बारिश का समय गया। अंतिम बार बारिश हुये लगभग दो सप्ताह होने को आया। गंगामाई पीछे हटी हैं। इस बार पीछे हटते समय खालिस रेत नहीं, बहुत सी मिट्टी ला दी है उन्होने घाट पर। लगभग 300-400 कदम जमीन जो छोड़ी है उन्होने, उसमें मिट्टी की मात्रा अधिक होने के चलते काफी दलदल है। वह सूखने में समय ले रही है और मुझ जैसे प्रात: भ्रमण करने वाले को अभी पर्याप्त स्थान नही मिल रहा चलने को।

आज देखा, उथले पानी में लगभग दो बीघा के बराबर का हिस्सा जाल से घेर लिया है मछेरों ने। आठ दस मछेरे व्यस्त थे मछली घेरने में। चटक लाल सूर्योदय हो रहा था, पर उससे उन्हे कुछ लेना देना नहीं था। अपने काम में तल्लीन थे वे। दलदल के कारण उनके बहुत पास तक नहीं जा पाया मैं। और मोबाइल का छटंकिया कैमरा उनकी गतिविधियां बारीकी से नहीं दर्ज कर पाया।
हीरालाल वहां से दलदल में वापस आते दीखे। मैने उनसे पूछा – क्या कर रहे हैं लोग?

मछरी पकड रहे हैं। यह सुनते ही पास में सवेरे की सैर करने वाले सज्जन स्वत बताने लगे – छोटी छोटी मछलिया होती हैं; चिलुआ। जितनी जगह जाल का घेरा बनाया है, उसमें करीब चार पांच क्विण्टल मछलियां आ जायेंगीं। बड़ी मन्हगी बिकती है – थोक में सत्तर अस्सी रुपये किलो। पर ये थोक नहीं बेचते। मार्केट में बैठ कर देते हैं पच्चीस रुपया पाव।
छोटी छोटी होती हैं ये। टीबी के मरीज को खिलाने से उसको बड़ा लाभ होता है।
वे सज्जन लगता है, बहुत उत्सुक थे मछली खरीदने को। वहीं से चिल्ला कर बोले – अरे एक ठो पन्नी हो तो बीस रुपये की डाल कर दे दो।
मुझे मछली-विनिमय में दिलचस्पी नहीं थी। घास खाऊ (नॉन-लहसुनप्याजेटेरियन) को मछली देखना भी असहज करता है कुछ सीमा तक। वहां से मैं सटक लिया।

घाट पर लोग नहा रहे थे। दूर रेत में लोग निपटान कर रहे थे। चटक लाल सूर्यदेव का गोला बड़ा हो कर उठता जा रहा था आसमान में। मछेरे अपने उद्यम में तल्लीन। मैं वापस लौट पड़ा। वापसी में एक जगह कई कुकुर बैठे दिखे, सारी दुनियाँदारी से अलग थलग, निस्पृह।

गंगामाई मौन भाव में चिलुआ का प्रसाद बांट रही थी भक्तों में। मुझ नास्तिक (?) के पास दृष्य का सौन्दर्य पान करने के अलावा कोई काम नहीं था वहां पर!
जय गंगामाई!


हमारे यहाँ टीबी वाली मछली दूसरी है| आप ये यूट्यूब लिंक देखे|
आपका टिवटरीय और हिन्दी ब्लागिय रूप अलग-अलग दिखता है| ब्लॉग में आप ज्यादा अपने लगते है इसलिए बज्ज को नमस्कार करने वाला हूँ|
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ये सज्जन तो विश्वकोषीय ज्ञान रखने वाले लगते हैं छत्तीसगढ़ी जलचरों पर!
बहुत अच्छा वीडियो। उनकी आवाज भर थोड़ी दबी है रिकॉर्डिंग में!
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आप बहुत हार्डकोरटेरियन मनई हैं, हम प्याज-लहसुन लिबर्टेरियन हैं।
यह चिलुआ वाली पोस्ट देखकर एक अहिन्दी प्रांतवासी मित्र जो खुद को निरामिषभोजी बताते थे, की याद आ गई। उन्हें एक बार मछली खरीदते देखा था और अगले दिन जब उनसे पूछा कि रात क्या खाया था तो बड़ी सरलता से उन्होंने बताया ’जलतोरई।’ ले गये लिबर्टी:) हमें अक्सर ’मानस’ की पंक्ति सुनाया करते थे – सकल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं।
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मछली, लहसुन, अदरक आदि के गुण बहुत सुने हैं। पर भगवान उनके बिना भी हमारा जीवन काट दे रहे हैं!
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चिलवा चेलवा चेल्हवा है चेल्हा बकैला ..गंगा की क्षुद्र मत्स्य संपदा (माईनर फिशेरी ) मगर मिलती बहुतायत से है ….
मनुष्य और मीन का एक प्रगाढ़ सम्बन्ध रहा है सदियों से ….
और उसे ही आपने देखा है …बुभुक्षित मानवता के त्राण के लिए एक मीन अवतार भगवान् बुद्ध का भी बताया जाता है !
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शायद बुद्ध और विष्णु एक ही हैं। पर मायावती जी को यह न रुचे।
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Wah!!!! Pandey ji. Humein bhi gagna kinarey pratah kaal ka bhraman karva diya. jai Ho!!
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हमें तो लग रहा है कि कुकुर सभा में भी बाढ़ के बाद की स्थिति व मछलियों के भविष्य पर एक सार्थक परिचर्चा चल रही है। Minutes of meetings तो जारी अवश्य हों।
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हमको तो गंगातट पर बिठाये दिन याद आ गए. पिछले चार वर्षो से हम और हमारे पांच छेह साथी गंगा के तट पर यायावरी करते हुए विचरण करते है जिसमे सत्संग और भिक्षव्रत्ति के साथ मस्ती में दिन कटते है.
बहुत बढ़िया वर्णन है
जय हो गंगा माई
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मेरे पास तो यह गंगातट का 3-4 वर्गकिलोमीटर का इलाका है, आपके पास तो पूरी यायावरी गंगातट की। आपके पास तो खजाना है!
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गंगा माई के किनारे दलदल, खैर जब पानी उतरेगा तो दलदल भी होगा ही, वैसे छटंकिया कैमरे से भी अच्छी तस्वीर आई है। और कुकुरों की तो फ़ोटो अच्छी आई है, कुकुर मीटिंग चल रही है।
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हां कुकुर वहां इत्मीनान से रहते हैं – मानो दफ्तर जाना ही न हो! :lol:
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कुकुर विश्राम का दृश्य पसन्द आया। सूर्यदेव दिखते तो और भी अच्छा लगता। मछली-विनिमय में तो अपनी भी कोई दिलचस्पी नहीं है। जाल में छोटी मछलियाँ पकड़ने वाले गंगाजी में मछलियों के जीवन-चक्र के साथ बड़ी छेड़छाड़ करते दिख रहे हैं। लगता है अपने बच्चों के पकड़ने के लिये कोई मछली नहीं छोड़ेंगे।
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कुकुर के अल्पसंख्यक गुट का फोटो भी लगा दिया मैने! :-)
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ये गंगा मैय्या के तट पर विचरण करते कुक्कुर गैंग की फोटू मै अपने फेसबुक वाल पे शेयर करना चाहता हू..क्या इसकी अनुमति है :-) क्रेडिट हम आपको ही देंगे :-)
वैसे अपने गाँव में भी ऐसे ही बहुत सारे गैंग है जो गंगा तट पर डुबकी लगाते और दौड़ लगाते मिल जायेंगे भोर की बेला में :-) इस तस्वीर को देख के वो सब याद आ गए…
-Arvind K. Pandey
http://indowaves.wordpress.com/
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बिल्कुल करें पांड़ेजी!
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“जय गंगामाई” तो बोल ही दिए हैं. नास्तिक (?) कहाँ रहे अब? खुद को प्रकृतिवादी कहने लगिए.
काक-गोष्ठी बढ़िया चल रही है. कुछ मछलियाँ तो ये भी पा लेते होंगे?
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इन कुकुरों को पानी में हिल कर खाद्य सामग्री पकड़ते देखा है। मछली पकड़ पाते हैं या नहीं, इसका अन्दाज नहीं!
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कुकुर-गोष्ठी की जगह गलती से काक-गोष्ठी लिखा गया :)
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टिप्पणी में हल्का मात्रा दोष, दोष नहीं, अलंकरण होता है! :-)
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