अलीगढ़ में पदस्थ श्री डी. मिंज, हमारे मण्डल यातायात प्रबन्धक महोदय ने टिर्री नामक वाहन के कुछ चित्र भेजे हैं। यह टीवीएस मॉपेड (पुराने मॉडल) का प्रयोग कर बनाया गया सवारी वाहन है। इसमें छ सवारियां बैठ सकती हैं।
श्री मिंज ने बताया है कि यह जुगाड़ू वाहन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों ने बनाया है।
बड़ी काम की चीज लगती है यह टिर्री! आप नीचे यह चित्र और फिर श्री मिंज के भेजे सभी आठ चित्रों का स्लाइड-शो देखें।
http://show.zoho.com/embed?USER=gyandutt&DOC=Tirri1&IFRAME=yes&loop=true&showrel=true
भारतीय जुगाड़ू-अभियांत्रिकी (टिर्रीन्जिनियरिंग – Tirringeering?!) को नमन! यह टिर्री कोई प्रोटोटाइप चीज नहीं, जो मात्र नुमाइशी प्रदर्शन के लिये हो। यह बड़े स्तर पर लोकल सवारियां ढोने के काम आ रही है।

जुगाडू टिर्री वाहन तो रिक्शा जैसा दिख रहा है . ….छात्रों को उनकी मेहनत के लिए धन्यवाद देता हूँ .
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पाण्डेय जी,आपकी टिर्री ने किसी ज़माने में पंजाब में चलने वाले मरुत्ता की याद दिला दी …यह एक लकडी के फट्टे पर मोटर को फिट करके बनाया जाता था ….आपकी पोस्ट बहुत ही रोचक लगी आभार !!!!!!
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टिप टिप टिर्रे !
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प्रणामबहुत अच्छा जुगाड़ वाहन है टिर्री , अक्सर देखने को मिल जाता है राजदूत या बुलेट के इंजन लगा कर तो १०-१२ सवारी सफ़र करती है .
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जुगाड़ में हम भारतीयों का कोई सानी नहीं है…जुगाड़ हमारे बिहार में भी खूब देखा है, जनरेटर से गाड़ी बनाते हैं और उसे आदमी और माल दोनों को ढोने के काम में लाया जाता है…ढांचा ऐसा होता है कि यकीन ही नहीं होता कि ये चल भी सकता है लेकिन गड्ढों से पटी सड़कों पर यह बड़े आराम से चलता है…देसी है न, एडजस्ट कर लेता है.
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ज्ञान जी, अपने आलोक पुराणिक साहब सही कह रहे हैं. अलीगढ के छात्रों ने तो केवल प्रोजेक्ट के तौर पर ही “टिर्री” को बनाया होगा. लेकिन मेरठ में यह बाकायदा धड़ल्ले से चल रही है. घंटाघर से रेलवे स्टेशन तक तो इसका एकछत्र शासन है.
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टिर्री वाहन तो जोरदार है जी…गुजरात और राजस्थान में मोटर साईकिल से भी इसी तरह का वहां बनाया जाता है जो बहुत प्रचिलित और काम का है…जानकारी बढ़ने का शुक्रिया है जी.नीरज
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एक बार बैठने का सुअवसर मिला है । जान अब गयी की तब यही लगता है
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‘टिर्रि’ शब्द शायद दक्खिनी है क्योंकि यह एक प्रचलित शब्द है हैदराबाद में जिसका अर्थ होता है ‘चक्कर लगाना’[मैं एक टिर्री लगाको आतौं]।सच तो यह है कि हमारे देश में तकनीक की कमी नहीं है, है तो मार्केटिंग और कैपिटल की कमी। छोटे छोटे मेकेनिक भी बडे कमाल के आइडिये रखते हैं पर उनके पास उसे सार्थक करने के साधन नहीं होते। टिर्री के माध्यम से आपने इसका एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है।
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लगता है,’टिर्री’ चल पडेगी और भारत के कस्बों, देहातों पर छा जाएगी।
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