पास के सिसोदिया हाउस की जमीन कब्जियाने के चक्कर में थे लोग। सो उसे बचाने को उन्होने एक संस्कृत विद्यालय खोल दिया है वहां। बारह-चौदह साल के बालक वहां धोती कुरता में रहते हैं। सवेरे सामुहिक सस्वर मन्त्र पाठ करते उनकी आवाज आती है। गंगा किनारे से सुनाई देती है।
ये भविष्य में पण्डित पुरोहित बनेंगे। कर्मकाण्ड के रूप में या तो ये समाज को रूढ़ बनायेंगे; या प्रयोगधर्मी हो कर समाज की धर्म श्रद्धा को सामाजिक क्रांति का वाहक बनायेंगे; कहा नहीं जा सकता। मन होता है एक दिन इनके बीच जा कर इनसे चर्चा करूं और भविष्य के एक पण्डित-पुरोहित से अपनी अपेक्षाओं की बात रखूं। पर मुझे मालुम है कि इनके लोग मुझे कभी आमंत्रित न करेंगे और मैं अपने से अपनी कछुआ खोल से बाहर निकल उनके पास जाऊंगा नहीं।
उस दिन गंगा तट पर चार छात्र दिख गये। स्नान के लिये आये थे। उनमें से दो जल में प्रवेश किये। हाथ में कुशा लिये। जल में उन्होने अपनी अपनी शिखायें बांधी। तट पर बचे दो छात्र एक पुस्तक में से देख कर मन्त्र पाठ करने लगे। मेरे फोटो लेने से सचेत होने के कारण आवाज बुलन्द नहीं, बुदबुदाती निकल रही थी। उनके स्नान के बाद इन दोनो के स्नान के लिये वे दोनो यही करने जा रहे थे।
अच्छा लगा उनका यह रिचुअल (कर्मकाण्ड)! आपउ देखें झलकी इस छटंकिया वीडियो में।
कर्मकाण्डों के प्रति अरुचि का भाव सहज मॉडर्न सोच है। पर यह भी है कि समाज निर्वात – वैक्युम – में नहीं रहता। आप एक प्रकार के कर्मकाण्ड यत्न कर निकाल दें जीवन से और उन्हें किन्ही अन्य से रिप्लेस न करें तो पायेंगे कि कोई अन्य कर्मकाण्ड – अनगढ़ और अधकचरा – उनका स्थान ले लेते हैं। और आप स्मार्टर बाई हाफ ही नजर आते हैं! हमें आधुनिक कर्मकाण्डों की सयास रचना करनी चाहिये!
अभी तो मीडिया, बाजार और आदमी की छुद्रता ही नये कर्मकाण्ड रच रहे हैं! आदि से अन्त तक वल्गर!

"… और आप स्मार्टर बाई हाफ ही नजर आते हैं! हमें आधुनिक कर्मकाण्डों की सयास रचना करनी चाहिये!"आधुनिक कर्मकाण्ड बनें न बनें, पर प्रचलित कर्मकाण्डों में आधुनिकता(?) तो आ ही गयी है । अब पण्डित जी कर्मकाण्डों में अनेक आधुनिक व्यावहारिक विधियाँ समाहित करते हैं । वैसे कर्मकाण्ड प्रदर्शन और पूजा विधियों की झाँकी यदि संभव हुआ तो प्रस्तुत करुँगा । अच्छा होता यह कर्मकाण्डी व्यवहार हमें जीवन-मूल्यों की सदपहचान देता !
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कर्मकांड का लाख विरोध होता रहे …धार्मिक कार्यों में ये बने रहेंगे हमेशा …बेशक चोला अलग होगा…पंडितो के कर्मकांडों से उकताकर जो भी धर्म और पंथ उपजे है …खुद भी कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं ..!!
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हमें आधुनिक कर्मकाण्डों की सयास रचना करनी चाहिये!!मन की बात कही आपने ! मनुष्य वैसे भी कर्मकांड -अनुष्ठान प्रिय होता है ! यह प्रवृत्ति बच्चों के खेल में देखी जा सकती है -वे घरौंदा बनाते हैं -चीटियों के आने जाने का रास्ता बनाते हैं -उनके खाने का इंतजाम और पानी पीने की व्यवस्था करते हैं और न जाने क्या क्या करते रहते हैं -फिर फिर नए नए घरौदें अलग अलग मकसद और डिजाइन से बनाते हैं ! यह अन्वेषणशील अनुष्ठान प्रियता ही तो है -मगर ज्यो ज्यों मनुष्य बड़ा होता जाता है मूढ़ता बढ़ती है और अनुष्ठान आयोजन में भी रूढ़ता दिखती है ! अन्वेशनात्मक वृत्ति न जाने कहाँ लोप होती जाती है ! बिलकुल सही कहा आपने -हमें आधुनिक कर्मकाण्डों की सयास रचना करनी चाहिये!और हम कहीं कहीं करते भी हैं -मिसाईल परीक्षण के पहले नारियल फोड़ते हैं ना -मैं बिलकुल नहीं बुरा मानता -यह एक सायास कर्मकांड -अनुष्ठान ही तो है ! और हाँ उन बटुकों से मैंने कई मुलाकाते की है -इश्वर ने मुझे कच्छप कवच जो नहीं दिया है ! हा हा !
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ये हमारी वैदिक संस्कृति है जिसे ये विद्यालय ही जिंदा रखे हुए हैं, ऐसा ही वैदिक विद्यालय उज्जैन में महाकाल में भी है, इतने सारे वैदिक पाठियों को एक साथ देखने का आनन्द ही कुछ और होता है।
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ई कर्म के साथ जब से …कांड का फ़्रेंडशिप हुआ है…दोनो का मतलब ..कसम से समझिये तो एक धारा 377 रिलेशन सा बन जाता है…ई चुटिया धारी सब बचवा सब ..पता नहीं का कितना करेगा..खुद अपने लिये..इस समाज और देश के लिये….
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यदि संस्कृत के माध्यम से स्वरोजगार उपलब्ध हो जाए तो संस्कृत अच्छी है आज की बेसिरपैर की पढाई से . इसलिए गंगा माता: नमः उधमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथे न ही सुप्तस्य सिंहस्य प्र्वेश्न्ति मुखे मृगा
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हमारे एक नजदीकी गांव में भी संस्कृत विद्यालय है और उस गांव के ज्यादातर छात्र संस्कृत पढ़ते है , दसवीं पास कर ये छात्र एस टी सी कर अध्यापक बन जाते है इस कारण उस गांव के लगभग हर घर में कई कई सरकारी अध्यापक है |
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"पर मुझे मालुम है कि इनके लोग मुझे कभी आमंत्रित न…"…unhein chittajagat ke hawale aur sakritya kramank dikha dijiyega !!aur ganga maa ke prati apke kiye gaye prayas bhi…आप एक प्रकार के कर्मकाण्ड यत्न कर निकाल दें जीवन से और उन्हें किन्ही अन्य से रिप्लेस न करें तो पायेंगे कि कोई अन्य कर्मकाण्ड – अनगढ़ और अधकचरा – उनका स्थान ले लेते हैं। bilkul sahi kaha udharan bhare pade hain….kabhi kabhi aisa hota hai ki kuch purane karmkaand prashikrit (aprishkrit) hoke samajik ho jaate hain…….cheenk aana, billi ka rasta kaatna kya pata usika udharan ho, shodh ka vishay hai……waise kai apripakv shodhon main ye baat sabit hui hai.chahe to bhavishy main aap ispe koi lekh thel sakte hain.
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अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये धार्मिकता जरूरी है ।
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सही दिशा में सोच रहे हैं.वैसे एक ठो डुबकी आपो लगा लेते तो चारों खड़े होकर मंत्र उचार कर देते. :)
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