मुझे बताया गया कि यह बैक्टीरिया सियाचिन ग्लेशियर पर सेना के टॉयलेट्स का ठोस अपशिष्ट पदार्थ क्षरित करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। इतनी सर्दी में अपशिष्ट पदार्थ क्षरित करने में अन्य कोई जीवाणु काम नहीं करता।
अब यह बेक्टीरिया रेलवे प्रयोग कर रहा है अपने ट्रेनों के टॉयलेट्स में। ट्रायल के तौर पर बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस के 23 कोच इसके प्रयोग के लिये तैयार हैं और 17 जनवरी से चल भी रहे हैं।
आत्म-कथ्य – मैं रेलवे के लिये प्रेस विज्ञप्ति ठेलक नहीं हूं और उत्तर-मध्य रेलवे के लिये यह ब्लॉग सूचना डिसिमेनेशन (dissemination – प्रसारण) का माध्यम भी नहीं है। पर रोज के काम में जब मुझे यह बायोडाइजेस्टर टॉयलेट की जानकारी मिली, तो लगा कि यह सब के लिये रोचक और मेरे सरकारी दायित्व के सन्दर्भ में कण्टकहीन विषय है जिस पर लिख सकता हूं ब्लॉग पर।
जब से मैने रेलवे नौकरी ज्वाइन की है – और ढ़ाई दशक से ज्यादा हो गये हैं – बड़े स्टेशनों के प्लेटफार्म के पास के ट्रैक पर विष्ठा की दुर्गन्ध झेलते बहुत कोफ्त होती है। ट्रैक को साफ करना बड़ा कठिन काम है। इसे रेलवे का वाणिज्य, इंजीनियरिंग और मैडीकल विभाग हमेशा एक दूसरे पर ठेलता आया है। अत: कोई तकनीक इसे खत्म कर सके तो बड़ी राहत हो। पहले कई प्रयोग किये गये। अब यह सियाचिन ग्लैशियर से ट्रांसप्लॉण्ट की गयी डी.आर.डी.ई. (डिफेंस रिसर्च एण्ड डेवलेपमेण्ट एस्टेब्लिशमेण्ट, ग्वालियर) द्वारा विकसित तकनीक प्रयोग में लाई जा रही है।
इस तकनीक से फिट किये गये कोच में से ट्रैक पर ठोस विष्ठा नहीं अपचारित तरल पदार्थ भर गिरता है। कोई दुर्गन्ध नहीं होती और सफाई कर्मी की भी जरूरत नहीं होती। मुझे इसके प्रयोग के बारे में मेरे मित्र श्री अशोक मिश्र ने बताया जो उत्तर-मध्य रेलवे के कोच और वैगनों के मुख्य अभियंता (Chief Rolling Stock Engineer) हैं।
मैने नेट पर “बायोडाइजेस्टर टेक्नॉलॉजी” के बारे में सर्च करने पर देखा तो पाया कि रेलवे ही नहीं, दिल्ली म्यूनिसिपल कर्पोरेशन भी निगमबोध घाट और आई.एस.बी.टी. पर इस तकनीक के टॉयलेट्स लगा रहा है। इसके अलावा यह कम्पनी, अल्फा थर्म लिमिटेड तो बायो डायजेस्टर टॉयलेट बेच रही है!
तकनीक –
मूलत: तकनीक यह है कि शौच के अपशिष्ट से यह एनॉरोबिक तरल बैक्टीरिया क्रिया कर कार्बन डाइ ऑक्साइड/मीथेन तो वातावरण में निकाल देता है और अपशिष्ट भंजित हो कर ठोस से तरल बन जाता है। इस तरल अपशिष्ट को क्लोरीनेशन कर के डिसैनफेक्ट किया जाता है और हानिरहित तरल को रेलवे ट्रैक पर निकाल दिया जाता है।
रेल डिब्बे के शौचालय का डिस्चार्ज पाइप एक टैंक में जाता है। इस टैंक में बैक्टीरिया क्रिया कर तरल अपशिष्ट बनाता है और क्लोरीनेशन के बाद वह तरल ट्रैक पर गिरता है। इस सिस्टम के तीन-चार अलग अलग डिजाइन बनाये गये हैं। आप एक डिस्चार्ज टैंक के डिजाइन की तस्वीर देखें।
यह फिटिंग कोच में टॉयलेट के नीचे की ओर लगाई जाती है। अगर आप बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे हों तो उसके एक रेक में इस प्रकार के कोच पा सकते हैं। सिवाय वातानुकूलित शयनयान के, बाकी सब कोच इस फिटिंग के साथ हैं।
यह जीरो डिस्चार्ज सिस्टम का डिजाइन आई.आई.टी. कानपुर और रेलवे के रिसर्च, डेवलेपमेण्ट और मानक संस्थान (आर.डी.एस.ओ.) ने विकसित किया है और कोच में फिट करने का काम रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला ने किया है।
कोच के नीचे टैंक फिटिंग –
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बैक्टीरिया डीआरडीई, ग्वालियर के प्लॉण्ट से लिये गये हैं। श्री मिश्र ने मुझे बताया कि (बहुत कुछ वैसे जैसे दही का जामन होता है) बैक्टीरिया की आगे की जरूरत तो इन्ही टॉयलेट्स में पनपने वाले बैक्टीरिया से हो जायेगी। अन्यथा, खरीदने के लिये उन्हे डीआरडीई, ग्वालियर के पास जाना होगा।
मेरे ख्याल से मैने पर्याप्त प्रारम्भिक जानकारी दे दी है। टिप्पणियों में और प्रश्न हुये तो मैं श्री अशोक कुमार मिश्र से आगे जानकारी ले कर आपको बता सकूंगा।
आगे लगभग 200 कोच इस प्रकार के प्रयोग में आयेंगे। अगली बार आप अपने सवारी डब्बे मेँ नीचे इस तरह की फिटिंग देखें तो औरों को बायोडाइजेस्टर टॉयलेट्स के बारे में बता सकेंगे?! नहीं?!
विष्ठा की अपचयित करना तो अपनी जगह ठीक है…गुटखे की पन्नी सब चौपट कर सकती है…और बिसलेरी की बोतल भी…और बच्चों क डायपर्स भी…और पता नहीं क्या क्या फेकते होंगे लोग…मिश्रा जी से पूछियेगा की इनके इलाज का भी कुछ प्रावधान है या नहीं
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मिश्र जी का कहना है कि लोगों का व्यवहार कालांतर में कुछ सुधरा था (अब वे यह विषय नहीं देख रहे हैं!)।
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अच्छी पोस्ट है. संसार में यदि किसी विषय पर सबसे अधिक शोध की आवश्यकता है तो वह यही विषय है. हम सदा वह निर्मित करने में लगे रहते हैं जो है नहीं. आवश्यकता है तो उसका उपयोग करने की, उसको सुरक्षित बनाने की जो न चाहते हुए भी है और रहेगा जैसे कूड़ा , कचरा, विष्ठा आदि. बाई प्रोडक्ट कार्बन डाइ ऑक्साइड/मीथेन का भी कुछ सदुपयोग ढूंढा जा सकता है.
यह समाचार एक खुशखबरी है. धन्यवाद.
घुघूती बासूती
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वाह !!!
सचमुच प्लेटफार्म में ट्रैक पर फैले और गंधाते मल दिमाग झन्ना दिया करते हैं…पर यह तो मानो वरदान ही मिल गया …बहुत ही अच्छा हो कि यह सब जगह लगा समस्या का निराकरण किया जाय..
एक जिज्ञासा बहुत दिनों से मेरे मन में पल रही है… ये जो हमलोग टायलेट क्लीनर इस्तेमाल करते हैं,इसमें वस्तुतः माइल्ड किस्म का तेज़ाब ही रहता है,जो टायलेट पैन को भले साफ़ कर दे पर टैंक में जाकर यह उन जीवाणुओं को भी नष्ट कर देता है,जो मल से ही उत्पन्न हो मल को साफ़ कर पानी की तरल रूप में रूपांतरित कर देते हैं जो अंततः जमीन द्वारा सोंख लिया जाता है. फलतः यह पूरी क्रिया बाधित होती है…
अब यदि इस प्रकार की प्रक्रिया घरों में भी अपनाई जाय तो निश्चित रूप से उच्छिष्ट पदार्थ की इस समस्या का समाधान होगा ????? आपने इतना बताया तो कृपया यह भी बता दें कि क्या इस तरह की तकनीक घरों में अपनाई जा सकती है और यदि हाँ तो इसकी लागत क्या आयेगी…
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अशोक मिश्र जी का कथन है कि वे जानसन ग्रुप की कम्पनी का टॉयलेट क्लीनर प्रयोग करते हैं और उसे डीआरडीई ने इन बैक्टीरिया के लिये सेफ बताया है! अर्थात ये बैक्टीरिया समाप्त नहीं होंगे उस टॉयलेट क्लीनर से।
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बहुत ही अच्छी जानकारी है। विकसित नागरिकता बोध और यह तकनीक मिल कर जन सामान्य की रेल यात्रा अधिक सुखद बनाए।
आपकी सूचना से लग रहा है कि फिलहाल इसे एक्सप्रेस रेलों में ही प्रयोग किया जा रहा है। सामान्य यात्री रेलों में तो इसकी आवश्यकता सर्वोच्च प्राथमिकता से अनुभव होती है।
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आप सही कह रहे हैं – जरूरत तो पैसेंजर गाड़ियों में है, जिनका उपयोग जितना यात्रा के लिये होता है, उतना शौचालाय के लिये भी!
मैं सम्बन्धित लोगों को कहने का उपक्रम करूंगा!
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देखे….. क्या यह कामयाब भी होता हे?
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