जब परीक्षित को लगा कि सात दिनों में उसकी मृत्यु निश्चित है तो उन्होने वह किया जो उन्हें सर्वोत्तम लगा।
मुझे कुछ दिन पहले स्टीव जॉब (Apple Company) का एक व्याख्यान सुनने को मिला तो उनके मुख से भी वही बात सुन कर सुखद आश्चर्य हुआ। उनके शब्दों में –
Death is very likely the single best invention of Life. It is Life’s change agent. (मृत्यु जीवन का सम्भवत: सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार है। यह जीवन के परिवर्तन का वाहक है।)
और –
For the past 33 years, I have looked in the mirror every morning and asked myself: "If today were the last day of my life, would I want to do what I am about to do today?" (पिछले ३३ सालों से हर सुबह मैने शीशे में देख कर अपने आप से पूछा है – अगर आज मेरा जिन्दगी का अन्तिम दिन हो तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूं?)
इस तथ्य पर विचार करने के पश्चात यह तो निश्चित है कि आपके जीवन में परिवर्तन आयेगा, क्योंकि मृत्यु एक तथ्य है और झुठलाया नहीं जा सकता। पर क्या वह परिवर्तन आपके अन्दर उत्साह भरेगा या आपको नैराश्य में डुबो देगा ? संभावनायें दोनों हैं। जहाँ एक ओर मृत्यु के भय से जीवन जीना छोड़ा नहीं जा सकता वहीं दूसरी ओर यूँ ही व्यर्थ भी नहीं गँवाया जा सकता है। मृत्यु का चिंतन जीवन को सीमितता का आभास देता है।
वहीं दूसरी ओर भारतीय दर्शन में आत्मा का भी वर्णन है। इस पर भी ध्यान से विचार कर के देखें तो आपको असीमितता का आभास होगा। केवल इस विषय पर सोचने मात्र से वृहदता का आनन्द आने लगता है । कहीं कोई व्यवधान नहीं दिखता। मृत्यु के भय से जनित नैराश्य क्षण भर में उड़ जाता है।
इन दोनों विचारों को साथ में रखकर जहाँ हम प्रतिदिन अच्छे कार्य करने के लिये प्रस्तुत होंगे वहीं दूसरी ओर इस बात के लिये भी निश्चिन्त रहेंगे कि हमारा कोई भी परिश्रम व्यर्थ नहीं जायेगा।
मुझे सच में नहीं मालूम कि मैं पुनर्जन्म लूँगा कि नहीं पर इस मानसिकता से कार्य करते हुये जीवन के प्रति दृष्टिकोण सुखद हो जाता है।
मेरे पिलानी में एक गणित के प्रोफेसर थे – श्री विश्वनाथ कृष्णमूर्ति। उन्होने एक पुस्तक लिखी थी – The Ten Commandments of Hinduism. उनके अनुसार दस विचारों में से कोई अगर किन्ही दो पर भी विश्वास करता हो तो वह हिन्दू है। उन दस विचारों में एक, “अवतार”; पुनर्जन्म को भी पुष्ट करता है।
मजेदार बात यह है कि उस पुस्तक के आधार पर आप नास्तिक होते हुये भी हिन्दू हो सकते हैं! अथवा आप पुनर्जन्म पर अविश्वास करते हुये भी हिन्दू हो सकते हैं!
आदिशंकर मोहमुद्गर (भजगोविन्दम) में कहते हैं – "पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं। इस संसारे बहु दुस्तारे, कृपया पारे पाहि मुरारे!" वे पुनर्जन्म से मुक्ति चाहते हैं – कैवल्य/मोक्ष की प्राप्ति के रूप में। मोक्ष एक हिन्दू का अन्तिम लक्ष्य होता है। पर मुझमें अगर सत्व-रजस-तमस शेष हैं तो पुनर्जन्म बहुत सुकून देने वाला कॉन्सेप्ट होता है!~ ज्ञान दत्त पाण्डेय
स्टीव जॉब्स के स्टानफोर्ड कमेंसमेण्ट एड्रेस की बात हो रही है, तो मैं देखता हूं कि भविष्य के संदर्भ के लिये वह भाषण ही यहां एम्बेड हो जाये –
http://docs.google.com/gview?url=http://bcmfirstclassbusiness.files.wordpress.com/2008/03/steve-jobs-speech-text.pdf&embedded=true
इसी ख्याल ने हमे हमेशा कन्फ़्यूज़ किया है..कि हम ये माने कि आज हमारा आखिरी दिन है और वो करे जो हम करना चाहते है..लेकिन हमारे भीतर वाला इन्सान पागल है..उसकी सुनेगे तो कुछ नही होगा..एक साईकिल होगी और कन्धे पर एक थैला होगा :)"The Last Lecture" पढे और यू ट्यूब पर उनका वीडीयो देखे..स्टीव जाब्स से ज्यादा कमाल की हस्ती लगे ये हमे..
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में सभी की भावनाओ का सम्मान करती हू परंतु मुझे जीवन मरण जिस पर हमारा कोई वश ही नही है ,ऐसे विषयों पर विचार करना ही व्यर्थ लगता है. यदि कोई मानव अच्छा है तो वो बिना किसी भय और लोभ के अच्छा है…. पर हा शायद पुनर्जनम या मोक्ष का भय और लोभ कई कमजोर लोगों को अच्छे काम करने के लिए विवश अवश्य कर सकता है.
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Good👍
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स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में स्टीव जॉब्स द्वारा दिए गया पूरा भाषण, जिसका एक अंश यहाँ उद्धृत है, अद्भुत है। जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र उस भाषण में मिलते हैं। मैं उसे विवेकानन्द की धर्म संसद वक्तृता,मार्टिन लूथर किंग के I have a dream और नेहरू के Tryst with destiny की कोटि में रखता हूँ।जॉब्स का युवा काल में भारत भ्रमण, आध्यात्म अन्वेषण और बाद में मोह भंग सर्व विदित हैं। फिर भी उनके विचारों में भारतीय छाप कभी कभी दिख जाती है। जीवन और मृत्यु ! मैं मृत्यु के बारे में नहीं सोचता – एक विराम जिसके आगे कुछ न पता हो ! सोचें तो क्या, न सोचें तो क्या ?
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बहुत ज्यादा दर्शन और आध्यात्म के बारे मैं बात नहीं कर सकती…पर हाँ इतना जानती और मानती हूँ कि जिंदगी से ज्यादा अनिश्चित कुछ भी नहीं ! ऐसी जिंदगी जियो कि चाहे अगले ही पल मौत आ जाये मगर मरते समय दिल में सुकून रहे और कोई पछतावा न रहे!
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"मन पछितैहैं अवसर बीते…" पढा, अच्छा लगा और अधिकांशतः सहमत हूँ!
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अच्छी प्रस्तुति….बहुत बहुत बधाई…मैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।आप का स्वागत है…
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दर्पण शाह जी, मोक्ष का स्वर्ग-नर्क के साथ घाल-मेल मत करिए। मोक्ष का अर्थ ही है जीवात्मा के इस धरा धाम पर आवागमन से मुक्ति। विभिन्न योनियों में बार-बार जन्म लेने और मरने का चक्र तभी बन्द होता है जब हमने उस लायक कर्म किया हो। प्रवीण जी, भारतीय दर्शन का ‘कर्म सिद्धान्त’ पढ़ कर देखिए। इन सभी सवालों के सहज उत्तर मिल जाएंगे। यह वैज्ञानिक ‘कार्य-कारण सिद्धान्त’ से काफी मेल खाता है। दो मुख्य सूत्र हैं:१.कोई भी कर्म अपने सापेक्ष परिणाम अवश्य देता है। यानि कोई कर्म निष्फल नहीं हो सकता।२.जो कुछ भी घटित हो रहा है उसके पीछे कोई कर्म अवश्य है। यानि कुछ भी अकारण नहीं हो सकता।हमारा जीवन भी इस सिद्धान्त से परे नहीं है।
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Prernadayak post. Bhajagovindam!
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आज तो सत्संग हो गया । संतों ने कहा है कि सत्संग में बिताया गया एक क्षण भी जीवन की दिशा और दशा बदल देता है । आभार ।
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