बात वर्ष १९९७ की है जब मैं भीतरकनिका अभ्यारण्य के एक प्रोजेक्ट में शोध सहायक का साक्षात्कार देने के लिए कटक गया था| कम उम्र में इतनी अधिक अकादमिक उपलब्धी को देखकर चयनकर्ता अभिभूत थे| वे हां कहने ही वाले थे कि एक वरिष्ठ चयनकर्ता ने यह प्रश्न दागा|
“एक बार भी नहीं| जो भी लिखता हूँ उसे अंतिम मानकर लिखता हूँ| सुधार की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ता|” मेरे उत्तर से स्तब्धता छा गयी|
“तब तो आप इस पद के लिए उपयुक्त नहीं है| आपको इस प्रोजेक्ट के मुखिया के लिए आवेदन करना चाहिए|” और मुझे वापस कर दिया गया| ये वाक्य मन में अक्सर घूमते रहते हैं आज भी|
कृषि की पढाई पूरी करने के बाद जब मैंने संकर धान के एक प्रोजेक्ट में शोध सहायक की नौकरी आरम्भ की तो अपने प्रोजेक्ट प्रमुख की एक आदत ने मुझे परेशान कर दिया| वे सुबह से शाम तक रपट तैयार करते और फिर उसे कम्प्यूटर से निकलवाते| दूसरे दिन सारी की सारी रपट रद्दी की टोकरी में पडी मिलती और वे फिर से रपट लिखने में मशगूल दिखते| साल के ज्यादातर महीनो में वे बस रपट लिखते रहते और फिर उसे फेंक कर नयी लिखते रहते| प्रिंट पेपर की रिम पर रिम मंगवाई जाती थी| मुझे यह श्रम, ऊर्जा और धन सभी की बर्बादी लगती थी| वे खुद भी गहरे तनाव में रहते थे|
थीसिस लिखते समय मेरे गाइड भी इसी रोग के शिकार थे| महीनो तक वुड, शुड, कुड में उलझे रहते| फिर लिखते और फिर सुधारते| मुझसे लिखने को कहते और फिर सुधारने लग जाते| जब थीसिस जमा करने की अंतिम तारीख आयी तो झुंझलाकर काम पूरा किया और फिर सालों तक कहते रहे कि थोड़ा समय मिलता तो सुधार हो सकता था|
मेरी एक बार लिखकर एक बार भी न सुधारने की आदत अब तक बरकरार है| बाटेनिकल डाट काम के १२,००० से अधिक शोध दस्तावेज हाथ से लिखे| आप संलग्न चित्र देखें पांडुलिपी का|
एक बार में ही लिखा गया सब कुछ| फिर जब कम्प्यूटर में लिखना शुरू किया तो भी यही आदत रही| मुझे लगता है कि मेरी तीव्र लेखन गति के लिए यह दुर्गुण या सद्गुण जिम्मेदार रहा| दुनिया भर में सौ से अधिक शोध-पत्र प्रकाशित किये एक से बढ़कर एक शोध पत्रिकाओं में पर सभी को एक बार में ही लिखी सामग्री भेजी और उन्होंने उसे प्रकाशित किया बिना फेरबदल के| कुछ ने फेरबदल की पर बकायदा अनुमति लेकर| रिजेक्ट किसी ने नहीं किया| मेरे गुरु हमेशा कहते रहे कि काम में दम होना चाहिए फिर उसकी प्रस्तुति गौण हो जाती है|
क्या कटक के चयनकर्ता का फलसफा सही था? मैं अभी तक के जीवन में कभी सहायक के रूप में सफल नहीं रहा| हमेशा मुखिया का पद सम्भाला या अकेला ही चला| अक्सर सोचता रहा कि कभी ज्ञान जी के ब्लॉग के माध्यम से यह सब आपसे शेयर करूंगा और आपकी राय मांगूगा| आज यह स्वप्न साकार होता दिख रहा है|
पंकज अवधिया
ज्ञानदत्त पाण्डेय का कथन –
शायद लिखे को सुधारना/न सुधारना आपकी लेखन क्षमता पर निर्भर करता है। जब मैने हिदी ब्लॉग लेखन प्रारम्भ किया तो मुझे बहुत सुधार करने होते थे। ट्रांसलिटरेशन के माध्यम से टाइप करने की कमजोरी के कारण अभी भी प्रूफ में परिवर्तन करने ही होते हैं। अपेक्षाकृत कम जरूर हो गये हैं।
पब्लिश बटन दबाने के पहले यह अवश्य देख लेता हूं कि हिज्जे/व्याकरण का कोई दोष तो नहीं बचा है; अथवा अंग्रेजी का शब्द उसके मेरे द्वारा किये जाने वाले प्रोनंशियेशन के अनुरूप है या नहीं।
यह सब इस लिये कि हिन्दी के महंतगण मेरे लेखन में गलतियां निकालते रहे हैं – प्रारम्भ से ही। और मैं जानता हूं कि यह उनका मेरे प्रति स्नेह का परिचायक है।
बाकी, यह अनंत तक ड्राफ्ट में सुधार करने और अंत में एक ऐसे डाक्यूमेण्ट को स्वीकार करने – जो पहले ड्राफ्ट से भी बेकार हो – वाली परिमार्जनोमेनिया (परिमार्जन – मेनिया – Obsession to Improve/Tweak) के मरीज बहुत देखे हैं। मेरे दफ्तर में ही खांची भर हैं!

जहाँ तक मुझे याद है, अवधिया जी के पिछले लेख अपना असर छोड़ने में कामयाब रहे हैं ! मगर यहाँ डॉ अरविन्द मिश्र का यह कमेन्ट हालाँकि आवश्यक नहीं था मगर ठीक सा लगा !
अगर आप सबके लिए लिख रहे हैं तो भूल मानने को तैयार रहना होगा ! ब्लॉग जगत में एक से एक विद्वान् मौजूद हैं और यहाँ उदाहरण मिल गया !
आज डॉ अरविन्द मिश्र और अनूप शुक्ल को एक विषय पर, एक मत होते बहुत अच्छा लगा ! यह दोनों गुरु जन हैं और निस्संदेह अच्छे दिल के हैं !
अरविन्द मिश्र गुस्सैल मगर नरम दिल हैं मगर “गुरुदेव अनूप शुक्ल” का कोई इलाज़ नज़र नहीं आता ….
कुछ आप ही सुझाएँ तो बात बन जाए ..??
:-))
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सतीशजी, आप जिस सहज भाव से हमारे दिल के अच्छे होने की प्रमाणपत्र देते देते हैं उससे मुझे हर साल अपनी गाड़ी के प्रदूषण मुक्त होने का प्रमाणपत्र पाने की याद आ जाती है। :)
सच तो यह है कि अनूप शुक्ल बहुत रागिया और घुटे दिल वाले हैं। आप सीधे-साधे हैं इसलिये हर बार झांसे में आ जाते हैं। ऐसे को आप खुलेआम अपना गुरु बतायेंगे तो आप की भी इज्जत को दाग लगेगा। :)
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मेरे पास जितनी समझ है निस्संदेह आप दोनों बेहतरीन व्यक्तित्व के मालिक हैं आप दोनों से मैं सीखता रहा हूँ सो दोनों ही गुरुजन हैं !
ज्ञान भाई के यहाँ आज जिस मूड में आप दोनों हैं वह स्वागत योग्य है ! उम्मीद है ऐसे ही भविष्य में आनंद देते रहोगे ! :-)
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आपकी सलाह सर आँखों पर सतीश जी|
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हमारे मस्तिष्क का प्रवाह रुक रुक कर आता है, नगर निगम के नलों की भाँति। विचार आते ही मोबाइल और फिर कम्प्यूटर में पड़ा रहता है, धीरे धीरे कई बार एकत्र होने के बाद, एक बार बैठकर उस पर लेखन हो जाता है। कुछ सामग्री इण्टरनेट व अन्य स्रोतों से मिलती है, उसे भी डाल देता हूँ। ऑफिस वननोट का उपयोग करता हूँ।
लेखन के बाद भी कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं, वर्तनी सम्बन्धी, प्रवाह सम्बन्धी, बस उन्हे ही दूर करता हूँ, प्रारूप नहीं बदलता हूँ।
आप जैसी मेधा मिलती तो हम भी हिमालयीन झरनों के नीचे नहा रहे होते, अभी तो नगर निगम के नल ही हैं।
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सर्दियों में रोज नहा लेना भी उपलब्धि है! :)
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प्रवीण जी ऐसा न कहें| यह आपका बडप्पन है| हम आपको जानते हैं क्योंकि आपके नियमित पाठक हैं|
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यदि लेखक असाधारण प्रतिभासंपन्न हैं तो यह बात उनपर लागू हो सकती है. पर हम लोगों में से ऐसे लोग बहुत ही कम होंगे.
अपने लिखे को एक नज़र डाल के देख लेने में क्या गलत है? इस बात पर इन्सिस्ट करना तो मैं सही नहीं समझता.
Nothing is absolute. बाकी जो लोग अपने हर ड्राफ्ट में दसियों बार फेरबदल करते रहते हैं उनसे तो दफ्तर में हमारा रोज़ पाला पड़ता है. और मैं अनेकों बार यह भांप गया हूँ कि ऐसा करते समय वे मन ही मन में यह कहते हैं, “ये कल के छोकरे…!”
और आमतौर पर ऐसे अनिश्चयी व्यक्ति को झक मारकर पहले लिखी या कही गयी बात पर लौटना पड़ता है.
एक बार ज़रूर पढ़ें, चाहे वह हिज्जे या विराम चिह्न की गलतियाँ ढूँढने के लिए ही क्यों न हो.
इस प्रसंग ने आपको बहुत रंज पहुँचाया है, इसे खेद की तरह न लें. अपने पढ़े की समीक्षा करना एक अच्छी आदत है और हर अच्छी आदत जीवन में कभी भी लागू की जा सकती है.
आपके गुरु अपनी जगह सही थे, पर ऐसा तो हर किसी को लगता है.
और फिर आजकल जमाना प्रस्तुति का है.
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हां निशांत; सामान्य क्षमता वाले के लिये शायद बुद्ध का मध्यम मार्ग ज्यादा सही है!
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मध्यम मार्ग तो स्वयं बुद्ध के लिए भी सर्वोचित था :)
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@ अरविन्द मिश्र – अनूप शुक्ल द्वय (काश इनकी जोड़ी सब विषयों में सिनर्जेटिक होती!):
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सम्प्रेषण के लिहाज से कोई कमी नहीं है लेख में लेकिन सुधार की गुंजाइश है। हमेशा रहती है। एक शोध पत्र और ब्लाग लेख में अंतर हो सकता है। शीर्षक और उस पैराग्राफ़ में वास्तव में सुधार की गुंजाइश है।
अरविन्द मिश्र और अनूप शुक्ल की सिनर्जी की बात कहना यहां एतराज को हल्का करने का प्रयास है जो कि एक समझदार ब्लॉगर के रूप में आपकी बेहतरीन समझ और झकाझक प्रत्युत्पन्न मति को दर्शाता है लेकिन बात जो है सो है। अरविन्द मिश्र और अनूप शुक्ल के भी विचार एक लेख पर एक हो सकते हैं। है कि नहीं? :)
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अब इस प्रश्न का जवाब तो अरविन्द मिश्र जी दें! :)
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अब इसमें कहाँ दो राय रह गयी कि अनूप जी मुझसे बेहतर और सजग पाठक हैं …. :)
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“एक शोध पत्र और ब्लाग लेख में अंतर हो सकता है”
अनूप जी, आई.आई.टी. खड़गपुर में एक प्रेजेंटेशन के माध्यम से आइंस्टीन द्वारा लिखा गया एक नोट देखा था जिसके आधार पर उन्हें दुनिया ने जाना| साधारण भाषा में कहें तो वह “खिचडी नोट” कहा जा सकता है| ऐसा जैसे मकडी को स्याही में डुबो कर कागज पर दौड़ा दिया गया हो| भाषा त्रुटियों से भरी थी पर आज वह नोट बेशकीमती है क्योंकि सारी कमजोरियों के बाद भी वह अपनी बात कहने में सफल रहा| मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि आज के युग में आइन्स्टीन होते तो उन्हें स्वयम को प्रस्तुत करने के लिए आको चने चबाने पड़ते| ज्ञान जी सही कहते हैं कि सम्प्रेष्ण मुख्य उद्देश्य होना चाहिए| बात पहुंचनी चाहिए उन तक जिन तक आप पहुंचाना चाहते हैं| आपने गुजारिश का वह गीत तो सुना होगा “सौ ग्राम जिन्दगी है सम्हाल के खर्चिये|”
चलिए शोध पत्र और ब्लॉग लेख पर आते हैं| मेरे नेट पर लिखे गए अंग्रेज़ी लेखों को विज्ञान जगत में पहले पहल शोध पत्र मानने से इन्कार कर दिया गया| कोई बात नही| मैं लिखता रहा| एक दिन उड़ीसा से एक शोधार्थी ने मुझसे मुलाक़ात की और एक नायाब तोहफा दिया| उन्होंने ५००० से अधिक ऐसी Ph.D. and D.Sc. थीसिस की जानकारी दी जो इन तथाकथित ब्लॉग लेखों पर आधारित थे| पता चला दुनिया भर का विज्ञान जगत अब इन्हें शोध पात्र की तरह प्रयोग कर रहा है| हाल ही में पता चला कि रतनजोत पर लिखे गए मेरे लेख के आधार पर की गयी प्रस्तुति ने आस्ट्रेलिया और सिंगापुर के नीति निर्धारकों को पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया|
मैं तो ब्लॉग और शोध पत्र एक ही भाव से लिखता हूँ| बात पहुंचनी चाहिए बस|
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अवधियाजी, आप अपवाद को सिद्धांत बताने की राह पर हैं। लेखक के मन में उठे भाव श्रोता या पाठक तक पहुंचने के कई चरण होते हैं। ये सभी समय, समाज, व्यक्ति काल सापेक्ष होते हैं। आइंसटीन महान थे उनका “खिचडी नोट” महत्वपूर्ण था लेकिन इससे यह साबित करने का प्रयास करना कि खिचड़ी नोट ही सम्प्रेषण में सक्षम हो सकते हैं , सही नहीं है।
हर एक की सम्प्रेषण क्षमता अलग-अलग होती है। आप शानदार सम्प्रेषण क्षमता के मालिक हैं इसलिये ऐसा सफ़लतापूर्वक कर पाते हैं लेकिन शायद हरेक के बस की यह बात न हो।
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फिलहाल यहाँ की सिनर्जी ही आप विद्वत द्वय झेल लें वही काफी है :) आगे की नौबत आये या न आये …
वैसे भी पंडितः पंडितम दृष्ट्वा स्वानवत गुर्गुरायते -और कहीं सिनर्जी हुयी तो फिर क़यामत तय समझिये :)
अब झेलिये इस जलजले को :)
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अनूप जी, आप ठीक कह रहे हैं| धन्यवाद जो आपने मेरी शंकाओं का समाधान किया|
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सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है चाहे सर्वोत्तम ही क्यों लिखा गया हो!
प्रस्तुति गौण हो सकती है लेकिन अगर दुबारा देख लिया जाये तो बेहतर। अब जैसे इसी लेख में देखिये शायद ये सुधार किये जा सकें:
१. शीर्षक -आप एक बार लिखकर कितनी बार मिटाते या उसे सुधारते हैं?
शायद बेहतर – आप एक बार लिखकर उसे कितनी बार मिटाते या सुधारते हैं?
वैसे इसमें भी मिटाते और सुधारते दोनों एक साथ लिखना अनावश्यक है! दोनों में से एक ही शब्द इस्तेमाल किया जाना चाहिये। मिटाते या सुधारते दोनों लिखने से शीर्षक की ताकत कम हुई है।
२. उपलब्धी- उपलब्धि
३. थीसिस लिखते—-सुधार हो सकता था|
इस पैराग्राफ़ में यह समझने में भ्रम हो सकता कि थीसिस किसकी लिखी गयी थी -लेखक की या गाइड की?
४.पांडुलिपी -पांडुलिपि
५. बकायदा- बाकायदा
६. कुछ ने फेरबदल की पर बकायदा अनुमति लेकर|
इसमें फ़ेरबदल किये बेहतर होता।
मैंने यह टिप्पणी की इसमें भी बेहतरी की गुंजाइश है।
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“सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है चाहे सर्वोत्तम ही क्यों लिखा गया हो!”
सहमत हूँ अनूप जी पर मेरा मानना है कि इस गुंजाइश के लिए हम कब तक रुकते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है|
वैसे क्या आपको लगता है कि प्रेमचंद जैसे कालजयी लेखकों की रचनाओं में अब भी सुधार की गुंजाइश है उन्हें सर्वोत्तम बनाने के लिए| क्या रामायण और महाभारत भी ——
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अवधियाजी, विवेक भी तो व्यक्ति सापेक्ष ही होती है। एक का विवेक दूसरे को बेवकूफ़ी लग सकता है।
प्रेमचंद और रामायण तथा महाभारत के रचयिता आज होते तो इस बारे में कुछ कहते । हो सकता है वे अपना लिखा हुआ बहुत कुछ खारिज कर देते।
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अभ्यारण्य
उपलब्धी
पांडुलिपी
जाहिर है यह लेख ज्ञान जी का नहीं है !
यह अभी भी एक ड्राफ्ट ही है फाईनल लेख नहीं लगता …
साक्षात्कार के प्रश्न का जवाब तो है प्रश्न ही नदारद है ….. :)
जबकि आत्ममुग्धता /श्लाघा/दंभ (क्षमा प्रार्थना सहित ) से भरे इस लेख को तो पूर्णतया त्रुटिहीन कर लेना चाहिए था न
कटक के चयनकर्ता की सीख अगर आदरणीय अवधिया जी ने गंभीरता से ले लिया होता तो आज यह लेख भी यहाँ न पढने को मिलता :)
कहीं कुछ तो कमी रह ही गयी ..कहीं कुछ तो है जो इस महान मेधा की बढ़त पर अंकुश लगा गया …. ..खुद मुझे मेरी कई मूर्खतायें आज तक सालती हैं …..
बहरहाल अवधिया जी भी खुद में एक अकेले हैं इस ब्लॉग जगत के एक हीरे …..
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साक्षात्कार का प्रश्न तो लेख का शीर्षक ही है बन्धुवर!
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@यह कौन सी स्टाईल है ज्ञान जी कि शीर्षक डालकर वह शीर्षक -अंश मुख्य आलेख में रखा ही न जाय ?
और वह शीर्षासन करने चला जाय :)
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आपकी यह टिप्पणी बहुत कुछ सिखा देती है और सीखने की कोई उम्र नहीं होती| धन्यवाद अरविन्द जी|
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मैं तो अपना मजइत ढंग से लिखा हुआ….एन्जॉयात्मक लेख एक बार जरूर पढ़ता हूं…… उसे दुबारा पढ़ना कुछ कुछ झेलने जैसा होता है :)
ड्राफ्ट पर ड्राफ्ट बनाने वाले लोग खांची भर तो नहीं लेकिन पलरी भर जरूर मेरे ऑफिस में भी हैं…..एक बार मेल शूट करने के बाद कई तो रिकॉल भी करते हैं…..उसके बावजूद जब उनका मन नहीं मानता तो डेस्क पर आकर तस्दीक कर लेते हैं ये कहते हुए कि वो मेल इग्नोर कर दिजिए………दूसरा भेजता हूँ……और हम जैसे हैं कि क्यूबिकल में ही बैठे बैठे कहते हैं……. आप की बात सर आँखों पर……हम तो आपकी इतनी इज्जत करते हैं कि आप के मेल को इग्नोर करने की कौन कहे कभी कभी तो आपको भी इ…….. :)
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हम तो आपको कत्तई इग्नोर नहीं करते/सकते! :)
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एक बार तो जरुर ही पढ़ना चाहिये. इन्सान ही हैं, भूल/त्रुटियाँ स्वभाव है, फिर भी जितना कम कर सकें. हाँ, यह भी देखना होता है कि आपका उद्देश्य क्या है?
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पंकज जी की तो वे जानें। हमारा ध्येय तो ठेलना मात्र होता है! :)
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आपसे सहमत हूँ समीर जी|
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एक बार तो जरूर पढ़ लेना चाहिये और अगर दो बार पढ़ा जाय तो कोई भी लेख और अच्छा बन सकता है। इसी पोस्ट की post slug को देखिये, सुधार की गुंजाइश है :)
यदि आप अपना लेख अपनी साइट के बजाय Peer Reviewed Science Journals में छपा हुआ चाहते हैं तो ये अति आवश्यक है।
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Well Taken and Corrected! :)
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लेख बढ़िया लगा …दोनों तरह के लोग अपनी अपनी जगह ठीक हैं ,ऐसा मुझे लगता है। अपनी अपनी क्षमता की बात है।
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हां; कम से कम समय/यत्न में उत्तमोत्तम उत्पाद तैयार करने की कवायद होनी चाहिये?! इसमें क्षमतायें रोल प्ले करती हैं।
पर परिमार्जनोमेनिया की बीमारी तो बहुतों में है! :) वह Law of diminishing returns पर काम करती है।
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प्रवीण जी हम आपके फैन है और आपको लम्बे समय तक पढ़ते रहे| उस समय जब आपका बालक ब्लागिंग में नए कीर्तिमान बना रहा था| आपकी पोस्ट याद आती है जिसमे आपने लिखा था कि मुम्बई में रहते हुए आप घर के पास स्थित स्टेशन घूम आते थे|
धन्यवाद आपकी टिप्पणी के लिए|
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