उत्कृष्ट का शत्रु

मैने पढ़ा था – Good is the enemy of excellent. अच्छा, उत्कृष्ट का शत्रु है।

फर्ज करो; मेरी भाषा बहुत अच्छी नहीं है, सम्प्रेषण अच्छा है (और यह सम्भव है)। सामाजिकता मुझे आती है। मैं पोस्ट लिखता हूं – ठीक ठाक। मुझे कमेण्ट मिलते हैं। मैं फूल जाता हूं। और जोश में लिखता हूं। जोश और अधिक लिखने, और टिप्पणी बटोरने में है। लिहाजा जो सामने आता है, वह होता है लेखन का उत्तरोत्तर गोबरीकरण!

एक और गोबरीकरण बिना विषय वस्तु समझे टिप्पणी ठेलन में भी होता है – प्रतिटिप्पणी की आशा में। टिप्पणियों के स्तर पर; आचार्य रामचन्द्र शुक्ल होते; तो न जाने क्या सोचते।

अच्छे से गोबरीकरण की ओर; अच्छे से उत्कृष्ट की दिशा में जाने से उलट है। हम में से कितने इस सिंड्रॉम से ग्रस्त हैं? निश्चय ही अधिकांश। यह एक महत्वपूर्ण कारण है नेट पर कूड़ा जमा होते जाने का।Excellence

उत्कृष्टता की सिनर्जी@ दूसरा तरीका हो सकता है उत्तरोतर सामान्य से उत्कृष्ट के बनने का। कुछ दिन पहले नीरज रोहिल्ला का कमेण्ट था कि हिन्दी युग्म वालों ने ऐसा किया है। मैने वह ब्लॉग/साइट नहीं परखी, पर मैं मान सकता हूं कि चिरकुटीकरण से इतर मन लगा कर कुछ लोग (और समूह) काम करें तो अच्छा बेहतर में, और, बेहतर उत्कृष्ट में तब्दील होने लगता है।

आप देखें की पहले की तुलना में इतने सुगढ़ औजार उपलब्ध हैं कि सामान्य व्यक्ति भी उत्कृष्ट रच सकता/बन सकता है। मशीनें, कम्प्यूटर आदि बहुत क्रियेटिविटी ला रहे हैं। हम अपनी च्वाइस से उत्कृष्ट बन सकते हैं।

हिन्दी ब्लागजगत में अगर किसी एक को चुनना हो तो आज वो हिन्द युग्म है। शुरूआती जरा से लफ़डों के बाद उन्होने अपने आप का सम्भाला और ऐसा संभाला कि मन खुश हो गया। अब देखिये, बिना किसी बवाल के कितना कुछ कर डाला है उन्होने।
podcast.hindyugm.com पर जितनी मेहनत की गयी है उसे देखकर अच्छे अच्छों को चक्कर आ जाये।

~ नीरज रोहिल्ला

व्यक्ति या समूह, चिठ्ठाचर्चा या उसके क्लोन, अगर ही ही फी फी की बजाय यह मान कर चलें कि हम अपनी सामुहिक च्वाइस से उत्कृष्ट बन सकते हैं, तो बड़ा भला हो!

अन्यथा हिन्दी ब्लॉगजगत की तथाकथित सामाजिकता हमें बेहतर नहीं बना रही। यह लगता है कि प्रारम्भिक और त्वरित सफलता ही विफलता की ओर धकेलती है।


@ सिनर्जी – Synchronous Enegy – बड़ा बढ़िया शब्द है अंग्रेजी में। हिन्दी में क्यों नहीं बनते ऐसे शब्द? संक्रमण ऊर्जा, सर्जा क्यों नहीं बन जाती – उसमें तो श्रृजन का भाव भी है! 


good-to-great-cover-jim-collins रीता पाण्डेय (मेरी पत्नीजी) की त्वरित टिप्पणी – तुम्हें क्या प्रॉबलम है? चुपचाप जो लिखना है लिखते क्यों नहीं। यह सब खुरपेंच क्यों लिखते हो।

कॉण्ट्रेरियन सोच – अच्छा/उत्कृष्ट/रचनात्मकता – ये सब बुकिश चीजें हैं। कॉपी बुक स्टाइल में कोई चीज नहीं होती। यह विश्व (पढ़ें आभासी जगत) एक बड़ा शिवपालगंज है। यहां सब शिलिर शिलिर होता है। सब ऐसे ही चलता है। उत्कृष्टता-फुत्कृष्टता के प्रवचन के बाद लड़का लोग नारा लगाते हैं – एक चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की! :-)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

27 thoughts on “उत्कृष्ट का शत्रु

  1. शिव भैया की टिपण्णी का जो भी मतलब है मैं उससे सहमत हूँ :)एक चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की !

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  2. "एक और गोबरीकरण बिना विषय वस्तु समझे टिप्पणी ठेलन में भी होता है – प्रतिटिप्पणी की आशा में।"यही तो मानवीय मूल्यों का सर्वोपरि अवलोकन है जो मानव को मानव से दानव बनने के लिए स्वतः प्रेरित करता है. यही वह शास्वत प्रलोभन है जिसका संशोधन करना है. जैसे पुष्प ही पुष्प की अन्तःत्वचा में उद्वेलित होता है. यही शास्वत प्रलोभन भ्रष्टाचार को जनता है और जो इससे प्रभावित है वह सा. नि. वि. का अधिशासी अभियंता है.आशा है कि मेरी इस टिपण्णी के एवज में आप मुझे टिपण्णी देते रहेंगे.जय हिंद जय बंगाल

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  3. "एक चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की!"बच्चा लोग का कर्तव्य अभी तक किसी ने निभाया नहीं था, सो हम निभाए जा रहे हैं.. :)

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  4. शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे…रीता भाभी की बात समझ सकती हूँ…कोई पत्नी नहीं चाहेगी कि उसके पति को किसी भी विवाद के कारण मानसिक अवसाद मिले…लेकिन प्राणिमात्र का कर्तब्य तो आखिर कर्तब्य होता है…कर्तब्यच्युत होकर भी तो मनुष्य शांति नहीं पा सकता,भले इस क्रम में उसे अगाध पीड़ा ही क्यों न मिले…वस्तुतः ब्लोगिंग रूपी इस अवदान का जितना सदुपयोग हो रहा है,उससे बहुत अधिक इसे लोग एक हथियार बना प्रयुक्त कर रहे हैं..भांति भांति के लोग और भांति भांति के उनके प्रयोजन…जिस राखी सावंत रूपी मानसिकता का हम मखौल उड़ाते हैं,यहाँ अधिकाँश लोग उसी मानसिकता से ग्रस्त हैं…स्वयं को छाये हुए,स्वयंभू बने हुए और सदैव चर्चित देखना चाहते हैं, भले इसके लिए जितना भी नीचे उतरना पड़े..सकारात्मक अभिव्यक्ति के लिए समर्पित कितने लोग हैं,हिंदी ब्लोगिंग में ????समस्या यह है कि लिखना दिखना तो सब चाहते हैं,पर पढने का धैर्य बहुत कम लोगों के पास है…और स्तरीय लेखन की तो एकमात्र आवश्यकता है,अधिकाधिक स्वाध्याय तथा मनन…..बिना गाडी में पेट्रोल डाले कोई उसे हांकते रहना चाहेगा ,तो कोई क्या कर सकता है…बस यही स्थिति रहेगी…अपनी पिछली लेखमाला को प्रेषित कर मैं भी बहुत दुखी हो गयी थी,कि नाहक इतने महान विभूति का अपमान कराया … बताइए,कि लेख का आरंभिक वाक्य तक पढने का धैर्य नहीं लोगों में,जिसमे कि स्पष्ट उल्लिखित है कि अमुक ने यह रचना लिखी है…बाकी पढना और मनन चिंतन की तो कौन कहे…

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  5. समय के साथ साथ सब कुछ बदलता जाएगा…शैशवकाल मे प्रोढ़ता की उम्मीद करना सही नही लगता…..वैसे समीर जी सही कह रहे हैं….

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