ये हैं हमारे गंगा स्नान करने वाले “सभ्य” लोग

शिवकुटी के सवर्णघाट पर नित्य 200-300 लोग पंहुचते होंगे। नहाने वाले करीब 50-75 और शेष अपने घर का कचरा डालने वाले या मात्र गंगातट की रहचह लेने वाले।

ये लोग अपेक्षकृत पढ़े लिखे तबके के हैं। श्रमिक वर्ग के नहीं हैं। निम्न मध्यम वर्ग़ से लेकर मध्य मध्यम वर्ग के होते हैं ये लोग। कुछ कारों में आने वाले भी हैं।

ये लोग जहां नहाते हैं, वहीं घर से लाया नवरात्रि पूजा का कचरा फैंक देते हैं। कुछ लोगों को वहीं पास में गमछा-धोती-लुंगी समेट कर मूत्र विसर्जन करते भी देखा है। बात करने में उनके बराबर धार्मिक और सभ्य कोई होगा नहीं।

गंगामाई के ये भक्त कितनी अश्रद्धा दिखाते हैं अपने कर्म से गंगाजी के प्रति!

आज मैने एक चिन्दियां समेटने वाले व्यक्ति को भी वहां देखा। वह उनको आग लगा कर नष्ट करने का असफल प्रयास कर रहा था। कम से कम यह व्यक्ति कुछ बेहतर करने का यत्न तो कर रहा था!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

28 thoughts on “ये हैं हमारे गंगा स्नान करने वाले “सभ्य” लोग

  1. कुछ ज्यादा ही सभ्य हैं ये स्नानार्थी। मनुस्मृति में कठोर दण्ड का प्रावधान है जलस्रोत को दूषित करने वालों के लिए।

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  2. आपकी चिंता को मात्र गंगामाई तक सीमित न मानते हुये मानव सभ्यता की धुरी रही समस्त नदियों के परिपेक्ष्य मे देख रहा हूँ। ये लिंक देखिये जरा:
    http://www.sikhiwiki.org/index.php/Baba_Balbir_Singh_Seechewal

    इंसान ठान ले तो क्या नहीं कर सकता? वैसे इन संत सींचेवाल जी के द्वारा किये जाये कार्य की जानकारी काफ़ी पहले एक मीडियामैन के ब्लॉग पर भी दी थी, इस उम्मीद से कि वे ऐसे उल्लेख के लिये मेरे मुकाबले एक बेहतर प्लेटफ़ार्म हैं। लेकिन वे और भी बड़े कार्य में व्यस्त रहते हैं, मसलन धर्मनिर्पेक्षता, हिन्दुवादी पार्टियों के असली चेहरे उजागर करना, वगैरह वगैरह।

    ’तथाकथित’ शब्द मुझे बहुत अच्छा लगता है, इसलिये आपके लिखे “सभ्य” के प्रीफ़िक्स करके पढ़ रहा हूँ:)

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    1. संत बाबा बलबीर सिंह के बाते में आपका लिंक पढ़ा। प्रेरक। धन्यवाद।
      कुछ ऐसा ही जोश हमें दो साल पहले आया था गंगा घाट की सफाई का। यह जोश लगभग चार पांच महीने चला। फिर मेरे अस्वस्थता, काम में व्यस्तता आदि के चलते वह नहीं जारी रह पाया। अब भी लोग मिलते हैं तो आग्रह करते हैं कि फिर कुछ किया जाये।
      बाबा सच्चेवाल की तरह हम सब में भाव जगने चाहियें।

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      1. सर,
        आपकी वो पोस्ट पढ़ रखी थी, तभी तो लिंक देने की हिमाकत की है। हमेशा किसी अवतार की राह देखने की बजाय यथासाध्य स्वयं कुछ करने वाले लोग ही सही प्रेरणा देते हैं।
        आपने प्रयास तो किया, लोगों को आज भी याद है और टोकते भी हैं। देखियेगा, किसी दिन कोई चुपचाप से पहल करेगा।

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    2. संजय भाई, संत सींचेवाल जी के बारे में मैंने कहीं प्रिंट मीडिया में पढा था… ध्यान नहीं आ रहा, आपके दिए लिंक पर जाकर देखता हूँ.

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      1. दीपक,
        ’काली बेई’ बहुत मशहूर नदी नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक महत्व जरूर है इसका। जहाँ तक मुझे ध्यान है, सिखों के प्रथम गुरू श्री गुरूनानक देवजी के साथ इसका संबंध रहा है। प्रदूषण और हम लोगों की लापरवाही के चलते यह नदी एक नाले के रूप में तबदील हो गई थी। संत सींचेवाल जी ने अपने अनुयायियों का आहवान किया और इस नदी की सफ़ाई को कार सेवा का दर्जा दिया। संगतें उनके साथ जी जान से जुट गईं और कायापलट कर दिखाया।
        रुचि दिखाई, धन्यवाद।

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  3. चिंदियाँ बटोरने वाले में मैंने अपने आपको पाया और लगा मेरी तस्वीर ऐसी ही बनेगी. आभार.

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  4. धर्म से अंधविश्वास और रुढियों को दूर करना ही होगा देश के पर्यावरण के लिए भी , सार्थक चिंतन!

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  5. नदी, पवित्र जलधारा है, लेकिन वह अब लगभग पूरे तौर पर (भूगोल की भाषा वाली नहीं, सचमुच की) ड्रेनेज सिस्‍टम बन गई हैं.

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    1. हां, और दुखद यह है कि यह गंगाजी के साथ भी है – गंगामाई के साथ। 😦

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  6. हजारों लाखों पौंड खर्च करके ब्रिटेन में रहनेवाले भारतीयों ने अपने सम्बन्धियों की अस्थियों को थेम्स में प्रवाहित करने का अधिकार प्राप्त कर लिया लेकिन इसपर वहां के लोगों ने बड़ी हायतौबा मचाई.
    मुकदमेबाजी पर प्रति-व्यक्ति कुछ सौ पौंड खर्च करने से उनके अस्थि विसर्जन के लिए भारत यात्रा पर हजारों पौंड तो बच ही गए.
    लेकिन इस लिटिगेशन से यह जानकारी मिली कि वहां हर कोई अपनी मनमानी नहीं कर सकता. कोई दूरदराज में चोरी छुपे गन्दगी फैलाए या अपना घर गन्दा रखे पर सार्वजनिक स्थलों पर लोग अनुशासित रहते हैं.

    काजल कुमार जी का कमेन्ट बेहतरीन है. मुझे फिर मेरे एक परिचित याद आ रहे हैं जिन्होंने बेखटके हमारे सोफा के बाजू में अपनी नाक साफ़ करने की गुस्ताखी कर दी थी और बदले में चार बातें सुनकर नाराज़ हो गए थे.
    एक और परिचित संतरा खाते समय अधचूसी फांकें पच्च-पच्च जमीन पर फेंकते गए जबकि उनके सामने ही मैं संतरे के छिलकों की कटोरी बनाकर उसमें जूठन-बीजे आदि डालता रहा.
    अब ऐसी व्यक्तियों को कुछ समझाइश देने पर वे इसे अपना अपमान मानकर अंड-बंड बकने लगते हैं. बड़ी मुश्किल है.

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    1. भ्रष्टाचार के विषय में बहुत हायतोबा है – और (सही में) लग रहा है कि अति हो गई है भ्रष्ट आचरण में। वही दशा स्वच्छता के प्रति उपेक्षा और दुराग्रह भरे आचरण की भी है। इस क्षेत्र में भी आत्मानुशासन विलुप्तप्राय है!

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