सप्तसिन्धु के आर्यों के पास जीवन का आनन्द लेने के लिये समय की कमी नहीं थी। … वह कामना करते थे –
कल्याण हो हमारे घोड़ों, भेड़ों, बकरियों, नर-नारियों और गायों का। (ऋक 1/45/6)
इन्ही अपने पशुओं को ले वह चराते थे। राजा और उनमें इतना ही अंतर था कि जहां साधारण आर्य परिवार में पशुओं की संख्या कुछ सौ होती थी, वहां राजाओं के पास हजारों हजार होती थी।
सप्तसिन्धु (पंजाब) के आर्य तो अब वैसे नहीं रहे। पर यहां मेरे घर के पास गांगेय निषाद हैं। उनके कर्म क्षेत्र में मैं विचरता हूं सवेरे। और मुझे यह मानना चाहिये कि उनके जीवन में आनन्द लेने के लिये समय की कमी न होगी। गंगा जीवन यापन के सरल व विविध साधन देती हैं इनको।
उस बालू में गंगातट पर बने खेत में पगडण्डी है। खेत में कोई नहीं है, इस लिये मैं ट्रेस-पासिंग कर लेता हूं। बीचों बीच है मड़ई। उसके अन्दर कुछ सामान है – एक गिलास, पानी भरा मिट्टी का पात्र, चप्पल और सोने के लिये टाट का बिछौना। पास में है एक चूल्हा, ईंट जमा कर बनाया हुआ। कुछ राख, एक अधजली लकड़ी। पीछे की तरफ पके कोंहडे के खोल – जो बीज निकाल कर छोड़ दिये गये हैं। सुरती और जर्दायुक्त सुपारी के पाउच भी बिखरे हैं। आशिकी ब्राण्ड। पाउच पर छपा है – इससे केंसर होता है। बिच्छू की आकृति बनी है। कैंसर है तो केंकड़े की आकृति बननी चाहिये! अच्छा है बिच्छू की बनी है। कौन केवट केकड़े से डरेगा!
रात में जो वहां सोया होगा, निश्चय ही खेत राखने के साथ साथ पिकनिक नुमा आनन्द भी लिया होगा उसने। बहुत कुछ वैसे जैसे सप्तसिन्धु के आर्य लेते रहे होंगे!
खेत में भ्रमण कर बहुत कुछ दीखता है। बाजार में बेचने के लिये बोया गया है – कोन्हड़ा, लौकी और नेनुआ। इसके अलावा अपने उपयोग भर के लिये इस निषाद ने प्याज, टमाटर, करेला और पुदीना भी लगा रखा है। मन प्रसन्न करने को अपने आप उग आये गेन्दे के फूल भी हैं। किनारे बह रही हैं गंगाजी। और उसपार आने जाने के लिये इस व्यक्ति ने अपनी नाव लंगर लगा रखी है। गंगा-उसपार बो रखे हैं खीरा और ककड़ी। पूरी विविधता है भोज्य पदार्थ की।
रुकिये, यही नहीं, खेत में पगडण्डी के पास मुझे मछली पकड़ने का जाल भी दीखता है। स्वस्थ शरीर के लिये हाई क्वालिटी प्रोटीन का भी नैसर्गिक इंतजाम है इस निषाद के पास। और क्या चाहिये एक व्यक्ति को?! अगर लोक संग्रह की हाही नहीं हो तो यह जीवन समस्त आनन्द दे सकता है!
आप थोड़ा और घूमें आस पास तो कछार में बनती, ले जाई जाती मदिरा के भी दर्शन हो जायेंगे। वह भी कई निषादों का प्रमुख उद्यम है। आमोद का साधन भी।
इस निषाद के पास एक नाव है। कई के पास दो भी हैं। निषादराज के पास कितनी होती होंगी जी? शायद पच्चीस, पचास। या शायद मोटरबोट होती हो!
गंगामाई अगर हिन्दू गर्व और शर्म के सहारे से स्वस्थ हो गयीं और उनका पानी स्वच्छतर होता गया तो अगले जन्म में मैं बनना चाहूंगा शिवकुटी का निषादराज! और लिखूंगा मॉडीफाइड ऋचा –
कल्याण हो हमारी कुटी, सब्जियों, सोमरस, नर-नरियों और हमारी यंत्रचलित नावों का। कृपा बनी रहे गंगा मां की और स्वच्छ जल में पुष्ट हों हमारी मछलियां; हमारे जाल में आने को आतुर!

कल्याण हो हमारी कुटी, सब्जियों, सोमरस, नर-नरियों और हमारी यंत्रचलित नावों का। कृपा बनी रहे गंगा मां की और स्वच्छ जल में पुष्ट हों हमारी मछलियां; हमारे जाल में आने को आतुर!
आं.. हा हा हा हा… पूर्ण आनन्द की अवस्था… निरन्तर.. क्या बात है…
LikeLike
पूर्ण आनन्द की अवस्था? अभी एक कमी है। इस शाकाहारी ने मछली खाना नहीं सीखा। अधेड़ हो गया पर हाथ में मछली कभी पकड़ी भी नहीं! :D
LikeLike
आह…आनंदम आनंदम !!!
बचपन में आम के बगीचे में इस तरह के मडैया में रहने का सौभाग्य मिला हुआ है,इसलिए इस सुख की परिकल्पना सहज कर सकती हूँ…
LikeLike
आम के बगीचे में इस तरह की मड़ई में गर्मी या लू का अहसास नहीं होता था – आम की छाया और फिर सरपत का इन्स्यूलेशन। यहां गंगा तट पर बालू आठ नौ बजे तपने लगती है। काम करने वाले भी अपने घर चले जाते हैं। इस तरह की मडैया का प्रयोग तो सांझ से सवेरे तक ही सम्भव है इन महीनों में।
हां, आधे अप्रेल तक यहां दिन में भी रहा जा सकता था!
LikeLike
नदी तटपर खरबूज, तरबूज और कँकड़ी भी तो पैदा होती है, जो ऊँटों पर लादकर फाफामऊ की ओर जाती है। कभी उधर भी हो आइए। प्रयाग छोड़ने के बाद मेरी आँखे तरस गयीं है वह सब देखने को।
आपकी पोस्ट से बहुत राहत मिली। रिपीटीशन जैसा कुछ भी नहीं लगता यहाँ। भगवद् भजन बार-बार कीजिए तो भी आनंद कम नहीं होता।
LikeLike
किसी केवट को तय करता हूं, जो अपनी नाव में गंगापार ले चले!
LikeLike
आनन्द की बाहों में लेटा गंगा-तट। मेरी ऋचा संभवतः कुछ ऐसी रहेगी…
आनन्द के साधनों को जुटाने में रत मूढ़ों को, आनन्द की मौलिक परिभाषा का ज्ञान हो।
LikeLike
ऋग्वैदिक काल में ऋषिगणों ने अपने आस पास को निहार ऋचायें लिखी थीं। अब वर्तमान के धिग्वैदिक(धिक्+वैदिक) काल में अगर हम पुन: निश्छल भाव से अनुभव कर ऋचायें लिखें तो शायद पुनरुत्थान हो भारत का!
LikeLike
बढि़या प्रस्तुति, स्तुति और चित्र भी. भाषा का एक प्रयोग सिगरेट के विज्ञापन पर होता था- धूम्रपान से (कैंसर के बजाय) कर्करोग होता है.
LikeLike
सिद्धार्थ मुखर्जी की पुलित्जर पुरस्कार पाई पुस्तक – द एम्परर ऑफ मैलाडीज में केंसर (कर्कट/कर्करोग/कर्कटार्बुद?) का रोचक विवरण है। मैं सोच रहा था कि प्राचीन भारत में केंसर का दस्तावेज किया विवरण है या नहीं।
बाकी, इन सिगरेट कम्पनियों की चले तो बड़ा लम्बा सा नाम लिखें केंसर का, जिससे पढ़ने वाले की कुछ समझ न आये और वह निस्पृह भाव से धौकाता रहे सिगरेट! :D
LikeLike
निषादराज तो इसई जनम में बन सकते हैं। अगले जनम तक इन्तजार काहे को करना। बकिया फोटो चकाचक हैं। रीता भाभी जी का पोस्ट लिखना एकदम्मै बन्द हो गया। उनके भी अनुभव सुनने का मन है।
LikeLike
इस जीवन में निषाद-ऑब्जर्वेशन ही लिखा बदा है। वह भी कम रोचक/ आनन्ददायक नहीं।
रीता पाण्डेय को लिखना चाहिये। आप भी कहिये। हम भी कहते हैं।
LikeLike
रीता पाण्डेय को लिखना चाहिये। आप भी कहिये। हम भी कहते हैं
हम कह ही तो रहे हैं द्वारा उचित माध्यम! :)
LikeLike
आदिम समाज के तीसरे चरण में शायद सभी इसी तरह ही प्रकृति पर निर्भर होकर धरती मां की गोद में किलकारियां भरते होंगे. सामाजिक जटिलताओं के चलते अपने स्वार्थ की पूर्ति हमने गंगा को भी गन्दा कर दिया और अपने दिलो-दिमाग को भी. धीरू जी सही कह रहे हैं कि कठिन कार्य है, लेकिन उस किसान के उल्लास का भी क्या कहना जो उसे अच्छी फसल के होने पर प्राप्त होता है…
LikeLike
फिर भी, कुछ अच्छाई मानव में यहां है – कोई खेत से चोरी करते नहीं देखा। टमाटर के पौधे कटान से कट गंगाजी में जा गिरे, पर उनका फल भी किसी ने नहीं तोड़ा। यहीं कई गावों में लोग अपनी खेती कम दूसरे का खेत उजाड़ने में ज्यादा रस लेते हैं।
आदमी की ये छोटी छोटी अच्छाइयां ही पार लगायेंगी सभ्यता को। शायद वही गंगाजी को भी स्वच्छ करें।
LikeLike
तृप्त करने वाली पोस्ट। सोचता हूँ, काश बदायूँ के मेरे गांव की नदी भी इतनी ही सरल और वातावरण इतना ही सुरक्षित होता और मैं भी अपने ऐसे ही निश्चिंत होकर वहाँ रह पाता। ब्रॉडबैंड होता तो और डाटागंज का डाटा सम्प्रेषण और भी अच्छा होता। काश ऐसा होता तो कैसा होता… काश वैसा होता तो …
आपने तो मुझे इमोशनल कर दिया …. इस क्षण तो ऐसा ही लगता है।
LikeLike
प्याज़ के फूल पहली बार देखे, धन्यवाद!
LikeLike
जिन प्याज के पौधो मे फ़ूल आ जाता है उसमे प्याज की गंठी ना के बराबर होती है
LikeLike
जी हां। मुझे घूमने के दौरान में ही तृप्त कर रही थी यह पोस्ट – उस समय यह मेरे दिमाग भर में थी।
और यह तृप्ति ही कारण है कि बारम्बार गंगा और कछार की खेती के वर्णन के रिपीटीशन के बावजूद यह सब लिखता रहता हूं।
बदायूं का वातावरण भी आर्थिक समृद्धि आने के साथ बदलेगा जरूर। अन्यथा यह इलाका भी ठगी का गढ़ रहा है। यहीं बैरगिया नाला है जहां ठग गले में रस्सी बान्ध कर पथिक को मार देते थे और सब धन लूट लेते थे।
LikeLike
बैरगिया नाला के बारे में विस्तृत पोस्ट की प्रतीक्षा है।
LikeLike
दूर के ढोल सुहावने होते है . यह फ़सल जब बीज के रूप मे लगाई जाती है उस समय बहुत ठंड होती है बहुत ही श्रम साध्य और कष्ट कर कर्म है पालेज करना .हर किसी की बात नही .
वैसे एक बात जिसका काम उसी को साजे और करे तो …… … बाजे .
मै तो अगले जन्म मे आपको निषाद राज होने से मना करुंगा यह बात उस समय ही गलत साबित हो सकती जब प्रभू आपकी नांव से गंगा पार करे
LikeLike
अभी अभी एक खेत में पानी दे रहे अधेड़ से मिल कर आ रहा हूं। उसका मोनोलॉग सुना –
मैं निश्चय ही आसान नहीं मान रहा यह सब। पर नया जीवन होगा तो नया चोला भी देंगे भगवान। और क्या पता गंगा पार भी करें मेरी मोटरबोट में! :)
LikeLike
लोक संग्रह की हाही ही तो समस्त तकलीफों की जड़ है…खैर, इनके अपने दुख और परेशानियों के आसमान होंगे. ऐसे आसमान के तले रहना आम मानव का स्वभाव है, वही उसे भाता है.
अगले जन्म के शिवकुटी के निषादराज को प्रणाम.
LikeLike
लोक संग्रह की हाही का तो यह आलम है कि मुगलिया बादशाह से ज्यादा सुख सुविधायें एक उच्च वर्गीय इंसान रखता है आजकल। कहीं जा कर यह हाही रुकेगी?!
LikeLike