मुझे पर्यावरण के प्रति चिंता है। मुझे विकास के प्रति भी चिंता है। यह तय है कि तीव्र गति से विकास के लिये हमें ऊर्जा उत्पादन की दर बढ़ानी होगी। इतनी बढ़ी दर के लिये नॉन कंवेंशनल स्रोत पर्याप्त नहीं होंगे।
क्या समाधान है? हमें तेजी से अपने थर्मल संयंत्र बढ़ाने होंगे, जिससे उर्जा की जरूरतें पूरी हो सकें। उर्जा की जरूरत उपभोक्ता की भी बढ़ रही है और उद्योगों की भी। कागज, स्टील, केमिकल्स और अन्य उद्योग प्रतिवर्ष अपनी उर्जा जरूरत लगभग तीन प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ेगी। उपभोक्ता के रूप में यातायात, रिहायश और दुकानों में भी यह 2-3 प्रतिशत प्रतिवर्ष बढ़ेगी। अगर भारत की यह उर्जा की जरूरत कम करने की कोशिश की गयी तो आर्थिक विकास, उपभोक्ता की आराम और सहूलियत को बौना बनाना होगा। किसी भी तरह से यह कर पाना सम्भव नहीं होगा। जिन्न बोतल के बाहर आ चुका है!
(भारत का कोयला उत्पाद, मांग से पीछे चल रहा है – मेकेंजी क्वाटर्ली का एक ग्राफ।)
पर थर्मल संयंत्र लगाने के साथ साथ हमें वैकल्पिक उर्जा स्रोत विकसित करने होंगे। शायद सन 2025 तक हमें इस दशा में आ जाना होगा कि वैकल्पिक स्त्रोत पर्याप्त भूमिका निभा सकें।
इसके अलावा हम पुरानी तकनीक – भले ही उर्जा उत्पादन की हो या प्रयोग में आने वाले उपकरणों की हो, के भरोसे नहीं रह सकते। हमें लगभग 20-25% उर्जा उत्पादन की बेहतर उत्पादकता से बचाना होगा – या शायद उससे ज्यादा ही। साथ में अपने गैजेट्स इनर्जी इफीशियेण्ट बनाने होगे। इससे उर्जा की बचत भी होगी और कर्बन उत्सर्जन भी नियंत्रण में आयेगा।
हमारे पास समय कम है उर्जा के मुद्दे पर लीड ले कर अन्य राष्ट्रों (मुख्यत: चीन) से आगे निकलने का। हमारी वर्तमान योजनायें/प्रणाली 5-6 प्रतिशत की वृद्धि के हिसाब से इंफ्रास्ट्रक्चर बना रही हैं। नौ प्रतिशत की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के लिये और त्वरित विकास करना होगा – उर्जा और यातायात का।
थर्मल पावर हाउस पर हम नाक भौं सिकोड़ नहीं सकते!
(काजल कुमार की टिप्पणी से प्रेरित पोस्ट।)

ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस का सफ़र मुबारक। क्यूट लग रहा है अब और ज्यादा आपका ब्लॉग। :)
विकास के बारे में जब 2020, 2015, 2025 जैसे आंकड़े दिखते हैं तो अनायास यही लगता है कि ये सिर्फ़ आंकड़े ही रहने के लिये अभिशप्त हैं। शायद दस साल बाद हम 203o, 2040 की बात करने लगें।
बाकी सब चकाचक है। :)
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ब्लॉगस्पॉट से वर्डप्रेस का सफर वर्डप्रेस से ब्लॉगस्पॉट में फ्लिप-फ्लॉप में हो कर न रह जाये। कभी लगता है कि यह नौटंकी आदमी तब करता है जब थकेला-अकेला होता है! :)
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मुझे भी स्थिति खतरनाक लग रही है …बात सही है जनसंख्या को कम करना सबसे अहम् पहलु है …
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जब मैं युवा था तो मुझे भी खतरनाक लगा करती थी। पर देखा कि समय निकल ही जाता है। :)
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विकास की कीमत तो चुकानी ही पडेगी . अगर संसाधनविहीन रहे और पर्यावरण स्वच्छ रहे तो ऎसे पर्यावरण को क्या चाटेंगे
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सही – There is nothing called free lunch!
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तीन साधन हैं, पहला अधिक ऊर्जा, दूसरा अपव्यय पर रोक और तीसरा उन्नत यन्त्रों का प्रयोग। पहले में भी सब प्रकार के स्रोतों से ऊर्जा पानी होगी। बाकी दो पर भी ध्यान जाये सबका।
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हां। और उर्जा व्यय/अपव्यय के पश्चिमी स्तर को तो निश्चय ही नहीं टच करना है! :)
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मै भी सोच रहा हुं कि ब्लाग परिवार को यही ले आऊ, लेकिन यहां समझ नही आ रहा सब कुछ, वहां ब्लाग स्पोट पर आसान हे या आदत बन गई, देखते हे, आयेगे यहां भी कुछ समय तो लगेगा ना
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@ मुझे पर्यावरण के प्रति चिंता है। मुझे विकास के प्रति भी चिंता है।
मैं इस विषय को दूसरे आलोक में देखने का प्रयास कर रहा हूं।
भूमंडलीकरण के दौर में हम प्रकृति के साथ इतनी छेड़-छाड़ कर चुके हैं कि ओजोन में भी छिद्र हो गया है । पूरी व्यवस्था शहरीकरण में बदलती जा रही है और गांव गांव तक बाज़ार व्यवस्था हाबी होती जा रही है । भूमंडलीकरण की पूरी प्रक्रिया शोषण और विषमता पर टिकी है। वैश्वीकरण की होड़ में गांधीवाद को अगूंठा दिखाकर हम हर तरह के संकट को आमंत्रित कर रहे हैं । ग्राम-स्वाराजय प्राकृतिक अर्थव्यवस्था की परिकल्पना पर गढ़ी और रची गई है। गांधी जी का मानना था कि मनुष्य की उपयोगिता के लिए प्रकृति हमें हमेशा से देती रही है। हम हैं कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, शोषण कर रहे हैं । इसका गलत इस्तेमाल कर रहे हैं । बाजारवाद और बाजार की व्यवस्था ने एक अलग और नई संस्कृति को जन्म दिया है । हम अपनी हद खो रहे हैं, खो दिए हैं । प्राकृतिक रूप को, और प्रकृति का बेवजह और जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर अपना नुकसान ही कर रहे हैं।
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आप सही हैं। पर रास्ता क्या है? मैं फिर कहूंगा कि पर्यावरण की बात पर जनता को विकास से अवरुद्ध और गरीब नहीं रखा जा सकता। लोगों की अपेक्षायें पूरी करनी ही होंगी।
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वर्डप्रेस पर ब्लाग अच्छा लग रहा है।
थर्मल पावर हाउस पर हम नाक भौं सिकोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ कोटा में हम थर्मल पावर हाउस की सात इकाइयाँ लिए बैठे हैं, नजदीक ही छबड़ा और झालावाड़ में और इकाइयाँ स्थापित हो रही हैं।
लेकिन इन के लिए कोयले की कमी पड़ रही है। दो दिन पहले ही खबर थी कि कोयला नहीं पहुँचा तो इन इकाइयों को ट्रिप करना पड़ सकता है।
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कोयला गुज्जर आन्दोलन के कारण नहीं पंहुचा। कई पावर हाउस इससे प्रभावित हुये हैं। पर अब कमी पूरी हो जायेगी।
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मेरा विचार थोड़ा सा अलग है.. इस सबके साथ जनसंख्या पर भी तो रोक लगाई जाये.. अन्यथा यह सब बढ़ाते जायेंगे लेकिन इसकी तुलना में ध्वनि की दर से बढ़ती जनसंख्या सब किनारे लगा देगी..
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जनसंख्या नियंत्रण! जरूर!
मेरे ख्याल से भारत जैसे प्रजातंत्र में आर्थिक विकास सबसे कारगर जनसंख्या नियंत्रक है।
और जवान वर्कफोर्स की ताकत को कमतर कैसे आंकें?
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वर्डप्रेस पर आपका ब्लौग और निखर आया है. होमपेज पर अधिकतम पांच पोस्टें लगायेंगे तो पेज जल्दी खुलेगा.
थर्मल पॉवर हाउस यदि कोयला निर्भर है तो फिर पर्यावर्णीय भाँय-भाँय. सबसे अच्छा तो है परमाणु ऊर्जा आधारित संयंत्र लेकिन उनके पीछे भी सभी हाथ धोकर पड़ जायेंगे.
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पांच ही कर देता हू!
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सवाल तो सही है पर उपाय शायद काफी पेचीदा है.विकास के साथ पर्यावरण बनाये रखनें की चुनौती सहज नहीं है.
ज्वलंत मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करती हुई अच्छी पोस्ट,धन्यवाद.
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निश्चय ही – आसान नहीं है चुनौती। शिलिर शिलिर ब्राण्ड प्रजातंत्र के रहते और भी!
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