गंगाजी की रेती के कछार में लोग नेनुआ, लौकी, कोंहड़ा, तरबूज, खीरा और ककड़ी की खेती करते हैं। यह काम दीपावली के बाद शुरू होता है। इस समय यह गतिविधि अपने चरम पर है।
आप इस विषय में कई पहले की पोस्टें गंगा वर्गीकरण पर खंगाल सकते हैं।
मैने पिछली पोस्ट में बताया था कि गंगाजी की रेती में कल्लू के खेत में पानी का कुंआ है। लोगों को गगरा-मेटी से इस प्रकार के कुंये से पानी निकाल कर सिंचाई करते मैने देखा था।पर कल देखा कि एक कदम आगे बढ़ गये हैं खेती करने वाले। गंगा नदी से पम्पिंग कर पाइप के जरीये सिंचाई करने की प्रणाली प्रारम्भ हो गई है। खेती ज्यदा पानी मांग रही है, और खेती करने वाले लोग नये प्रयोग से पीछे नहीं हट रहे!
इस बार रेत का मैदान लम्बा-चौड़ा हो गया है – गंगा माई ने बहुत जगह छोड़ दी है। उसके बाद यद्यपि धारा में पानी काफी दिखता है, पर खेती को पानी देने के लिये केवल गगरी-मेटी से पानी ढोना पर्याप्त नहीं हो रहा। शारीरिक श्रम की बचत करने के लिये डीजल जेनरेटर से पम्पिंग सेट चला पानी पौधों तक ला रहे हैं सब्जी उगाने वाले। पाइप से वह पूरे खेत में पंहुचा रहे हैं।
मैने देखा – कल्लू रात में वहीं सोया था, रेत में अपनी कथरी बिछा कर। मुझे देख अंगड़ाई लेते बैठ गया। पम्पिंग उपकरण की फोटो लेते देख एक अन्य सज्जन जो खेत में ही थे, पास आये:
आप आगे देखें तो पायेंगे कि पाइप के अन्त में एक कनेक्टर से चार पाइप जोड़े हैं हमने। इससे चार पौधों की जड़ों में पानी एक साथ पंहुचा लेते हैं।
“अच्छा, आप पानी का स्प्रिंकलर क्यों नहीं इस्तेमाल करते? यहां पानी की कमी तो है नहीं। एक लम्बे क्षेत्र में एक साथ पानी पंहुच जायेगा। “ – मेरी पत्नीजी नें उनसे पूछा।
वे सज्जन हैं श्री राम सिंह। कल्लू के पिताजी। बसपा के प्रमुख कार्यकर्ता भी हैं। वे बोले – “नहीं, पानी उससे बर्बाद ही होगा। पानी सिर्फ जड़ों को चाहिये। १:४ के कनेक्टर से यह पानी बिना बर्बाद हुये जड़ों में एक साथ पंहुचा देते हैं हम।”
मेरे लिये यह (रेत में गंगाजी के पानी को पम्प कर खेती-सिंचाई की तकनीक) बड़ी सूचना थी। तकनीकी लीप फार्वर्ड। और मैं तो मान कर चलता हूं कि इस ब्लॉग के पाठक भी इसे रोचक मानेंगे!
अभी तो श्री राम सिंह अपने खेत में पानी देने के लिये यह उपकरण प्रयोग कर रहे हैं, पर वह दिन भी दूर न होगा जब वे इसको किराये पर दे कर पैसा कमाने लगेंगे। कम से कम मैं तो ऐसा सोचता हूं।
आप नहीं मानते या सोचते? अब मैं कर ही क्या सकता हूं!
achhi jankari di dadda ne……..post par slide ka apna hi maja aaya……….praveenji ka
sapna hame bhi aata hai……dadda koi zone banaenge to balak ko arakshit rakhenge..
pitsburg wale chacha ne post ke mool sandesh wakya ko kot kar diye hain……aur post
ke poorak tippani ashok bhai ne diye…….dhanywad lekin ‘lafatoo’ kahan hai…………
jahan tak ram singhji ka ‘charitra’ hai o samaj ke….ek tarah se pratinidhi ‘chehre’ hain……….aise aur bhi kai majboot manobal ke karm-pradhan charitra aap jaison
tak ko prabhavit kar jate hain………
pranam.
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संजय, ये “लफत्तू” वाले अशोक पाण्डेय नहीं, खेती बाड़ी वाले हैं।
लप्पूझन्ना ब्लॉग दूसरे पाण्डे जी का है!
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oh…..main bekar hi bhaiji ko har jagah gher-ghar kar raha tha……………yse dadda jinka hai……..unko jara recommend
kar den……
pranam.
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ज्ञान दा, आप जिस ‘तकनीकी लीप फार्वर्ड’ की बात कर रहे हैं, उसके लिए चीन को धन्यवाद देना चाहिए। ये चायनीज डीजल इंजन पंपिंग सेट है। वजन मात्र 50-55 किलो, डीजल की खपत मात्र आधा लीटर प्रति घंटा, कीमत मात्र 10 से 12 हजार रुपए। जब से भारत में यह आयी है, खेतों की सिंचाई में किसानों को काफी सुविधा हो गयी है। छोटी-छोटी चीजें ही खेती में क्रांति लाती हैं। चाइनीज सेट और प्लास्टिक के पाइप से किसान कहां से कहां तक पानी पहुंचा दे रहे हैं… आज से एक दशक पहले तक किसानों को एक जगह से दूसरी जगह तक पानी पहुंचाने के लिए खेत में कच्ची या पक्की नाली बनानी पड़ती थी। .. खैर बात हो रही थी चायनीज पंपिंग सेट की..करीब डेढ़ साल पहले मैंने इस पर एक पोस्ट लिखी थी http://khetibaari.blogspot.com/2009/08/blog-post.html तब सरकार इस पर अनुदान नहीं देती थी, लेकिन अब इस पर भी अनुदान मिलने लगा है। हालांकि सारा अनुदान व्यापारी झटक जाते हैं, लेकिन तब भी यह उपकरण हिन्दुस्तानी मॉडल से काफी सस्ता पड़ता है। इसीलिए किसानों में तेजी से यह लोकप्रिय हो गया है।
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वाह! वाह! यह हुई न तकनीकी टिप्पणी!
बहुत धन्यवाद अशोक!
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अनुभव और तकनीक के मेल से बेहतर जुगत बनी है.
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जुगत वाकई बहुत बढ़िया है।
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नदी किनारे, खेत के बीच में, झोपड़ी के अन्दर, बैठकर कुछ लिखा जाये। स्वप्न है।
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आ जाओ!
और अगर बहुत लोग उत्सुक हों तो मैं गंगा तट पर मड़ई-टूरिज्म की सोच सकता हूं! 🙂
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कृपया ट्विन शेयरिंग टैरिफ और चेक-इन टाइम के बारे में बताएं 🙂
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ओह, मैं अपनी पत्नीजी से बात कर रहा था कि यह गंगा किनारे की सुबह कितने लोगों को नसीब होती होगी! शायद हमें कुछ बिजनेस मिल सके यदि घर में एक कमरा अतिथि-कक्ष के रूप में रखें और लोगों को गंगा तट का दर्शन करायें जैसा इन पोस्टों में होता है।
दुर्भाग्य है कि मैं ऐसे विचारों का ठेलक भर हूं। सरकारी अफसरी सभी बिजनेस प्रस्तावों को कुन्द कर देती है! 😦
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साइकिल यात्रा अभी पेंडिंग है न ? मड़ई-टूरिज्म और हो गया लिस्ट में 🙂
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अभी पिछले महीने साइकल खरीद ली है। यह अलग बात है कि स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण चलाना मुल्तवी है, फिलहाल।
पर अभिषेक, कभी तो मेरा समय चमकेगा! नहीं? 🙂
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@वे सज्जन हैं श्री राम सिंह। कल्लू के पिताजी। बसपा के प्रमुख कार्यकर्ता भी हैं। वे बोले – “नहीं, पानी उससे बर्बाद ही होगा। पानी सिर्फ जड़ों को चाहिये। १:४ के कनेक्टर से यह पानी बिना बर्बाद हुये जड़ों में एक साथ पंहुचा देते हैं हम।”
जल की बहुतायत में होते हुए भी जल-बचाव का जज़्बा, मन प्रसन्न हो गया। देश को हर मोर्चे पर इसी जज़्बे की ज़रूरत है। हमारा वोट तय है।
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हां, राम सिंह जी प्रभावित करने वाले चरित्र लगे मुझे।
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सिचाई के लिये सरकार की कई बेहतर योजनाये अलमारियो मे बंद पडी है . इनमे से एक ड्रिप एरीगेशन है .जो पानी की बहुत बचत करती है और जडो में बून्द बून्द पानी पहुचाती है . पालेजो के लिये यह बहुत उपयोगी है .इसी की बूते इस्राईल ने रेगिस्तान मे भी सफ़ल खेती की है .
लेकिन लाल फ़ीता शाही हमे आधुनिक किसानी करने ही नही देती .
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सरकार अपने तरीके से किसानी नहीं करने देती?! विस्तार से बतायें।
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जब नेता जी साथ हैं तो क्या डरना…चलती रहे सिंचाई..गनीमत है डीजल से चला रहे हैं वरना एक ठो कहीं कटिया भी लगाये होते.
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शायद केरोसीन इस्तेमाल करते हों, जो सस्ता मिलता है राशन में।
और राम सिंह प्रभावित करने वाले चरित्र लगे मुझे। खोखले नहीं!
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यह इंजन काफी हल्का व संवेदनशील होता है, केरोसीन से चल तो जाएगा, लेकिन बार-बार खराब भी होगा। तब लेने के देने पड़ जाएंगे। इसीलिए इसे कोई भी केरोसीन से नहीं चलाता।
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हम तो मानते है जी !
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धन्यवाद! 🙂
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बोलें तो जुगाड़ श्रेणी में इसे भी एक ठो इग्नोबल अवार्ड दिलवा दें?
बसपा के मनोनीत सभासद जी से भेंट कराने का धन्यवाद 😉
पोस्ट में स्लाइड शो चलाने के बारे में पहले कभी नहीं सोचा. आपको भी नित नए आइडिया सूझते हैं.
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राम सिंह जी से मैं पर्याप्त प्रभावित हुआ था। उनमें बहुत आत्मविश्वास था। और वे निरर्थक तरीके से चालू आदमी नहीं लग रहे थे।
निश्चय ही उनकी मैत्री चाहूंगा मैं।
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अच्छी बात है इसका प्रयोग, किन्तु इस सवाल का उत्तर कौन देगा – यदि जनसंख्या वृद्धि इसी हिसाब से चलती रही तो आगामी पचास-सौ वर्षों में हम रहेंगे कहां और खायेंगे क्या…
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मेरे बचपन में जनसंख्या वृद्धि का इतना हल्ला था, उसके हिसाब से आज जो जन संख्या है, उससे कहीं पहले सब कुछ चरमरा चुका होना चाहिये था। वह हुआ नहीं। उत्पादन आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ा।
धरती शायद कहीं ज्यादा जन अरण्य सह सकती है, अगर व्यक्ति अंधाधुंध प्रकृति का दोहन न करे।
अब वह दोहन बहुत ज्यादा indiscriminate हो गया है। उसकी समस्या है। अत: समस्या इस दोहन की (जनसंख्या वृद्धि के साथ) ज्यादा है।
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