बच्चों की परीक्षायें बनाम घर घर की कहानी

मार्च का महीना सबके लिये ही व्यस्तता की पराकाष्ठा है। वर्ष भर के सारे कार्य इन स्वधन्य 31 दिनों में अपनी निष्पत्ति पा जाते हैं। रेलवे के वाणिज्यिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये अपने सहयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों का पूर्ण सहयोग मिल रहा है पर एक ऐसा कार्य है जिसमें मैं नितान्त अकेला खड़ा हूँ, वह है बच्चों की वार्षिक परीक्षायें। पढ़ाने का उत्तरदायित्व मेरा था अतः यह परीक्षायें भी मुझे ही पास करनी थीं।

परीक्षाओं का अपना अलग मनोविज्ञान है पर जो भी हो, बच्चों का न इसमें मन लगता है और न ही उनके लिये यह ज्ञानार्जन की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। झेल इसलिये लेते हैं कि उसके बाद ग्रीष्मावकाश होगा और पुनः उस कक्षा में नहीं रगड़ना पड़ेगा|

यह प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। मुझे उनसे पूरी सहानुभूति है – उनकी जैसी इस दशा से मैं गुजर चुका हूं। प्रवीण ने अपने बच्चों के चित्र भेजे है, जिसे मैं नीचे सटा रहा हूं। आप बच्चों की शक्ल देख अन्दाज लगायें कि प्रवीण की शिक्षण चुनौतियां कितनी गम्भीर हैं! smile_regular
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रणभेरियाँ बज उठीं। आने वाले 18 दिन महाभारत से अधिक ऊष्ण और उन्मादयुक्त होने वाले थे।

द्वन्द था। मेरे लिये वर्ष भर को एक दिन में समेटने का और बच्चों का अपनी गति न बढ़ाने का। शीघ्र ही बच्चों की ओर से अघोषित असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। बच्चों से पढ़ाई करने को लेकर लुका छिपी चलने लगी।

उन्हें कभी असमय भूख लगती, कभी घंटे भर में 6 बार प्यास, कभी बाथरूम की याद, कभी पेंसिल छीलनी है, कभी रबड़ गिर/गिरा दी गयी, कभी पुस्तक नहीं मिल रही है,  बाहर कोलाहल कैसा है आदि आदि।

उन सब पर विजय पायी तो पेट दर्द, पैर दर्द, सर दर्द, नींद आ रही है, 10 मिनट लेट लेते हैं। पता नहीं ज्ञान कान से घुसकर किन किन अंगों से होता हुआ मस्तिष्क में पहुँचता है।

उन उद्वेगों को काबू किया तो घंटे भर की संशयात्मक शान्ति बनी रही। तत्पश्चात। हाँ, अब सब पढ़ लिया, अब खेलने जायें। जब शीघ्रार्जित ज्ञान के बारे पूछना प्रारम्भ किया तो मुखमण्डल पर कोई विकार नहीं। मैम ने कहा है, शायद आयेगा नहीं, पाठ्यक्रम में नहीं है। पुनः पढ़ने के लिये कहा तो पूछते हैं कि क्या आपके पिताजी भी आपको इतना पढ़ाते थे या ऐसे पढ़ाते थे? हाँ बेटा। नहीं मैं नहीं मानता, मोबाइल से बात कराइये। फिर क्या, फोन पर करुणा रस का अविरल प्रवाह, सारे नेटवर्क गीले होने लगे। फोन के दूसरी ओर से बाबा-दादी का नातीबिगाड़ू संवेदन। जब बच्चों को बहुमत उनकी ओर आता दिखा तो सरकार को गिराने की तैयारी चालू हो गयी।

माताजी आपसे अच्छा पढ़ाती हैं, अब उनसे पढ़ेंगे। अब देखिये, यह तर्क उस समय आया जिस समय श्रीमती जी भोजन तैयार कर रही थी। श्रीमती जी पढ़ाने लगें तो कहीं भोजन बनाना भी न सीखना पड़ जाये, इस भय मात्र से मेरा सारा धैर्य ढह गया। थोड़ा डाँट दिये तो आँसू। बच्चों के आँसू कोई भी बदलाव ला सकते हैं। मन के एमएनसी प्रशासक का असमय अन्त हुआ और तब अन्दर का सरकारी पिता जाग उठा। चलो ठीक है, आधा घंटा खेल आओ। घंटे भर तक कोई आहट नहीं । बुला कर पूँछा गया तो बताते हैं कि ग्राउण्ड पर कोई घड़ी नहीं लगी थी।

ऐसी स्पिन, गुगली, बांउसर, बीमर के सामने तो सचिन तेण्डुलकर दहाई का अंक न पहुँच पायें। थक हार कर मोटीवेशनल तीर चलाये, मनुहार की, गुल्लक का भार बढ़ाया, मैगी बनवायी तब कहीं जाकर बच्चों के अन्दर स्वउत्प्रेरण जागा। बिना व्यवधान के मात्र घंटे भर में वह कर डाला जो मैं पिछले 6 घंटे से करने का असफल प्रयास कर रहा था।

कैसे भी हुयी, अन्ततः धर्म की विजय हुयी।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

25 thoughts on “बच्चों की परीक्षायें बनाम घर घर की कहानी

  1. आज की बढती प्रतियोगगिता के युग में बच्‍चों को सहज वातावरण में स्‍कूली शिक्षा दिलवा पाना बहुत ध्‍ौर्य से ही संपन्‍न करवाया जा सकता है .. पर समय के साथ सब पार लग ही जाता है .. बच्‍चें की सफलता के लिए शुभकामनाएं !!

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  2. वाह, क्या लिखते है आप!! वैसे मुझे इस चीज़ का अनुभव तो नही लेकिन समझ सकता हू कि कितना मुशकिल होगा…कभी कभी सोचता हू कि एक अच्छा पिता बनना भी कितना कठिन है..बडे होने के बाद कोई पलट कर ये न कह दे कि पिता जी की वजह से ऐसा हुआ…बहुत ही प्यारे बच्चे है..convey my 'all the best' to them.. Hope they do very well in the exams…

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  3. सुन्दर आलेख. आजकल बहुत सारे घरों में पढ़ाने की जिम्मेदारी मम्मियों की हो गयी है.

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  4. हमारे सहाबजादे की परिक्षाएं सर पर है और पढ़ने को कहना बाल अत्याचार की श्रेणी में आता है. उनका कहना है कि उनमें शिक्षातर बहुत प्रतिभा है अतः पढ़ने की जरूरत नहीं. वे तारे जमीन पर है. जमाना बदल गया है दण्ड भी नहीं दे सकते. :(

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  5. बहुत खूब! हमको अपना बच्चा अब और अच्छा लगने लगा जो कहता है- अब मैं बड़ा हो गया हूं! सेल्फ़ स्टडी करूंगा।

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  6. चलो, अंत भला तो सब भला…हमारे बच्चे जब छोटे थे तो यह डिपार्टमेन्ट बीबी को सौंप हमने तो चैन की शहनाई बजाई है तो आपके प्रति मात्र संवेदनाएँ व्यक्त करने की औपचारिकता ही निभा सकते हैं. :)

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  7. ठीक बात ठीक बात यही तो मैंने भी झेला था …मैं पढ़ा भी नहीं सका ठीक से …बस शुरुआत के साथ ही मारपीट रोना धोना शुरू और बच्चों की माता का दीर्घसूत्री राग की मुझे पढाना नही आता -मैंने बच्चों के पढ़ने से खुद को अलग ही कर लिया .

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  8. हमारे यहां तो न सावन सूखे न भादों हरे. नौकरी में क्लोजिंग का कोई टंटा नहीं, रोज़ उतना ही काम और कभी कभी तो पिछले रोज़ से भी ज़्यादा. बच्चों की ख़ुदमुख़्तारी स्वीकार ली है इसलिए यहां भी सुकून है. आप चाहें तो ईर्ष्या कर सकते हैं :-)

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