हिन्दी में पुस्तक अनुवाद की सीमायें

दो पुस्तकें मैं पढ़ रहा हूं। लगभग पढ़ ली हैं। वे कुछ पोस्ट करने की खुरक पैदा कर रही हैं।

खुरक शायद पंजाबी शब्द है। जिसका समानार्थी itching या तलब होगा।

पहली पुस्तक है शिव प्रसाद मिश्र “रुद्र” काशिकेय जी की – बहती गंगा। जिसे पढ़ने की प्रेरणा राहुल सिंह जी से मिली। ठिकाना बताया बोधिसत्त्व जी ने। विलक्षण पुस्तक! इसके बारे में बाद में कहूंगा। आगे किसी पोस्ट में।

Rozabal दूसरी पुस्तक है अश्विन सांघी की “द रोज़ाबल लाइन”। जबरदस्त थ्रिलर। यह पुस्तक शिवकुमार मिश्र ने मुझे दी। मैं सबके सामने शिव को धन्यवाद देता हूं!

इस्लाम और क्रिश्चियानिटी की विध्वंसक मिली भगत; कर्म-फल सिद्धान्त; पुनर्जन्म की अवधारणा, बाइबल के चरित्रों के हिन्दू साम्य इत्यादि ऐसे खम्भे हैं, जिनसे एक इतना स्तरीय उपन्यास बुना जा सकता है – यह देख अश्विन की कलम का लोहा मानना पड़ता है। कितनी डीटेल्स भरी हैं इस उपन्यास में! तथ्य कहां खत्म हुये और कल्पना का इन्द्रधनुष कहां तना – वह सीमा तय करने में आम पाठक बहुधा गच्चा खा जाये।

मैं अर्थर हेली का प्रशंसक रहा हूं। तब के जमाने से कोई इस तरह की पुस्तक पढ़ता हूं, तो यह सोचने लगता हूं कि इसका हिन्दी अनुवाद किया जायेगा तो कैसे? और हमेशा मुझे अपने जमाने की हिन्दी में एक्सप्रेशन की तंगी नजर आती है! इस पुस्तक के बारे में भी मैने सोचा। हिन्दी अनुवाद? मेरी अपनी शंकायें हैं।

एक अद्वितीय कैल्क्युलस की किताब या मेरी सुग्राह्य अभियांत्रिकी की पुस्तकें अभी भी हिन्दी में नहीं बन सकतीं। एक खांची अप्रचलित अनुवाद के शब्द उंड़ेलने होंगे। और उनके प्रयोग से जो दुरुह पुस्तक बनेगी, उसे पढ़ने वाला विरला ही होगा।

हिन्दी में टेरर/इण्ट्रीग/थ्रिलर/जासूसी (terror/intrigue/thriller/espionage) डीटेल्स के बारे में लेखन लुगदी साहित्य से ऊपर नहीं ऊठा हैं। किसी में कोई शोध नजर नहीं आता। भावनाओं – विचारों का वर्णन तो ठीकठाक/अप्रतिम/अभूतपूर्व है हिन्दी में, पर इन (टेरर/इण्ट्रीग/थ्रिलर/जासूसी) विधाओं का तकनीकी विस्तार तो कुंद पड़ा है। “द रोज़ाबल लाइन” में जुगराफिये और इतिहास के साथ तकनीकी तत्वों का जो कलियनृत्य है, वह झौव्वा भर अटपटे शब्द मांगेगा अनुवाद में। साथ ही हिन्दी पाठक को झट से बोर कर देने के विषतत्व इंजेक्ट करने की सम्भावना युक्त होगा।

इस पुस्तक की अगर हिन्दी में रीडेबिलिटी बनाये रखनी है तो इसके कई अंशों का हिन्दी में पुनर्लेखन करना होगा। बहुत सी डीटेल्स निकालनी होंगी और कई स्थानों पर हिन्दी पाठक के सुभीते के लिये विस्तार भी करना होगा। तब भी, हिन्दी में वह बोझिल किताब नहीं, रोंगटे खड़ा करने वाला थ्रिलर बनेगा, इसकी गारंटी पर दाव नही लगाऊंगा मैं!

अनुवाद के लिये जो करना होगा, “चुनौती भरा” उसके लिये हल्का शब्द लगता है।

(और अगर यह किताब किसी शूरवीर ने हिन्दी में अनुदित भी की तो इस्लाम-ईसाइयत की सांठगांठ, ईसा का कश्मीर में जीवन, “इल्युमिनाती” का शैतानिक/क्रूर रूप आदि को ले कर हिन्दी में पांय-पांय खूब होगी! यहां पांय पांय थोड़ी ज्यादा ही होती है!)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

39 thoughts on “हिन्दी में पुस्तक अनुवाद की सीमायें

  1. आपने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है , दरअसल हर भाषा की अभिव्यक्ति की पहुँच अलग अलग होती है , इसे समृद्ध करते हैं साहित्यकार । सहज , सरल बहाव , मूक परिस्थितियों को जुबान , संवेदनशीलता को अलफ़ाज़ …क्या हमारी हिंदी भाषा इसमें समृद्ध नहीं है ? जो जिस भाषा का प्रयोग ज्यादा करता है वो उसी में ज्यादा आराम दायक महसूस करता है , उसी भाषा में प्रस्तुति भी बेहतरीन होगी । हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद में भी रचना को वो अभिव्यक्ति नहीं मिलती , जितनी उसके मूल स्वरूप में होती है । तो ये स्वाभाविक सा है , पठनीयता की चुनौती तो हमेशा से सामने होती ही है । काय काय को झमेला खड़ा होना या विवाद में पड़ना जैसे शब्द दिए जा सकते हैं , कहाँ सीमित है हिन्दी का शब्दकोष , ये अलग बात है कि दुनिया ग्लोबलाईज होती जा रही है और बहुत सारी भाषाओँ का ज्ञान होने से हम भी मिली जुली भाषा में संवाद कर लेते हैं तो हिन्दी दिवस पर जय हिन्दी ….

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  2. अनुवाद के लिये दोनों भाषाओं के ऊपर सहृदयता से विचार कर ही कोई करना चाहिये। अंग्रेजी के शब्दों और वाक्यों को हिन्दी के अझेल शब्दों में डुबों देने की प्रक्रिया कई अनुवादों के माध्यम से झेल चुका हूँ। हिन्दी पढ़ने वालों को निर्दयता से उनका अज्ञान बताया गया है। पता नहीं सम्प्रेषण को कहाँ गिरवी रख कर आये थे।इस पुस्तक का अनुवाद हो, बिना कुछ काटे छाँटे। सबको पूरी पुस्तक पढ़ने का अधिकार है। जो विचार कठिन हो, उन्हे सरल ढंग से बताने के लिये पुस्तक का आकार बढ़ा देना भी स्वीकार्य है।हिन्दी अपने में इतनी समर्थ है कि किसी भी जटिल विचार का संप्रेषण कर सकती है अगर पहेली बुझाने वाला खेल न खेला जाये।

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  3. कोई भी रचना जिस परिवेश में लिखी होती है, अनुवादक को उसका या तो अनुभव हो और मूल भाषा में भी वह सहज हो तो अनुवाद सही हो सकता है.

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  4. मंजुल प्रकाशन हाउस भोपाल वाले अंग्रेजी पुस्‍तकों का बहुत अच्‍छा अनुवाद कर रहे हैं…कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह अनुवादित पुस्‍तक मूल हिंदी में ही लिखी गई है…डेल कारनेगी की एक पुस्‍तक लोकव्‍यवहार नाम से हिंदी में 'हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इन्‍फ्लुएंस पीपुल' मेरे पास है, वाकई लाजवाब अनुवाद..

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  5. शब्दानुवाद और भावानुवाद अलग अलग बाते हैं । भावानुवाद के लिए लेखक के काल और सोच तक डूबना जरूरी होगा जोकि असंभव तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं ।तकनीकी शब्दकोश या अनुवाद में हम पीछे इस लिए रह गए क्योंकि हमने अँग्रेजी को आत्मसात कर लिया ॰

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  6. मैं अनुवाद में विश्वास तभी रखता हूँ जब विषय सीधी साधी हो।उदाहरण: दफ़्तर की चिट्टियाँ और दस्तावेज, अखबार में छपे समाचार, नोटिस वगैरह वगैरह। कभी कभी विज्ञान, अर्थ शास्त्र, कानून सम्बंधी सामग्री का भी अनुवाद सफ़ल हो सकता है और इसके लिए कोई विशेष हुनर की आवश्यकता नहीं। कंप्यूटर और शब्दकोश का सहारा लिया जा सकता है।पर साहित्य, (खासकर कविता) के अनुवाद में मुझे विश्वास नहीं।साहित्य एक कला है। इसे मूल भाषा में ही रहने दीजिए। अनुवाद करना हो, तो इस बात से समझौता कर लीजिए कि कुछ न कुछ छूट जाएगा। शिल्पकला का उदाहरण को लीजिए।क्या पत्थर की मूर्तियों को हम मिट्टी या प्लास्टर ओफ़ पैरिस में दोबारा बना सकते है?अवश्य बना सकते हैं पर केवल आकार का, कला पीछे छूट जाती है।क्या हिन्दुस्थानी शास्त्रीय संगीत को पियानो पर पेश कर सकते है?अवश्य कर सकते हैं पर केवल आवाज को, गमक वगैरह छूट जाएंगे।हिन्दी भाषा की कमी नहीं है। अच्छे अनुवादक अच्छी अनुवाद कर सकते हैं पर सबसे श्रेष्ठ अनुवादक भी पर्फ़ेक्ट ट्रान्स्लेशन नहीं कर पाएगा यदि वह किसी साहित्यकार की रचना का अनुवाद करता है। हमारे भारतीय भाषाओं में भी साहित्य उपलब्ध है जिसका अनुवाद अंग्रेज़ी में हुआ है पर मूल लेख पढ़ने में जो मज़ा है वह अनुवाद में कहाँ।उर्दू में शायरी का उदाहरण को लीजिए।अंग्रेज़ी में अनुवाद करके पढ़ने सी हमें सिर्फ़ यह मालूम हो जाता है कि शायर क्या कह रहा है। उसकी क्ला का मज़ा हमें नहीं मिलता।एक और बात कहना चाहता हूँ।साहित्य का कल्चर से गहरा सम्बन्ध है। अनुवादक शब्द का अनुवाद तो कर लेगा, पर कल्चर का क्या होगा?मै किसी साहित्यकार की रचना का अनुवाद पढ़ता ही नहीं।अंग्रेज़ी और हिन्दी में साहित्य का पूजारी हूँ और अंग्रीजी विषय, तकनीकी विषय, अंग्रेज़ी में पढ़ना चाहता हूँ पर भारतीय संस्कृति के बारे में हिन्दी में पढ़ना पसन्द करता हूँ।शुभकामनाएंजी विश्वनाथ

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  7. अनुवाद शब्दों का नहीं भावों का होता है. अन्यथा शब्दानुवाद तो मूल रचना के साथ बलात्कार समान होता है.

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  8. 'हिन्दी में एक्सप्रेशन की तंगी नजर आती है!'हिंदी इतनी कंगाल भी नहीं है, शर्त यह है की मूल भाषा के मूल को पकडे :)

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