पता नहीं यह यहां स्वीकार या अस्वीकार करने से फर्क पड़ता है मैं झूठ भी बोलता हूं। झूठ बोलना मानव स्वभाव का बहुत स्वाभाविक अंग है। यह इससे भी सही लगता है कि सदाचार की पुस्तकों और पत्रिकाओं में बहुत कुछ बल इस बात पर होता है कि सच बोला जाये। पर मूल बात यह है कि आदमी अपने आप से कितना झूठ बोलता है।
कौन अपने आप से ज्यादा झूठ बोलता होगा – एक आम आदमी या एक हाई प्रोफाइल राजनेता? मेरे ख्याल में जो ज्यादा बोलता है, जो ज्यादा इमप्रॉम्ट्यू कम्यूनिकेट (impromptu communicate) करता है – वह ज्यादा झूठ बोलता है। और जो ज्यादा झूठ बोलता है, कमोबेश वह अपने आप से भी उतना अधिक झूठ बोलता है!
“यह तो कॉमन प्रेक्टिस है, मैने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसी को हानि हो, मैने जान बूझ कर यह नहीं किया, उस दशा में कोई भी व्यक्ति ऐसा ही करता, पहले इस तरह की अवस्था हो ही नहीं सकती थी (तकनीकी विकास न होने से इसके नॉर्म्स ही नहीं बने हैं)” – आदि कुछ तर्क आदमी सेल्फ डिफेंस में बनाता है। पर वह गहरे में जाये तो जान जाता है कि वह सब सही नहीं है।
अपने आप से झूठ बोलना हम स्वीकार करें या न करें, घोर झूठ होता है। झूठ सामान्यत: अप्रिय दशा से बचने के लिये कहा जाता है, और अवचेतन में अपने आप से अपनी ईमेज बचाने के लिये कहा जाता है। सम्भव है नरो वा कुंजरो वा वाला अपने आप से बोला गया युधिष्ठिर का झूठ इसी तरह का रहा हो। और युधिष्ठिर अपने चरित्र के एक स्तर पर उसे सच मानते रहे हों।
यह टेक्टिकल सच हम यदा कदा बोलते हैं। स्थिति से आत्म दिलासा के साथ निकल लेते हैं कि हमने अपने आप से झूठ नहीं बोला। पर वह होता झूठ ही है। वह जब हस्तामलकवत हमें घेरता है, तब घोर आत्म पीड़ा होती है। कैसे पार पाया जाय उस पीड़ा से। कैसे हो उसका प्रायश्चित?
एक तरीका तो मुझे यह लगता है कि डैमेज कंट्रोल किया जाय। जहां तक उस झूठ की मार पंहुची है, वहां तक उसे स्वीकार से समाप्त किया जाये। उसके प्रभाव से जो प्रभावित हुये हैं, उनसे क्षमा याचना की जाये।
पर उससे तो एक राजनेता की सारी इमारत ध्वस्त हो जायेगी?! नहीं?

@ Smart Indian – मासूमियत! निश्चय ही मासूमियत। और इस चक्कर में पुस्तकें खरीदने के पैसे भी बरबाद हुये! :)
LikeLike
झूठ हमारी आदत मे शुमार हो चुका है . कौन है जो अपने से,अपनो से,समाज से झूठ नही बोलता . राज नेता तो एक प्रतीक बना दिया गया है लेकिन अटकने पर कौन नही जो राजनेताओ की चौखट पर नाक रगडता हो .
LikeLike
और जहां अफसर की बात है, मेरा सोचना था कि …मासूमियत इस कदर ….;)
LikeLike
@ भारतीय नागरिक – और जहां अफसर की बात है, मेरा सोचना था कि नौकरी के बाद वे अपने और अपनी सेवा के बारे में साफगोई से काम लेते होंगे अपने संस्मरणों में। वह सही नहीं था, जब मैने पाया कि रिटायरमेण्ट के बाद लिखी पुस्तकों में अपने और विभाग के प्रति हेगियोग्राफी (hagiography) ही लिखी उन्होने! :(
LikeLike
सुन्दर प्रस्तुति. विजयदशमी की शुभकामनाएं.
LikeLike
झूठ बोल कर उसे याद रखना, प्रायश्चित से भी बड़ी बात है :-)
LikeLike
सम्बन्धों की अंतरंगता झूठ को सहन नहीं कर पाती है। झूठ दूरियाँ बढ़ाता है, आप स्वयं से झूठ बोलेगें, तो आप आप नहीं रहेंगे। नरो वा कुंजरो वा की स्थिति नित्य ही आती है, हम सबके जीवन में।
LikeLike
@ भारतीय नागरिक – अफसर, व्यापारी, वकील की सार्वजनिक क्षमा याचना की बात से शायद मीडिया उसे सूली पर न टांगे। राजनेता का तो करीयर खत्म हो सकता है! :)
LikeLike
झूठ बोलना बीमारी भी है, शौक भी, आदत भी और मजबूरी भी. लेकिन आपने सबसे बड़ी चीज अन्तिम पंक्तियों में कह दी. नेताओं के साथ, अफसर, व्यौपारी और उकील सभी आ जायेंगे इस दायरे में. नहीं ?
LikeLike
कई कथनों से गम्भीर असहमति होते हुए भी विषय की गम्भीरता की नकारा नहीं जा सकता है।
LikeLike