नया रिक्शा और माइक्रोफिनांस


कुछ अर्से से इलाहाबाद में नये डिजाइन के रिक्शे नजर आ रहे हैं। कल रहा न गया। दफ्तर से लौटते समय वाहन रोक कर उसका चित्र लिया। रिक्शे वाले से पूछा कि कैसा है यह रिक्शा? वह बोला – “अच्छा है। साढ़े छ सौ रुपया महीना देना है अठारह महीने के लिये। उसके बाद ॠण समाप्त हो जायेगा। चलाने में अच्छा है – हवा की दिशा के विपरीत चलाने पर थोड़ा जोर ज्यादा लगता है” (अत: मेरे विचार में हवा की दिशा में चलने पर उतना जोर कम लगाना होता होगा)। वैसे मुझे इस रिक्शे की डिजाइन बेहतर एयरोडायनमिक, हल्की और ज्यादा जगह वाली लगी। पुरानी चाल के रिक्शे की बजाय मैं इस पर बैठना पसन्द करूंगा।

New Rickshaw

नये प्रकार का रिक्शा

Rickshaw Venture

रिक्शे के पीछे दी गई सूचनायें

रिक्शे के डिजाइन और उसके माइक्रोफिनांस की स्कीम से मैं बहुत प्रभावित हुआ। रिक्शे के पीछे इस स्कीम के इलाहाबाद के क्रियान्वयनकर्ता – आर्थिक अनुसंधान केन्द्र का एक फोन नम्बर था। मैने घर आते आते उसपर मोबाइल से फोन भी लगाया। एक सज्जन श्री अखिलेन्द्र जी ने मुझे जानकारी दी कि इलाहाबाद में अब तक २७७ इस तरह के रिक्शे फिनान्स हो चुके हैं। अगले महीने वे लोग नये डिजाइन की मालवाहक ट्रॉली का भी माइक्रोफिनांस प्रारम्भ करने जा रहे हैं। रिक्शे के रु. ६५०x१८माह के लोन के बाद रिक्शावाला मुक्त हो जायेगा ऋण से। उसका दो साल का दुर्घटना बीमा भी इस स्कीम में मुफ्त निहित है।

Rickshaw और यह पुरानी चाल का रिक्शा है। सवा दो लोगों की कैपेसिटी वाला। खटाल पर इसका प्रतिदिन का किराया है पच्चीस रुपया। रिक्शाचालक कभी रिक्शा मालिक बनने की सोच नहीं सकता।

अखिलेन्द्र जी ने बताया कि यह रिक्शा, रिक्शा बैंक स्कीम के तहद सेण्टर फॉर रूरल डेवलेपमेण्ट (CRD), नॉयडा/गुवाहाटी के माध्यम से आई.आई.टी. गुवाहाटी का डिजाइन किया है। आर्थिक सहयोग अमेरिकन इण्डियन फाउण्डेशन का है। लोन पंजाब नेशनल बैंक दे रहा है।

क्या साहब! हम तो अपनी मालगाड़ी के नये प्रकार के वैगन, उनकी स्पीड, उनकी लोडेबिलिटी और ट्रैक की क्षमता में ही माथा-पच्ची करते रहते हैं, और ये लोग अस्सी लाख रिक्शावालों की जिन्दगी बदलने के काम में लगे हैं। इन्हें सामान्यत: हम नोटिस भी नहीं करते।

इस माइक्रोफिनांस गतिविधि के बारे में मन में अहो भाव आ रहा है। बाकी, हम तो ब्लॉगर भर हैं, जनमानस को बताने का काम तो स्क्राइब्स को करना चाहिये। वे कर ही रहे होंगे!

(आपको इस रिक्शे का बेहतर व्यू यहां मिल सकता है। और रिक्शा बैंक पर छोटा वीडियो यहां देखें।)


अपडेट: मकोय वाला बूढ़ा आज बेल के फल और कच्ची आम की कैरी ले कर बैठा था। साथ में लाठी थी और कुछ ऊंघ सा रहा था। pavement seller   


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

38 thoughts on “नया रिक्शा और माइक्रोफिनांस

  1. यह पोस्ट दिखाती है कि कैसे रोजगार निर्मित होते है, मजदूरों की जिन्दगी बदलती है. न कि लाल झण्डे उठा कर हड़ताले करने से या बमों में पटरियाँ या स्कूल उड़ा देने से….

    Like

  2. रिक्शा तो वाकई खूबसूरत भी है. अब देखते जाइए. लोगों की इनोवेटिव एडिशन्स. आभार.

    Like

  3. १९९२ के आसपास आई आई ती कानपुर में रिक्शों के ऊपर एक महत्वपूर्ण कार्य किया गया था लेकिन लगता है वह फील्ड में प्रायोगिक नहीं हो पाया । विशेष प्रकार के ब्रेक को विकसित करके, ब्रेक लगाते समय रिक्शे की सारी गतिज ऊर्जा स्प्रिंगों में एकत्र हो जाती थी और जब भी पुनः रिक्शा चलाना होता था वही ऊर्जा काम आती थी और रिक्शेवाले को कम मेहनत पड़ती थी । परीक्षण सफल थे पर कारण मुझे ज्ञात नहीं है कि वह मॉडल सड़्कों पर क्यों नहीं दिखायी पड़ता है । हमारी सारी वैज्ञानिक प्रगति हाई एन्ड उपयोगकर्ताओं के इर्द गिर्द केन्द्रित है और रिक्शेवालों के लिये कोई कम्पोसिट मैटेरिअल विकसित करने के लिये नहीं सोचता । मेट्रो युग में जाने के पहले रिक्शेवालों के हितार्थ कुछ कार्य आवश्यक हैं ।रिक्शा एक प्रदूषण मुक्त, फ्लेक्सिबिल, सस्ता और अर्थव्यवस्था का आधारभूत साधन है । धीमी गति से चलते खुले रिक्शे मे बैठकर मुझे हमेशा जमीन से जुड़े राजकुमार जैसे विचार मन में आते हैं । सफर के दौरान रिक्शेवाले की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे मे उससे चर्चा भी हो जाती है ।

    Like

  4. बहुत अच्छी जानकारी दी. २५ रुपये रोज से करीब ७५०/७७५ रुपया महिना देने की बजाये उससे भी कम किश्तों मे ये रिक्शा उपलब्ध करवाने वालों को धन्यवाद.और मकोय वाला बाबा शायद सिजनल फ़लों का ही व्यापार करता है. आजकल बेल फ़ल और कैरी की बहार चल रही है. आप अबकि बार बाबा से पूछियेगा कि वो खरीद कर लाते हैं या कहीं से जुगाड करके?रामराम.

    Like

  5. आपके लेखन का विषय इतना व्‍यापक और विविधतापूर्ण होता है कि हम नयी पोस्‍ट पढ़ने आते और और पुरानी पोस्‍टों को उलटने-पुलटने लग जाते हैं। कभी रिक्‍शा, कभी इनारा, कभी मकोय, कभी कोई श्‍ाख्सियत, कभी कोई ग्रन्‍थ – यह विविधता पाठकों का जायका बदलते रहती है। जिन छोटी-छोटी चीजों को लोग नजरअंदाज कर देते हैं, वे आपके लेखन में ढलकर आपके ब्‍लॉग में चार चांद लगा देती हैं।

    Like

  6. यह रिक्शा बनारस में पिछले वर्ष से ही सरपट दौड़ रहा है -चढ़ने का सौभाग्य मिल ही नहीं पा रहा -दीखते ही मुझे भी लालच होती है मगर इलाहाबाद के पुराने रिक्शे पर बकौल सिद्धार्थ जी के सामीप्य सुख के ही दौरान शिवकुटी जाने के दौरान तेज ढलान पर से हम दोनों जने ऐसे ढन्गलाये और गिरे कि तभी से रिक्शे की और रुख करने की हिम्म्तै नहीं होती -कुछ कल्पनाशील लोगों के लिए एक व्याख्या जरूरी है -दोनों जने का मतलब पति पत्नी !

    Like

  7. जल्दी ही बैठेंगे इन रिक्शो पर। सुन्दर पोस्ट! आलोक पुराणिक खुश हो जायेंगे। माइक्रो फ़ाइनेंसिंग पर वे दिलोजान से फ़िदा हैं!

    Like

  8. यूनिवर्सिटी के दिनों में पुरानी स्टाइल के रिक्शों पर बैठना बड़ा ही कष्टसाध्य अनुभव होता था। दो लोग बड़ी मुश्किल से (सटकर) बैठ पाते थे। इनमें से यदि कोई भारी देहयष्टि का हुआ, या थोड़ा सामान भी रखना हुआ तो अकेले के लिए ही काफी था। अलबत्ता प्रेमी युगल इस रिक्शे पर बैठकर सैर करने में अतिरिक्त सामीप्य का सुख उठा सकते थे।:)इस नयी डिजाइन के रिक्शे में बाकी सबकुछ अच्छा लग रहा है। रिक्शा मालिक को महीने में ७५०/- रुपये देने से अच्छा है कि बैंक को ६५०/- की किश्त देकर खुद मालिक बन जाय। इस योजना के नियन्ताओं को साधुवाद।

    Like

  9. इलाहाबाद का पारम्परिक रिक्शा किसी भी अन्य शहर के रिक्शों से वैसे भी अलग है- पीछे से खुलती उसकी छतरी और उसका संतुलन। मुझे तो वह खूब रोमांटिक लगता है। पर अब जो आप दिखा रहे हैं, यह तो उससे भी ज्यादा मस्त दिख रहा है। चलाने वाले के लिए भी आरामदायक होगा तो तय है स्वीकार्य होगा ही। तस्वीर में तो सुंदर दिख रहा है। आभार।

    Like

Leave a reply to अशोक पाण्डेय Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started