मेरी पत्नीजी (रीता पाण्डेय) की प्रवीण पाण्डेय की पिछली पोस्ट पर यह टिप्पणी प्रवीण पर कम, मुझ पर कहीं गम्भीर प्रहार है। प्रवीण ने बच्चों को पढ़ाने का दायित्व स्वीकार कर और उसका सफलता पूर्वक निर्वहन कर मुझे निशाने पर ला दिया है।
समस्या यह है कि मेरे ऊपर इस टिप्पणी को टाइप कर पोस्ट करने का भी दायित्व है।
खैर, आप तो टिप्पणी पढ़ें:
प्रिय प्रवीण,
मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है। बच्चों की चुनौतीपूर्ण मुद्रा से तो और भी आशंकित हूं। तुम्हारा काम (उन्हे पढ़ाने का) वाकई में दुरुह है। यह मैं अपने अनुभव से बता रही हूं। समय के साथ यह चुनौती प्रबल होती जायेगी।
मन में एक आशंका है। ठीक न लगे तो जवाब न देना; और बुरा लगे तो ध्यान मत देना। बड़ी हूं, तो कुछ अधिकार है, और रिश्ता भी है रेलवे का।
ज्ञान ने बच्चों के चित्र के ऊपर कुछ लिखा है कि "वे भी इस दौर से गुजरे हैं" – यह पढ़ कर दिल में आग लग गई। उनसे तो बाद में निपट लूंगी, पर जो कुछ भी तुम कह रहे हो क्या वह सच है? देखो भाई फिर कह रही हूं, बुरा न मानना। मैने आजतक किसी रेलवे अफसर को – खास कर रेलवे ट्रैफिक सर्विस वाले को, अपने बच्चों को पढ़ाते हुये नहीं देखा है (तुम अगर कर रहे हो तो वह वाकई लकीर से हट कर काम है)।
वे (रेलवे ट्रैफिक सर्विस के अफसर) सिर्फ और सिर्फ गाड़ियां गिनते हैं। लदान का लेखा जोखा करते हैं और सवेरे से शाम तक कंट्रोल के कर्मचारियों का सिर खाते हैं। डिवीजन में होते हैं तो शील्ड अपने कब्जे में करने के लिये चौबीस घण्टे काम में पिले रहते हैं। व्यक्तिगत अवार्ड के लिये जब गजेट में लिखा आता है – "इन्होने अपने परिवार पर कम ध्यान देने की कीमत पर रेल परिचालन की बहुत सेवा की और कई नये रिकार्ड कायम किये — इन्हे सम्मानित किया जाता है" तो ऐसा लगता है कि किसी ने जले पर नमक छिड़क दिया हो।
आज तुम्हारे लेख ने मेरे कई घाव हरे कर दिये हैं। इसका दर्द वही महसूस कर सकता है, जिसने इसे झेला हो!
जो मेरी पत्नीजी कह रही हैं उसमें पर्याप्त सत्यांश है। नौकरी ने खून-पसीना ही नहीं, पर्याप्त स्वास्थ्य की बलि ली है। परिवार पालने के लिये परिवार की कीमत पर सरकारी काम को महत्व दिया है। यह सब इस लिये कि कोई सिल्वर स्पून के साथ पैदा नहीं हुये। — और जिन अवार्ड या शील्ड की बात कर रही हैं पत्नीजी, उनका तात्कालिक महत्व रहा होगा; अब तो उनका लेखा-जोखा ढूंढ़ने में ही बहुत मशक्कत करनी पड़े। शायद कई मैडल तो खो-बिला गये हों।
कालान्तर में जो कुछ किया और पाया है, उसका मूल्यांकन करेंगे तो जो सामने आयेगा, अप्रत्याशित ही होगा; यह मान कर चलता हूं। कोई शाश्वत सफलता नहीं होती और न ही कोई शाश्वत असफलता। बाकी, बच्चों का जो होना था, वो हो लिये!
नौकरी लग गई। तनख्वाह मिल जाती है। गुजारा चल रहा है। बस इसी में हमारी सार्थकता है। इस दुनियां को बेहतर बनाने में कोई योगदान नहीं किया – कम से कम पत्नीजी के कथन से तो यही अर्थ निकलता है। यह सौभाग्य है कि वे मुझे मेल शौवेनिस्ट पिग (Male chauvenist pig) जैसा नहीं समझतीं। अन्यथा उनकी इस टिप्पणी को सन्दर्भ दे कर; सजग महिलाओं की पूरी जमात सन्नध बैठी है; जो ऐसा कह सकती है।
अपनी खोल में सिमट जाने या वैराज्ञ की बात करूं तो पत्नीजी का सोचना होता है – जो आदमी कपड़ों में अपना तौलिया, कच्छा, बनियान नहीं निकाल सकता वह क्या खा कर वैराज्ञ¥ की बात करेगा। वह अकेले जी ही नहीं सकता। मुझ जैसे सामाजिक अनुपयोगी के लिये कौन सा खांचा है फिट होने के लिये?
बेचारे प्रवीण, जबरी लपेटे जा रहे हैं इस मुद्दे में। पर अतिथि पोस्ट लिखने का निर्णय उनका था, मेरा नहीं! ![]()
[¥ – रीता पाण्डेय की त्वरित टिप्पणी – वैराज्ञ, हुंह! पहले कोई चेला तो तलाशो, जो लकड़ी जलायेगा, लिट्टी सेंकेगा! खुद तो कुछ कर नहीं सकते!]

@ PD और अन्तर सोहिल – अच्छा, प्रवीण को जवाब देना चाहिये?! चलिये, कल प्रवीण की सोच पोस्ट करने का यत्न करता हूं। यूं ही चलता रहे तो मेरे लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। वैसे भी ट्यूब आजकल खाली है! :-)
LikeLike
प्रवीण जी जल्दी जवाब दीजिये
LikeLike
इस पोस्ट पर कितना स्माइली लगाया जाए? आज की इस टिपण्णी और प्रति टिपण्णी में मज़ा आ गया. हम भी रीता जी से पूरी तरह सहमत हैं :) मेरी भी मम्मी का ऐसा ही सोचना था…और अब मेरा भी.हमारे यहाँ कहते थे कि बैंकर बच्चे की ऊँचाई नहीं लम्बाई में बढ़ना देखता है…क्योंकि जब वो देखता है बच्चे सो रहे होते हैं. सुबह सोने के पहले ऑफिस और वापस आने तक बच्चे फिर से सो गए. :)
LikeLike
ग्याण जी हम मै हिम्मत नही आज की नारी से पंगा ले… रीता भाभी जी की जय, जो उन्होने कह दिया वोही सच
LikeLike
"व्यक्तिगत अवार्ड के लिये जब गजेट में लिखा आता है – "इन्होने अपने परिवार पर कम ध्यान देने की कीमत पर रेल परिचालन की बहुत सेवा की और कई नये रिकार्ड कायम किये — इन्हे सम्मानित किया जाता है" तो ऐसा लगता है कि किसी ने जले पर नमक छिड़क दिया हो। "यह पढ़ने के बाद वाक़ई कोई डिफ़ेंस लेते बनता ही नही है. सरेंडर सरेंडर सरेंडर :-)
LikeLike
यह पोस्ट केवल यह साबित करने के लिए लगाई गयी है कि इनके अलावा इतनी गम्भीरता से नौकरी करने वाले बहुत कम लोग मिलेंगे । और रेलवे में तो शायद इनकी टक्कर का कोई अफ़सर हो ही नहीं । प्रवीण पाण्डेय जी तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि वे अपने बच्चों को पढ़ाने में ही ध्यान देते रहते हैं । ड्यूटी तो क्या करते होंगे ।अगर हमारी सिफ़ारिश कोई मान ले तो इन्हें कल ही दो प्रमोशन दिलवा दें और एक गठरिया मेडलों की इनाम में । हुँह !
LikeLike
अब तो बस सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है जय हो भाभी जी की।
LikeLike
शुक्लजी, समीरजी व शिवजी ने जो कहा है, उसके बाद कुछ बचता भी है?
LikeLike
सतीश सक्सेना जी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है. सक्सेना साहब की टिप्पणी से लग रहा है कि ब्लागिंग में छायावाद अब अपने उफान पर है….:-) हे जयशंकर प्रसाद जी, एक बार फिर से आयें और देखें कि छायावाद अब साहित्य से उछलकर ब्लागिंग में घुस आया है….:-)
LikeLike
हा हा हा हमे तो रीता भाभी जी से पूरी सहानुभूति है जो आप जैसे पति को झेल रही हैं कम से कम अपना काम तो खुद कर लिया करें हा हा हा लेकिन यही तो विशुद्ध भारतिये पत्नि का रूप है जो होना भी चाहिये । जय हो भाभी जी की। अच्छी लगी पोस्ट। शुभकामनायें
LikeLike