अमवसा[1] का स्नान था दो फरवरी को। माघ-मेला क्षेत्र (संगम, प्रयाग) में तो शाही स्नान का दिन था। बहुत भीड़ रही होगी। मैं तो गंगाजी देखने अपने घर के पास शिवकुटी घाट पर ही गया।
सवेरे छ बज गये थे जब घर से निकला; पर नदी किनारे कोहरा बहुत था। रेत में चलते हुये कभी कभी तो लग रहा था कि अगर आंख पर पट्टी बांध कर कोई एक चकरघिन्नी घुमा दे तो आंख खोलने पर नदी किस दिशा में है और मन्दिर/सीढ़ियां किस तरफ, यह अन्दाज ही न लगे। नया आदमी तो रास्ता ही भुला जाये!वैसे रास्ते की अच्छी रही – पचपन साल की सीनियॉरिटी हो गयी, पर अभी तक मालुम नहीं कि जाना कहां है और रास्ता कहां है। यह जानने-भुलाने की बात तो छलावा है। किसी एमेच्योर दार्शनिक का शब्दों से खेलना भर!
तो हम तीनों चलते चले गये – ज्ञानेन्द्र (मेरा बेटा), रीता (पत्नीजी) और मैं। रास्ते में मैं कोहरे के हस्ताक्षर वाले चित्र दर्ज करता जा रहा था कैमरे में। आधे रास्ते से मुड़ कर देखा तो पीछे छूट गयी मन्दिर की रोशनी पीली सी पड़ चुकी थी। आने, जाने वाले पास आने पर भी धुन्धले से लग रहे थे। सूर्योदय हुआ होगा, पर सूर्य देव को बेड टी नहीं मिली थी। कोहरे के कम्बल में मुंह छिपाये खर्राटे भरने का स्वांग कर रहे थे। जिसे देखो, वही गंगाजी के तट पर नहान के लिये भागा जा रहा था। … कोई एक थर्मस में चाय ले जाता सूर्य देव के लिये!
रेत में काफी आगे जाने पर दायें अरविन्द और बायें कल्लू के खेत की फेंसिंग नजर आई धुन्धली सी। तब लगा कि गंगा तट समीप है। सूखी रेत गंगाजी के पानी की नमी से ठोस होने लगी थी और चलना आसान हो गया था। तट पर आशा से अधिक लोग-लुगाई दिखे। नहाने के पहले, नहाने की डुबकी लगाते, नहाने के बाद कपड़े बदलते और फिर हिन्दी में आरती, संस्कृत में श्लोक ठेलते तरह तरह के श्रद्धालु। कोहरा बरकरार।
मैं तो मनमौजियत में गंगातट पर आया इस कोहरे में। स्नान भी नहीं करने जा रहा था। पर कितनी श्रद्धा है जो लोगोंको जो डुबकी लगाने आई थी अमवसा के स्नान पर। हर हर गंगे!
वापसी में सूर्य का प्रकाश बढ़ने से कोहरा कुछ कम हो गया था। जितना नदी से दूर हो रहे थे, छंटता भी जा रहा था। देखा कि एक पिता और एक छोटी बच्ची जा रहे थे वापस। बच्ची ने भी स्नान किया था। पर रेत में उसकी चलने की ताकत जवाब दे रही थी। पिता के बार बार कहने पर भी वह आगे नहीं बढ़ रही थी। हार कर पिता ने उसे पीठ पर उठाया और कुछ दूर दौड़ लगा कर फिर तेज कदमों से चलता चला गया। इस मार्मिकता पर तुरंत पत्नीजी उवाच – तुमने अपने बच्चों को कभी इस तरह पीठ पर नहीं उठाया होगा। कमसे कम ज्ञानेन्द्र को तो कभी नहीं। क्यों रख्खा उससे छत्तीस का आंकड़ा शुरू से?!
आप यह वीडियो देखें – छोटा सा है; पर एक पिता के स्नेह का अप्रतिम उदाहरण लगता है!
घाट की सीढ़ियों के पास पिता-पुत्री फिर दिखे। पुत्री जवाहिरलाल (आप उन्हे जरूर जानते हैं अगर पुरानी पोस्टें पढ़ रखी हैं। मेरे ब्लॉग के अघोरी और गंगातट के परमानेण्ट जीव) के अलाव पर पैर सेंक रही थी। नाम पूछा तो बताया – पारुल जायसवाल।
हमारे घर के पास ही रहते हैं जायसवाल जी। पता ही न था।
संगम जाते तो बहुत चेंचामेची देखने को मिलती अमवसा पर। पर यह अनुभव क्या कम था? आप बतायें?
स्नान के बाद सर्दी भगाती पारुल
[1] अमवसा का स्नान – माघ महीने में संगम पर कल्पवास करते श्रद्धालु अमावस्या के सवेरे मुख्य स्नान करते हैं। इसे मौनी अमावस्या भी कहते हैं। मौन व्रत रखते हैं इस दिन कुछ लोग। स्थानीय भाषा में इसे अमवसा का स्नान कहा जाता है। संगम पर अमवसा का मेला लगता है। बहुत भीड़ जुटती है!
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी धर से थर्मस मे गर्म पानी ले जाते , फ़िर उसे गंगा मे मिला कर आप भी डुबकी लगा ही लेते, ओर यह छत्तीस का आंकड़ा क्या होता हे जी, हम ने तो दोनो बेटो को कंधो पर खुब बिठाया हे, सारा बाजार भी घुमाया हे, आप के सभी चित्र बहुत पसंद आये, ओर लेख भी धन्यवाद
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एक बाथरूम बने गंगा किनारे! गीजर युक्त! तब हमारी श्रद्धा परवान चढ़े! 🙂
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‘क्यों रख्खा उससे छत्तीस का आंकड़ा ’
उसमें क्या है, अब तिरसठ का आंकड़ा कर लीजिए 🙂
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समय बदलता है आंकड़ों को!:)
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आपकी पोस्ट पढी तो अपने दोनों बेटों का बचपन याद आ गया। मैं भी ‘न्यूक्लीयर परिवार’ हूँ किन्तु यह याद करके अच्छा लग रहा है कि मैंने अपने बच्चों को यथेष्ठ भले ही नहीं, किन्तु समय दिया है और कन्धों पर बैठाकर मेलों-ठेलों में ले गया हूँ।
मन पुलकित हो गया इन यादों से। यह पुलक आपको अर्पित।
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अभी तो और कुछ कहने सोचने का ख़याल नहीं सिवाय इसके कि छः सात वर्ष की अवस्था तक रोजाना मंदिर पिता के कंधे पर चढ़कर ही जाती आती थी…
पर एक बेटी के भाग्य देखिये, पराया धन भाइयों के होते अपने पिता के कमजोर हाथों को अपने काँधे का सहारा नहीं दे सकती…
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ओह! पराया धन! 😦
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बड़ा आत्मीय कुनबा है आपका, गंगा तट-शिवकुटी घाट पर.
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दोनों बच्चों को इस तरह से उठाया है, इसके दो लाभ हैं, पहला तो संतुलन बहुत अच्छा रहता है क्योंकि बच्चा अपने हाथों का उपयोग स्वयं को ऊपर उठा बेहतर ढंग से दृश्य देखने में करता है और समय पड़ने पर पीछे की ओर आपके हाथों का उल्टा घेरा सहारा दिये रहता है।
दूसरा आनन्द बतियाने का है, दोनों की दिशा एक, कान पास पास, लम्बा बतियाया जा सकता है।
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रुकसैक का चलन बढ़ा है और सुराजी थैले का कम हुआ है – यह संतुलन का फण्डा लगता है उसके पीछे।
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आपकी नजरों से ही हम गंगा स्नान सुबह- सबेरे कर लिया करते है.
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मैं भी चक्षु-स्नान ही करता हूं गंगा में। जल बहुत प्रदूषित कर दिया है कानपुर के टैनरी वालों ने! 😦
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बच्चों को समय देना ही चाहिए, जितना दे सकें। घर में दफ्तर रखने से, हम तो कर पाए।
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अब परिवार न्यूक्लियर होने लगे हैं तो समय देना बहुत जरूरी हो जाता है।
एक व्यवसायी को स्कूल में प्रिंसिपल ने तलब किया था। वहां प्रिंसिपल पूछने लगा कि आपका बच्चा कौन सी क्लास में है? वह व्यक्ति अचकचा गया – उसे ध्यान ही न था कि कौनसी क्लास में है बच्चा! यह भी एक एक्स्ट्रीम है! 🙂
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इस टिपण्णी पर लाइक बटन होना चाहिए 🙂
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तुमने अपने बच्चों को कभी इस तरह पीठ पर नहीं उठाया होगा।
सच में?!
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बच्चों को बहुत समय नहीं दे पाया। जिन्दगी पुन: जीनी हो तो यह नहीं ही होगा। 😦
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जो बीत गयी सो बीत गई. अब सारी कसर नत्तू पांडे को कंधैय्या चढाकर पूरी कीजिये। हम तो अपने नानाजी की पीठ पर खूब घूमे हैं।
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नत्तू पांडे तो खूब नचाते हैं हमें! 🙂
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ऐसा लगता तो नहीं… सब उसी ढर्रे पर चलता रहता है.
अपने साथ भी यही बात है 😦
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ऐसा था जरूर। कैरियर बनाने का बोझ कुछ ज्यादा ही था तब। या समय प्रबन्धन लचर?
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