| प्यादा है, फर्जी बना। मंच बीच शोभाय। कल का बासी ढोकला, सॉस लगा कर खाय। ऊंची कुरसी बैठ कर, मुझको करता ट्रैक। भोजन भी मिलना यहीं, सो खुसरो केम बैक! |
मैने उनकी आशु कविता की प्रशंसा कर दी। उन्होने तड़ से अपनी ओर से मेरी प्रशंसात्मक पर्ची ठेली –
| (आप तो, अपने ब्लॉग पर) मुद्दा सीरियस उठाते हैं, कभी न गावें फाग। अप-डाउन (यानी ट्रेन चलाने का काम) को छोड़ कर, भोर लिखेंगे ब्लॉग। छुट भैयों की तुक बन्दी से, आप का कैसा मेल। आप खायें साहित्य का मेवा, हम खायेंगे भेल! |
और साहित्य प्रेम पर आशु-कवि मित्र की अन्तिम पर्ची –
| साहित्य प्रेम पर विशेष – (कवि का नाम भूल गये, शायद ओम प्रकाश आदित्य।) एक लाला जी से मेरी मित्रता हुई थी यारों। |
ये मित्र उत्तर-मध्य रेलवे के मुख्य फलाने विषयक अभियंता हैं। रोजी रोटी के फेर में इन्जीनियर न बने होते तो बड़े साहित्यकारों में होते और अब तक कोई क्लासिक रच चुके होते। आप कल्पना कर सकते हैं कि अपनी जीवन्तता पर सीनियर अफसर बनने की जंग नहीं लगने दी है उन्होंने।
रीता पाण्डेय की त्वरित टिप्पणी – लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!

वाकई मस्त है!
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हम तो समझे रहे कि मीटिंगों में आप अफसरी करते हो । अब मालूम हुआ कि क्या काम होता है ।कवियों को अफसरी मिले न मिले, अफसरो को कविता करने का मौका जरूर मिल जाता है ।बहुत ही हिम्मत से आपने मीटिंगों की हकीकत बताई । अपन तो यह हिम्मत नहीं कर पाते ।
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बहुत उत्तम लिखा है सर जी आपने वाकई मज़ा आ गया .आपके आशु कवि की यह कहावत मै अपनी यूनिवर्सिटी में चर्चित करूंगा कि – अफसर बोले अंग्रेजी, लोग सुनें हरसाय।चल खुसरो घर आपने, बैरन भई सभाय।इसी तरह कुछ न्य अलग सा लिखते रहिये .
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लाला अब ठाठ में हैं, मैं पड़ा हूं खाट में।बहुत ही सुंदर,धनयवाद
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ये आशु कविता नहीं है. ये है जिज्ञासु कविता. जैसे जिज्ञासु यायावर, वैसे ही जिज्ञासु कविता. वैसे ये कविता ठेलने से पहले अफसर जी ने डिस्क्लेमर ठेला था या नहीं? अरे, वही;कवित ‘विवेक’ एक नहिं मोरे तुम लिख दौ, गर पास हो तेरे –अनूप शुक्ल जी की टिपण्णी (ज्ञात हो कि अनूप जी ने उनकी तरफ़ से टिप्पणी करने का काम मुझे आउटसोर्स किया है. कह रहे थे कि आउटसोर्सिंग केवल अमेरिका से हो, ये ठीक नहीं है. नैनीताल से कलकत्ते भी हो सकती है…..:)
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मार्क फेबल का एसएमएस और आपके साथी अफ़सर की लिखी पंक्तियाँ पढ़ बस “वाह वाह” की कर सकते हैं, वाकई एकदम मस्त, बढ़िया, झकास!! :)
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मजेदार।बोरियत की ओर ले जाती बैठक का रोचक प्रस्तुतिकरण पढ़कर लगा किसी प्रायमरी स्कूल का रीयलटी शो देख रहा हूँ। आप जिसे जीवंतता कहते हैं वह मूलत: बचपन की बेफिकरी, बिंदासपन का ज़ज्बा ही होता है। लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!रीता जी की इस त्वरित टिप्पणी कुछ हद तक ठीक है क्योंकि अपवाद तो हर विषय पर मिल जाते हैं। सिद्धार्थ जी के कथन को थोड़ा भिन्न कर कहा जाये तो, प्रतिभा कहीं न कहीं अपना रास्ता बना ही लेती है।
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बढिया काम हो रहा है आजकल कांफ्रेंसहाल में। यदि मार्क फेवर को पता होता तो उनका यह काम भारत में सस्ते निबट जाता और भारत-यात्रा भी हो जाती। है कि नै?
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मार्क फेबर वाला तो हम तक भी पंहुचा था और दूसरा कल आपकी किसी टिपण्णी में देखा था… बाकी भी बड़े मजेदार हैं. हम ये काम ट्रेनिंग में करते हैं… मीटिंग में तो दिमाग पे जोर देना पड़ जाता है ! :-( “लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!” ये अपने आप में एक पोस्ट है.
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लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है! –is baat par mere vicharhain–pratibha kabhi shushk nahin hoti-ek baar jab aap apne field mein expert ho jaatey hain phir ek daur aata hai aap apni pratibha ko hara-bhara kar saktey hain-ya kaheeye–‘midlife’ mein yahi sab hota hai jin sey aap khud ko sakriy aur jivant rakh saktey hain ye hi pratibhayen aur mukhar ho sakti hain-sidahrth ji ne bhi sahi kaha–प्रतिभा कहीं न कहीं अपना रास्ता तलाश ही लेती है।—Aashu ji ki kavitayen bahut majedaar hain.
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