शहरीकरण और ब्लॉगिंग के साम्य

IndianUrbanRev हिन्दी ब्लॉगरी के बारे में "सपाट होते विश्व" (The World is Flat) से उतना साम्य नहीं मिलता, जितना शहरीकरण के अपने आस पास दिख रहे फिनॉमिना या अर्बन रिवोल्यूशन पर किताब पढ़ने से मिलता है। जेब ब्रूगमान की लिंकित पुस्तक आप पढ़ें तो जैसा विभिन्न देशों में पिछले कई दशकों में शहरीकरण के उदाहरण मिलेंगे, वैसा ही हिन्दी ब्लॉगरी में होता प्रतीत होता है।

आप अपने आस पास अर्बनाइजेशन देखें। बम्बई में मराठी मानूस का तर्क ले कर शहरी बनने की जुगत लगाते लोगों को बाहर रखने का यत्न हो रहा है। आस्ट्रेलियायी लोग भारतीयों को येन-केन-प्रकरेण दबोलना चाहते हैं। ब्लैक को गोरे इसी तरह से घेट्टो बनाने को मजबूर करते रहे हैं पिछली शती में। इस प्रक्रिया में लोकल पोलीस, म्यूनिसिपालिटी, नेता और कानून; सब रोल अदा करते हैं सबर्बिया को कोने में धकेलने में। उनको मिलती है सबसे रद्दी जमीन, शहरी सुविधाओं का अभाव, धारावी जैसी दशा। और उनमें जीवट होता है उन परिस्थितियों का भी प्रयोग कर आगे बढ़ने का। वे अर्ध-संस्कृत भाषा, हिंसा और छोटे अपराधों से परहेज नहीं करते। इसके बिना चारा नहीं।

मराठी मानूस तो एक बहाना है आने वालों को बाहर रखने का। अगर मुम्बई में आने वाले मराठी ही होते तो नारा मराठी मानूस की जगह कुछ और होता। पर नये आने वाले को किनारे धकेलने का काम और उसे करने का हथकण्डा एक सा ही होता। कीनिया, दक्षिण अफ्रीका, जिंबाब्वे, डेट्रॉइट, मेलबर्न, ग्दांस्क, मनीला, बेरूत,आयरलैण्ड, मुम्बई — सब जगह स्लम-सबर्बिया को कोहनियाने की तकनीकें एक सी हैं।

सबर्बिया (Suburbia) और साइबर्बिया (Cyburbia) में रीयल और वर्चुअल जगत का अन्तर है। अन्यथा साम्य देखे जा सकते हैं।

नया ब्लॉगर आता है। अपना स्पेस तलाशता है। पुराने जमे लोग अपने में ही मगन रहते हैं। नया सोचता है कि वह कहीं ज्यादा टैलेण्टेड है। कहीं ज्यादा ऊर्जावान। स्थापित ब्लॉगर गोबर भी लिखते हैं तो बहुत तवज्जो मिलती है। उसे नायब लिखने पर भी कोई नोटिस नहीं करता। सो नया बन्दा अपने घेट्टो तलाशता है। हिंसा (गरियाने) का भी सहारा लेता है। डोमेन हथियाता (जमीन खरीदता) है। रीजनल आइडेण्टिटी की गुहार लगाता है। चिठ्ठाचर्चा के पर्याय बनाता है। सोशल नेटवर्किंग तेज करता है। कोई कोई बेनामी गन्द भी उछालता है। घर्षण बढ़ता है। स्थापित उनकी लैम्पूनिंग करते हैं और नये ब्लॉगर स्थापितों की। बस इसी गड्डमड्ड तरीके से साइबर्बिया आबाद होता है। बढ़ता है।

सबर्ब और साइबर्ब में बहुत साम्य दीखता है मुझे। जब मैं नया ब्लॉगर था, तब मैने एक बार अनूप शुक्ल जी को कहा था कि यह चिठ्ठाचर्चा बहुत बायस्ड है। मसिजीवी ऐण्ड को. ने अधिपत्य जमा रखा है। अब देखता हूं कि लोग वही अनूप शुक्ल के बारे में कह रहे हैं। मसिजीवी के बायस्ड होने की सोच आई-गई-खत्म हो गई। अनूप शुक्ल के बायस्ड होने की बात भी आई-गई है; खत्म भी हो जायेगी। पर जैसे जैसे यह साइबर्बिया बढ़ता रहेगा, बायस्ड होने के नये नये केन्द्र-उपकेन्द्र बनते रहेंगे।

बहुत प्रकार के ब्लॉगिंग साभ्रान्त देखे हैं मैने – तकनीकी दक्ष, साहित्यकार, स्क्राइब्स तो ब्लॉगजगत पर अपना वर्चस्व जता जता कर हार गये अन्तत:! आजकल हल्के-फुल्के मनमौजियत के लेखन वाले वर्चस्व जताने का यत्न कर रहे हैं। गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन वाले अभी हिन्दी ब्लॉगजगत को शायद चिर्कुटर्बिया (चिरकुट-अर्बन smile_regular) मान कर अलग हैं। पर जब पर्याप्त विस्तार होगा तो मल्टीनेशनल्स की तरह वे भी हाथ आजमायेंगे। वे एक नया अर्बन डायमेंशन प्रदान करेंगे हिन्दी को। शायद।

मैं जानता हूं कि मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूं। साम्य तलाशना शत प्रतिशत सही नहीं होता। पर यही तरीका है किसी फिनॉमिनॉ को समझने का। नहीं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

39 thoughts on “शहरीकरण और ब्लॉगिंग के साम्य

  1. पांडे जी , करीब चार पांच साल से मै आपके बलोग को पढ़ रहा हूँ | टिप्पणी बहुत कम ही कर पाता हूँ | आपके ब्लॉग पर आने से ही नए नए शब्दों से परिचय हो पाता है |

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  2. हमारी समझ में तो ब्लाग अभिव्यक्ति का माध्यम है बस। जैसे आप होंगे वैसी ही आपकी अभिव्यक्ति होगी।चिट्ठाचर्चा के बारे में जब आप नये थे तब आपकी कुछ सोच/समझ रही होगी! बीच में भी कुछ कुछ रही होगी। अभी कुछ दिन पहले की सोच भी देखी मैंने जिससे लगा कि यह विचार किसी नवोदित ब्लॉगर के हैं!ऐसा होता है कि हम आदतन उस काम के बारे में बेहतर राय व्यक्त कर सकते हैं जो हम खुद कभी करते नहीं। ब्लॉगिंग की तमाम स्थितियां और दौर बताते समय (…..बस इसी गड्डमड्ड तरीके से साइबर्बिया आबाद होता है। बढ़ता है। ) आप एक और दौर बिसरा गये वह है …इनाम बांटता है।वस्तुत: हम लोगों ने कोलकता में बतियाते हुये यह भी सोचा था कि एक इनाम इनाम देने वालों के लिये भी रखना चाहिये।

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  3. @ शिव जी की मधुयामिनी – जबरदस्त! महारथी के व्यंग्यबाणों का एकघ्नी से उत्तर अतिरथी ही दे सकते हैं।बाकी सब लोग कह ही दिए हैं। देर से आने में बहुत फायदा रहता है।@गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन वाले अभी हिन्दी ब्लॉगजगत को शायद चिर्कुटर्बिया (चिरकुट-अर्बन ) मान कर अलग हैं।ऐसा नहीं है। आज भी गम्भीर और विषयनिष्ठ लेखन ब्लॉगरी में हो रहा है। … शायद मेरी व्यंग्य की समझ ठीक नहीं है :) ।

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  4. गुरूदेव बहुत से सवाल उमड़ रहे हैं?कभी आपसे बात कर शंका का समाधान चाहूंगा।मगर मैं एक बात बता दूं छतीसगढ की ब्लागर मीट कंही से घेटो बनाना नही था।अगर ऐसा है तो मैं अभी से कह रहा हूं कि मैं घेटो मे रहने वाला नही।

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  5. गोसाई जी के समय में ई घेट्टू-फेट्टू नहीं रहा होगा। लेकिन एगो बात ऊ कहे थेधूमउ तजई सएज करूआई । अगरू प्रसंग सुगंध बसाई । ।धुआं भी अगर के संग से सुगन्धित होकर अपने स्‍वाभाविक कडु़वेपन को छोड़ देता है ।इसी लिये हम …. छोड़िए।

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  6. ठहरे हुए पानी में एक कंकर कितनी लहरें पैदा कर सकता है कोई यहाँ आ के गिन सकता है. लहर-लहर में करेंट है!..वाह!

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