इलाहाबाद में सीवेज-लाइन बिछाने का काम


लोग जहां रहते हों, वहां मल विसर्जन की मुकम्मल व्यवस्था होनी चाहिये। पर यहां यूपोरियन शहर कस्बे से शहर और शहर से मेट्रो/मेगापोली में तब्दील होते जा रहे हैं और जल मल सीधा पास की नदी में सरका कर कर्तव्य की इतिश्री समझ ले रही हैं नगरपालिकायें। लोगों को भी इस में कुछ अनुचित नहीं लगता, बावजूद इसके कि वे नदियों को धर्म से जोड़ते हैं।

गंगा भी इसी तरह से गन्दा नाला बनती जा रही हैं। दिल्ली के पास यमुना इसी तरह से गन्दा नाला बनी।

लगता है कि हाईकोर्ट की लताड़ पर कुछ चेत आई है शहरी प्रशासन को। केन्द्र और राज्य सरकार की बराबर की भागीदारी से सीवेज लाइन बिछाने का काम चल रहा है जोर शोर से। इलाहाबाद में चल रहा है। सुना है बनारस और लखनऊ में भी चल रहा है। शायद अन्य शहरों में भी चल रहा हो।

इस काम के चलते कई समस्यायें सामने आ रही हैं:-

  1. पूरे शहर में खुदाई के कारण धूल-गर्दा व्याप्त है। लोगों को श्वास लेने में कठिनाई हो रही है।
  2. सड़क यातायात अव्यवस्थित हो गया है। लोग वैसे भी ट्रैफिक कानून का पालन नहीं करते। अब जब अवरोध अधिक हो रहे हैं, ट्रैफिक जाम उसके अनुपात से ज्यादा ही बढ़ रहा है।
  3. जहां सीवेज लाइन बिछ गयी है, वहां कच्ची सड़क जस की तस है। सड़क बनाने की कार्रवाई हो ही नहीं रही। कुछ महीनों में वर्षा प्रारम्भ होगी तब कीचड़ का साम्राज्य हो जायेगा सड़क पर।
  4. कई अपेक्षाकृत कम रसूख वाले इलाके, जहां जल-मल की गन्दगी सामान्य से ज्यादा है, वे सीवेज लाइन क्रांति से अछूते ही रह रहे हैं। उदाहरण के लिये मेरा इलाका शिवकुटी जहां मात्र दस पन्द्रह प्रतिशत घरों में सेप्टिक टैंक होंगे और शेष अपना मल सीधे गंगा में ठेलते हैं – में कोई सीवेज लाइन नहीं बन रही।
  5. मेरे जैसे व्यक्ति, जिसे लगभग पौने दो घण्टे कम्यूटिंग में लगाने पड़ते हैं रोज; को लगभग आधा घण्टा और समय बढ़ाना पड़ रहा है इस काम में – ट्रैफिक जाम और लम्बा रास्ता चयन करने के कारण।

अच्छा लग रहा है कि अजगरी नगर पालिकायें कुछ सक्रिय तो हुई हैं। फिर भी, अगर ठीक से भी काम हुआ, तो भी चार-पांच साल लगेंगे इस प्रॉजेक्ट को पूरा होने में। तब तक शहर वाले झेलेंगे अव्यवस्था। पर उसके बाद की सफाई से शायद शहर की दशा कुछ सुधरे और गंगा की भी! या शायद न भी सुधरे। पांच साल की अवधि गुड़-गोबर करने के लिये पर्याप्त होती है।

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[सभी चित्र घर और दफ्तर की यात्रा में चलते वाहन से मोबाइल फोन द्वारा लिये गये हैं]

भयंकर शंका बड़ा भारी खर्च हो रहा है सीवेज लाइन बिछाने में। पर जिस गुणवत्ता की नगरपालिकायें हैं, उनसे लगता है कि अन-ट्रीटेड जल-मल इन सीवेज लाइनों से सीधे गंगा में जायेगा। अगर टीटमेण्ट प्लॉण्ट लगे भी तो कुछ सालों में काम करना बन्द कर देंगे। तब आज की अपेक्षा कहीं ज्यादा जहरीली गन्दगी पंहुचेगी गंगा नदी में।

इसकी बजाय हर घर में (या घरों के समूह में) अगर सेप्टिक टैंक हो तो यह समस्या सरलता से हल हो सकती है। तब मल डिस्पोजल भी नहीं करना पड़ेगा और कुछ सालों बाद खाद भी बन जाया करेगी।

मेरे घर में दो सेप्टिक टैंक थे। अभी हमने एक छोटे सेप्टिक टैंक की जगह बड़ा दो चेम्बर वाला सेप्टिक टैंक बनवाया है। हमें तो अपने घर के लिये सीवेज लाइन की दरकार है ही नहीं!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

32 thoughts on “इलाहाबाद में सीवेज-लाइन बिछाने का काम

  1. गनीमत है ४-५ सालो में तैयार हो जाये ..हमारे यहाँ तो ४ सालो से एक पूरी मेंन सड़क को ही ब्लाक कर दिए है..अब कोलकाता जैसे सहर का ये हाल है तो ..बाकी का अनुमान तो …… :)

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    1. पांच साल का अनुमान तो जल निगम के एक बडे अधिकारी ने ऑफ द रिकॉर्ड बताया था। ऑन रिकार्ड शायद तीन साल! :)

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  2. सिद्धार्थ जोशी की राय से सहमत।
    इसे प्रसव पीडा समझा जाए।

    बेंगेळूरु में भी हम इस पीडा को सहन कर रहे हैं।
    सीवेज लाइन तो पहले से ही है, पर आजकल मेट्रो रेल का काम जोरों से चल रहा है।
    हम तो शहर के द्क्षिण छोर पर रहते हैं और हमें मेट्रो रेल की सुविधा के लिए कम से कम तीन साल और इन्तज़ार करना होगा।

    शुक्र है की कावेरी का पानी प्रदूषित नहीं है।
    पर मात्रा कम है और बारिश पर निर्भर है।
    हम रोज उसी नदी का पानी पी रहे हैं।

    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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    1. शायद कम्य़ूट न करना हो काम पर जाने-आने के लिये तो इन अवरोधों को झेलना ज्यादा कठिन न हो।
      यही हाल रहा तो मुझे इनहेलर न लेना पड़े सांस लेने की समस्या से जूझने को! :(

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      1. इस मामले में हम भाग्यशाली है।
        कुछ समय के लिए अपने ही धर में अपना कार्यालय चलाता रहा।
        “कम्यूटिंग” दूसरी मंजिल से ग्रौन्ड फ़्लोर तक ही था।
        आजकल ग्रौन्ड फ़्लोर भी कार्यालय बन गया है।
        हम ४ किलोमीटर दूर एक अपार्टमेंट में रहने लगे हैं
        बारह मिनट लगते हैं पहुँचने में मेरी इलेक्ट्रिक कार रेवा में।
        कब तक यह चलता रहेगा, कह नहीं सकता
        नई कंपनी २२ किलोमीटर दूर एक नई इमारत का निर्माण में व्यस्त है।
        एक दिन हम सब को वहीं जाना पडेगा।
        कंपनी को जल्दी है, उसे पूरा करने के लिए, हमें कोई जल्दी नहीं!

        शुभकामनाएं
        जी विश्वनाथ

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  3. सीवेज का डिस्पोजल ही सबसे बड़ी समस्या है, फिर वही नदी-तालाब इसका शिकार बनते हैं.. ऊपर से औद्योगिक कचरा… टीबी पर एड़स..

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    1. लोग भी जागरूक नहीं हैं। अत: दबाव भी नहीं बना पाते इम्प्लीमेण्टिंग एजेंसी पर!

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  4. पहले सेप्टिक टैंक वाली ही व्यवस्था थी, बहुत स्थानों पर। आत्मनिर्भर व्यवस्थायें कितना भार बचा लेती हैं सरकारों का?

    जब जागें तभी सबेरा, चलिये धूल भरा ही सही।

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  5. ये आधुनिकता के साइड इफ़ेक्ट हैं क्या? लगता है सड़क पर गढ्ढे नहीं हैं बल्कि गढ्ढे में सड़क है। ये भी निपटेगा। :)

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  6. हमारे यहां टाउनप्लानिंग की संस्कृति नहीं है. इसलिए लोग मज़बूरी में जहां समझ आता है, ज़मीन लेकर बस जाते हैं. फिर एक दिन कोर्ट-कचेहरियों से लतियाए जाने के बाद सरकारी विभाग खीस निपोरते हुए, दूसरों के कूबड़ सीधा करने की मुहिम पर निकलते हैं… पता नहीं कब तक चलेगा ये

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    1. पता नहीं कचहरी के लतियाने पर बड़े प्रॉजेक्ट्स और उनमें बड़े कट्स का जुगाड़ न बन जाता हो!
      काम तो जैसे होना है, तैसे होना है!

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  7. सीवेज वर्सेस सेप्टिक टैंक- इस पर तकनिकी जानकारी नहीं हैं..मगर जो परेशानियाँ अभी शहर झेल रहा है वो तो विकास मार्ग पर अग्रसर होते सभी को झेलना होगा…मंजिल तो खैर जब और जैसी आयेगी..कौन जाने!!…रास्ता तो यही बताया गया है.

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    1. सेप्टिक टैंक शायद छोटे स्तर पर ठीक है। पर बड़े स्तर के सीवेज लाइन के लिये बड़े स्तर की प्रतिबद्धता भी चाहिये। वह दीखती नहीं – न लोगों में न म्यूनिसीपालिटी में।

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  8. जैसा कि सिद्धार्थ जी ने बताया राजस्थान इस स्थिति से गुजर चुका …मगर अब व्यवस्था काफी संतुलित है !

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  9. जहां तक शहर में हुई खुदाई और अव्‍यवस्‍था की बात है मैं इसे प्रसव पीड़ा की तरह देखता हूं। बीकानेर में पिछले पांच छह सालों से पूरे शहर की सीवेज लाइन का काम चल रहा था। राजस्‍थान अरबन इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर डवलपमेंट प्रोजेक्‍ट के तहत। इस काम ने पूरे शहर को खोदकर रख दिया। चुनावों से ऐन पहले वसुंधरा सरकार ने 175 करोड़ रुपए लगाकर शहर की सड़कें दुरुस्‍त करा दी थी 2008 में। इसके बाद स्थिति में व्‍यापक सुधार हुआ है।

    रही बात बाद में इस सिस्‍टम के फेल होने की तो उसके उपाय बाद में करने के बारे में सोचा जाएगा। वैसे अभी भी आप किसी से सूचना के अधिकार के तहत बीस साल बाद की प्‍लानिंग और उससे सम्‍बन्धित दस्‍तावेज नगर पालिका या निगम और यूआईटी से निकलवा सकते हैं। इससे जो जनहित याचिका दायर होगी, उससे आपके शहर की आगामी योजना में सुधार हो सकता है। इस प्रक्रिया को पोस्‍ट ऑपरेटिव पीड़ा कह सकते हैं :)

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    1. बड़ा रोचक होगा जानजा कि बीकानेर में ट्रीट किये गये (या अन-ट्रीटेट ?) जल की निकासी का क्या तरीका है। यहां तो सब को नदी दीखती है सॉफ्ट टार्गेट के रूप में। और खामियाजा है प्रदूषित पर्यावरण! :(

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      1. जैसा आपको पता है कि हम रेगिस्‍तान के बीचों बीच हैं। ऐसे में आरयूआईडीपी को शहर से बाहर ऐसी खुली जगह मिल गई जहां पर गंदा पानी छोड़ा जा सकता है। वहां ट्रीटमेंट प्‍लांट लगाए गए हैं। वहीं सब्जियों की बाडि़यां भी लग गई हैं। अब कुछ लोग इन ट्रीटमेंट प्‍लांट से निकल रहे गंदे पानी के उपयोग पर लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।

        जल्‍द ही इस पानी के बेहतर उपयोग का रास्‍ता भी निकल आएगा।

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        1. यही अंतर है – आपके यहां जल की कीमत है और यहां जल का अपव्यय।
          धन्यवाद सिद्धार्थ जी, टिप्पणी के माध्यम से जानकारी संवर्धित करने के लिये।

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