“थ्री इडियट्स” या “वी इडियट्स”

कल यह फिल्म देखी और ज्ञान चक्षु एक बार पुनः खुले। यह बात अलग है कि उत्साह अधिक दिनों तक टिक नहीं पाता है और संभावनायें दैनिक दुविधाओं के पीछे पीछे मुँह छिपाये फिरती हैं। पर यही क्या कम है कि ज्ञान चक्षु अभी भी खुलने को तैयार रहते हैं।

पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? … भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता।

यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक हैं।

चेतन भगत की पुस्तक “फाइव प्वाइन्ट समवन” पढ़ी थी और तीनों चरित्रों में स्वयं को उपस्थित पाया था। कभी लगा कि कुछ पढ़ लें, कभी लगा कुछ जी लें, कभी लगा कुछ बन जायें, कभी लगा कुछ दिख जायें। महाकन्फ्यूज़न की स्थिति सदैव बनी रही। हैंग ओवर अभी तक है। कन्फ्यूज़न अभी भी चौड़ा है यद्यपि संभावनायें सिकुड़ गयी हैं। जो फैन्टसीज़ पूरी नहीं कर पाये उनकी संभावनायें बच्चों में देखने लगे।

फिल्म देखकर मानसिक जख्म फिर से हरे हो गये। फिल्म सपरिवार देखी और ठहाका मारकर हँसे भी पर सोने के पहले मन भर आया। इसलिये नहीं कि चेतन भगत को उनकी मेहनत का नाम नहीं मिला और दो नये स्टोरी लेखक उनकी स्टोरी का क्रेडिट ले गये। कोई आई आई टी से पढ़े रगड़ रगड़ के, फिर आई आई एम में यौवन के दो वर्ष निकाल दे, फिर बैंक की नौकरी में पिछला पूरा पढ़ा भूलकर शेयर मार्केट के बारे में ग्राहकों को समझाये, फिर सब निरर्थक समझते हुये लेखक बन जाये और उसके बाद भी फिल्मी धनसत्ता उसे क्रेडिट न दे तो देखकर दुख भी होगा और दया भी आयेगी।

पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? क्या हमारी संरक्षणवादी नीतियाँ हमारे बच्चों के विकास में बाधक है या आर्थिक कारण हमें “सेफ ऑप्शन्स” के लिये प्रेरित करते हैं। भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता। किसकी गलती है हमारी, सिस्टम की या बालक की। या जैसा कि “पिंक फ्लायड” के “जस्ट एनादर ब्रिक इन द वॉल” द्वारा गायी स्थिति हमारी भी हो गयी है।

हमें ही सोचना है कि “थ्री इडियट्स” को प्रोत्साहन मिले या “वी इडियट्स” को।


पुन: विजिट; ज्ञानदत्त पाण्डेय की –

ओये पप्पू, इकल्ले पानी विच ना जाईं।
बड़ी अच्छी चर्चा चल रही है कि ग्रे-मैटर पर्याप्त या बहुत ज्यादा होने के बावजूद भारतीय बालक चेतक क्यूं नहीं बन पाता, टट्टू क्यों बन कर रह जाता है।

मुझे एक वाकया याद आया। मेरे मित्र जर्मनी हो कर आये थे। उन्होने बताया कि वहां एक स्वीमिंग पूल में बच्चों को तैरना सिखाया जा रहा था। सिखाने वाला नहीं आया था, या आ रहा था। सरदार जी का पुत्तर पानी में जाने को मचल रहा था, पर सरदार जी बार बार उसे कह रहे थे – ओये पप्पू, इकल्ले पानी विच ना जाईं।

एक जर्मन दम्पति भी था। उसके आदमी ने अपने झिझक रहे बच्चे को उठा कर पानी में झोंक दिया। वह आत्मविश्वास से भरा था कि बच्चा तैरना सीख लेगा, नहीं तो वह या आने वाला कोच उसे सम्भाल लेंगे।

क्या करेगा भारतीय पप्पू?!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

36 thoughts on ““थ्री इडियट्स” या “वी इडियट्स”

  1. हमारी शिक्षा प्रणाली ही इस प्रकार की है ना चाहते हुए भी अभिभावक बच्चों को विषय चुनने पर मजबूर करते हैं …गुलामी का लम्बा अरसा बीत गया मगर भीतर इसकी जड़ें गहरी हैं …कहाँ से आएगा आत्मविश्वास …!!

    Like

  2. बहुत अच्छा लिखा है लेकिन हिंदी फिल्मों का ऐसे ही है। यहां पर कोई नहीं मानता कि चोरी कीहै सब तथाकथिक प्रेरणा लेते है,जैसे मेरे पिता जी कहते है.हमारी यहां की फिल्मों में एक फिल्मर में तो हिरोइन की अम्मा आम के पेंड़ के नीचे केले बेचती थी, तो दूसरी फिल्म में केले के पेड़ के नीचे आम बेचती है। बस हो गयी कहानी अलग, कौन कहेगा की चुराई है, प्रेरणा है भाईआप लोग भी न बस शुरु हो जाते हो

    Like

  3. चलो बाकी लोगों ने शिक्षा पद्यति का पोस्टमार्टम कर दिया है, तो हम कुछ और लिख दें, ;-)अपीलिंग टू कैरेक्टर…हैप्पी एंडिंग…सिनेमा से घर वापिसी के रास्ते पर थोडा दिमाग का दही बनाना…एक ऐसा मिथक बुनना जिसमें मुख्य किरदार में आप अपने को देखें फ़िर अब तक आपके साथ जितनी भी नाइंसाफ़ी हुयी है, तिल तिल कर सामने आये…मन करे उठा के पत्थर जोर से मारो और जो हमारे साथ हुआ किसी अन्य (अपना बच्चा पढें) के साथ न होने देंगे।फ़िर अपने बच्चे पर वोही अत्याचार करें जो आपपर हुये बस लेकिन दूसरे तरीके से इस उम्मीद में कि हम पर हुये गलत को सही कर रहे हैं…लेकिन असल में केवल लेबल अलग है आपकी आत्मसन्तुष्टि के लिये…चेतन भगत इन्सपायर्ड हमारी जेनरेशन के मां बाप (हाय और हमारा तो अभी तक विवाह ही न हुआ :)) को देखना एक अलग लुत्फ़ है। बचपन और जीवन एक रेंडम प्रोसेस है, कब क्या कहाँ सही हो जाये पता नहीं, जिसे आप आज सही कर रहे हैं पता चले बच्चे के जवान होने पर उसी ने उसकी वाट लगा दी। Life is not fair. Get over it. भारत जैसे देश में शिक्षा का जो माडल आज है वो निश्चित ही सर्वोत्त्म नहीं है लेकिन इसका विकल्प क्या है? साहब हमको आजतक कला बनानी न आयी और न किसी ने सिखाया, गणित/विज्ञान में अच्छे थे तो कला के अध्यापक भी एक ही सीनरी (कक्षा ५-८ तक) पर पासिंग मार्क्स देते रहे। आपको कोई रोक तो नहीं रहा? अब आप बडे हो गये हैं, अब सीख लीजिये कला बनाना। हमने भी इस साल में कोशिश शुरू की है और झोपडी बनाना सीख लिया है। असल बात न तो Curriculum की है और न ही रोजगारपरक शिक्षा पद्यति की, बात इससे आगे की है और हमें उसकी समझ ठीक से नहीं है। इस पर सोचना जारी है, लेकिन मास हिस्टीरिया में वी ईडिय्ट्स के नाम पर झण्डा बुलन्द करने में हमें ऐतराज है। चलते चलते, साहब आपने अवकलन और समाकलन के कठिन सवालों में आधा समय बचा भी लिया तो क्या? उससे केवल फ़ायदा परीक्षा में हो सकता है, टेक होम, ओपन बुक परीक्षा हो तो उसमें भी नहीं। अब तक के अपने शोधकार्य में कभी नहीं लगा कि अगर कैलकुलस दुगनी तेजी से कर पाते तो कुछ फ़ायदा होता…बाटमलाईन है कि तुलना करने में आप जिसे गुण समझ रहे हैं, क्या सच में उसकी इतनी आवश्यकता है? है तो कहाँ? हम बताते हैं, जब १२० मिनट में १५० प्रश्न हल करने हों तो उसकी जरूरत है…लेकिन फ़िर वही वी ईडियट्स…अरे ऐसी परीक्षा ही तो क्रियेटिव सोच को कुन्द करती है…लेकिन आई डाइग्रेस…;-)

    Like

  4. गुडविल हंटिंग के अलावा डेड पोएट सोसाइटी भी याद आ रही है मुझे. आप शायदफिल्में नहीं देखते नहीं तो कुछ और नाम बताता.वैसे समय बदल रहा है. धीरे धीरे ब्रेड बटर की जरुरत पूरी हो रही है उसके साथ साथ चीजें भी बदल रही हैं. हाँ ये बात अलग है की ८०% भारत (मेरे दिमाग का आंकड़ा है पर ५% से ज्यादा एरर नहीं इसमें) अभी भी उससे दूर है ! जर्मनी वाली बात से मुझे भी एक बात याद आई. एक परिवार जिसने अक्वेरियम में एक छोटे से बच्चे को आराम से मछलियों के साथ खेलने दिया वहीँ एक भारतीय परिवार ने दूर रखना ही बेहतर समझा.

    Like

  5. आपने बजा फ़रमाते हैं कि वी ईडियट्स। जो इस फ़िल्म को लेकर फ़ालतू बातों पर बहस करते चले आए। और वो न सोचा जो शोचनीय था इस फ़िल्म में और वो ये कि लड़के बार बार चड्डी ना दिखलाते, चमत्कार की जगह बलात्कार जैसे अत्यंत घ्रणित कृत्य पर ठहाके ना लगाए जाते और नाक को दोष देने का बहाना बनाकर व्यर्थ का चुंबन दृश्य ना डाला जाता तो शायद फ़िल्म मुन्नाभाई जैसी ही हिट होती।हमारा तो यह मानना है आदरणीय सर के-क्या ज़रूरी है के, शोलों की मदद ली जाए ?जिनको जलना है वो शबनम से भी जल जाते हैं !

    Like

  6. सेफ जोन में पले बढे हैं और बच्चों को भी सेफ जोन में ही रखना पसन्द करते हैं। बच्चों को कोई रिस्क या चुनौती का सामना ना करने देने के कारण ही हम में आत्मविश्वास की है।प्रणाम स्वीकार करें

    Like

  7. सुधार हम मां बाप कॊ अपने अंदर करना चाहिये, बच्चा पढने मै तेज है, उस का दिमाग है उसे अपना रास्ता खुद खोजने देना चाहिये…..कब तक हम उन की को ऊंगली पकड कर बच्चा बनाये रखेगे, ओर उन कॊ जिन्दगी को खराब करते रहेगे

    Like

  8. हम सोच ही रहे थे के पांडे जी सुधर गये के फिल्म देखने लगे ….देखा तो आप है……वैसे हमने ओर हमारे मित्रो ने ग्यारहवी कक्षा में ही तय कर लिया था के डॉ बनना है ओर तेतीस में अठाईस खुशकिस्मती से डॉ है .एक पाइलट है…..एक एक्साइज में ….एक ने दोबारा मेथ्स से एड्मिशान ले कर आर्किटेक्ट की थी….बाकी दो का पता नहीं …कहाँ है ….फिल्म को ओर बेहतर बनाया जा सकता था ….हिंदी फिल्मे शिक्षा प्रणाली पर ना के बराबर बनी है …..होलीवुड में …GO0D WILL HUNTING बेमिसाल मूवी है .कभी एच बी ओ पर देखिएगा …..खैर भारतीय इन्जिय्नर .डॉ की एक लम्बी प्रतिशत देश से बहार है ……इस ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए कुछ करना पड़ेगा ….

    Like

Leave a reply to अन्तर सोहिल Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started