गांव खत्म, शहर शुरू – बेंगळुरु/जैमालुरु

Hebbal Flyoverहेब्बल फ्लाईओवर, बेंगळुरू

पहली बार महानगरीय जीवन जी रहा हूँ । वह उस समय जब मैं श्री ज्ञानदत्त जी को ११ सूत्रीय सुझाव दे चुका हूँ, गाँवों की ओर प्रयाण हेतु। सुझाव बेंगलुरु में स्थानान्तरण के पहले दिया था और उस समय तक महानगरीय रहन सहन के बारे में चिन्तन मात्र किया था, अनुभव नहीं। लगभग दो माह का समय बीतने को आया है और आगे आने वाले जीवन की बयार मिल चुकी है।

घर से बाहर निकलता हूँ तो लगता है कि किसी महासमुद्र में जा रहा हूँ। ट्रैफिक सिग्नल पर वाहनों की कतार में रुका हुआ मेरा वाहन। चेहरे पर जब अधैर्य छलकने लगता है तो हमारे ड्राइवर महोदय मन के भाव पढ़कर ’एफ एम’ रेडियो चला देते हैं। ध्यान तो बट जाता है रेडियो जॉकी की लच्छेदार व लहराती स्वर लहरी से पर समय तो बिना विचलित हुये टिकटिकाये जा रहा है। लगभग २० मिनट वाहन चला और ४० मिनट रुका रहा, तय की गयी दूरी १२ किमी। पैदल चलते तो ५ किमी चल लिये होते और नीरज रोहिल्ला जी जैसे मैराथन धावक होते तो अपने वाहन को पछाड़ दिये होते। कई रास्तों पर चल कर लगता है कि पूरा महानगर पैदल हो गया है। विकास के लक्षण हैं। आइन्स्टीन को ’स्पेस और टाइम डाइलेशन’ के ऊपर यदि कुछ प्रयोग करने थे तो अपनी प्रयोगशाला यहाँ पर स्थापित करनी थी।

Traffic Jam Allahabadइलाह्बाद का ट्रैफिक जाम – हाईकोर्ट के पास। सब-वे बना है पर उसका प्रयोग न जनता करती है, न वकील। सब कुछ बेतरतीब। ट्रैफिक पुलीस वाले अकर्मण्य़। जनता यूपोरियन।

रुके हुये वाहन अपनी सेहत के अनुसार धुआँ छोड़ रहे थे। टीवी पर ऐसी स्थिति में वाहन बन्द करने के सुझाव को बचकाना मान कर लोग ट्रैफिक सिग्नल मिलते ही ’उसान बोल्ट’ की तरह भागने को तैयार हैं। उत्सर्जित कार्बन को फेफड़ों में भर कर हमें भी ’कार्बन क्रेडिट’ माँगने का अधिकार मिलना चाहिये, इस बात पर ’ग्रीन पीस’ का ध्यान नहीं गया है। कोपेनहेगन में चर्चा के लिये विषय उपयुक्त भी है और सामयिक भी।

कई ट्रैफिक सिग्नलों पर लगे हुये बिलबोर्ड्स के विज्ञापन शुल्क बहुत अधिक हैं। जहाँ पर ’जैम’ अधिक लगता है उनका शुल्क और भी अधिक है। समय का आर्थिक मूल्य है, अब अनुभव हुआ।

praveen यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक हैं।

रोमांचहीनता की पराकाष्ठा है। किसी वाहन ने पहले पहुँचने के लिये कोई भी ट्रैफिक नियम नहीं तोड़ा। कोई भी दूसरी तरफ से अपनी गाड़ी अड़ाकर नहीं खड़ा हुआ। कानपुर (यदि दुःख हो तो क्षमा कीजियेगा, मेरा भी ससुराल है) होता तो ऐसे दृश्य और तीन चार द्वन्द युद्ध देख चुका होता। यहाँ तो वाक्युद्ध भी नहीं देखने को नहीं मिला। बहुत ही अनुशासित समाज है यहाँ का। अनुशासन के कारण रोमांचहीनता की स्थिति पहली बार अनुभव की जीवन में।

कुछ समाचार पत्र इसे ’जैमालुरु’ कह कर स्थिति पर कटाक्ष कर रहे हैं। शोचनीय है।

ऐसा नहीं है के इस स्थिति से निपटने के लिये कोई प्रयास नहीं हो रहा है। महानगर पालिका ’फ्लाईओवरों’ व ’अन्डरपासों’ का जाल बना रही है। पूरे नगर को ’वन वे’ बना दिया है जिससे सामने दिखने वाले घरों में जाने के लिये पूरा नगर भ्रमण करना पड़ता है। लेकिन बेंगलुरु में ही प्रतिदिन लगभग ६००० वाहनों का रजिस्ट्रेशन इन प्रयासों को धता बता रहा है। तू डाल डाल मैं पात पात ।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

30 thoughts on “गांव खत्म, शहर शुरू – बेंगळुरु/जैमालुरु

  1. हाँ, बनारस को भी देखा है इस तरह के जाम में पैदल-वाहन की सम्पूर्ण उपस्थिति के बाद भी पैदल ! जिन्होंने रोमांच (?) अनुभव किया है इन स्थितियों का, उन्हें रोमांचहीनता तो अनुभूत होगी ही । सुन्दर प्रविष्टि ! सहज व रोचक ! आभार ।

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  2. समय का आर्थिक वैल्यू तो पहले से ही रहा है लेकिन रूके हुए समय की कीमत भी लगाई जाती है विज्ञापनों के ठहराव स्थल के रूप में। वैसे इस विज्ञापन वाले मुद्दे से याद आया कि कल एक ऑटो रिक्शा के पीछे लिखा देखा Capacity : Three idiots अब मैं इसे आमिर खान के पब्लिसिटी एजेंसी की खूबी मानूंगा कि उसने अपनी फिल्म थ्री इडियट्स को प्रमोट करने के लिये ऑटो रिक्शे में कानूनी रूप से मान्य सीटों की संख्या का इस्तेमाल किया। यानि कि समय, जगह और ठहराव….सभी को कैच करने की क्रियेटिवीटी इन Ad agencies में होती है, तभी तो वह इतने उम्दा किस्म के आईडिया लाते हैं। बढिया पोस्ट और बढिया जाम चर्चा।

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  3. जैमालुरू, जैमाबाद, जैमापुर…. सभी शहरों का यही हाल है. दक्षिण भारतीय समाज कई मायनों में अधिक सभ्य है. रोचक शैली में लिखा है प्रवीण जी ने. मजेदार.

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  4. लगता है हम सब एक लंबी अंधी सुरंग में फंसे पड़े हैं। चले जा रहे हैं। पता नहीं है कहाँ निकलेंगे। कुछ सामुहिक प्रयास ही इस सुरंग, धुएं और अलक्षित दौड़ दौड़ते रहने से मुक्त कर सकते हैं।

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  5. ट्रेफिक जाम तो हर शहर की नियति बन गए है | अब तो ट्रेफिक जाम की भी आदत भी पड़ गयी है जिस दिन हमेशा जाम मिलने वाली जगह कभी जाम नहीं मिलता तो बड़ा आश्चर्य होता है कि आज यहाँ जाम कैसे नहीं लगा ?वैसे राष्ट्रिय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में ज्यादातर जाम वाहन चालकों की गलती से ही लगता है

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  6. थू है टेक्नोलोगी की धीमी प्रगति पर की हमें ऐसे हालात में भी घर से बाहर निकलना पड़ रहा है !

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  7. स्थितियाँ विकट है. समाधान इतना आसान नहीं. अपनी कार में चलने से स्टेटस का भान है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट आदि इस्तेमाल करना शान के खिलाफ. कार पूलिंग, ए ओ वी लाईन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए स्पेशल ट्रेक, मुख्य कार्यालयों का उल्टी दिशा में होना आदि जब तक चलन में नहीं आयेंगे-समस्या का समाधान नामुमकिन सा ही है.अच्छा आलेख.

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  8. इस पोस्ट में कुछ है जो चुप रहने को कहता है – जी हाँ, प्रस्तुति की शैली से उपजा आनन्द।बाकी विमर्श के लिए तो पब्लिक आ ही रही होगी। आज सुबह अम्मा पिताजी वापस गाँव जा रहे हैं। गन्ने की फसल का निस्तारण कराना है। ..कहीं अवसाद है, ढेर सारी बातें- जाने इस पर लेख दे भी पाऊँगा या नही? अच्छा है प्रवीण जी – इतने नि:संग हो लिख पाना !

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