जब मैं मानव में गुप्त ऊर्जा का उदाहरण सोचता हूं, तो मुझे आदिशंकर की याद आती है। वे आये इस धरा पर। जर्जर हिन्दुत्व को पुन: स्थापित किया। पूरे भारतवर्ष पर अपनी छाप छोड़ी और बहुत जल्दी अपना काम कर चले भी गये।
क्या गुण होते हैं जो एक व्यक्ति को आदिशंकर बना देते हैं और हम जैसे व्यक्ति एक के बाद दूसरी सेल्फ हेल्प किताबों में सूत्र छानता रहते हैं! जब कुछ समझ नहीं आता तो मैं पुनर्जन्म के सिद्धांत में अपनी आस्था जताता हूं। आखिर शंकर पूर्व जन्म की मेधा और पुण्य के कारण ही प्रारम्भ से ही इतने विलक्षण रहे होंगे। अगर मैं जन्म जन्मांतर में अपना आत्मिक विकास करता गया तो अंतत आदिशंकर सा बन जाऊंगा – जो स्वयम को भी मोक्ष दिला पायेगा और समाज को भी एक नये स्तर पर ले जा पायेगा।
पर वह जन्म आने तक लम्बी तैयारी करनी होगी! अपने हिसाब से सत्व का अर्जन करने के लिये या तो गुरु का निर्देश चाहिये, या पुस्तकों से ज्ञानार्जन। गुउ गुरु के अभाव में बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैँ मैने और आने वाले समय में कई अन्य पढ़ूंगा भी।
एक वैसी पुस्तक है श्री देबीप्रसाद पोद्दार जी की – यू आर द पॉवर हाउस। मैं श्री पोद्दार से ट्विटर पर मिला और उनकी पुस्तक के बारे में भी वहीं पता चला।
पोद्दार जी इस प्रिमाइस (premise) से प्रारम्भ करते हैं कि हम अपनी क्षमताओं का दस प्रतिशत से अधिक प्रयोग नहीं करते। बहुत समय से सुनता आया हूं यह और यह मुझे सही भी प्रतीत होता है। अगर आप अप्रतिम लोगों का जीवन देखें तो पता चलेगा कि मानव की क्षमताओं की सम्भावनायें अनंत हैं। पर हम कैसे बाकी की नब्बे प्रतिशत क्षमता को जागृत करें?!
पोद्दार जी कहते हैं कि अगर वे – अर्थात गांधी, मार्टिन लूथर किंग, आइंस्टीन, न्यूटन आदि वह कर सकते हैं तो हम भी कर सकते हैं। जीवन ईश्वर की बहुत बड़ी नियामत है और उसे व्यर्थ नहीं करना है!
अपनी पुस्तक में पोद्दार जी ऋणात्मक और धनात्मक ऊर्जा के कई स्रोतों की बात करते हैं। और जो बात मेरी समझ में आती है, वह है ऋणात्मक घटकों का उन्मूलन और धनात्मक घटकों का संग्रह। बेंजामिन फ्रेंकलिन अपनी ऑटोबायोग्राफी में बताते हैं कि इसी तरह का तरीका प्रयोग किया था उन्होने आत्मविकास का।
आप अगर श्रीदेबीप्रसाद पोद्दार जी की पुस्तक/सोच से परिचय पाना चाहें तो उनकी वेब साइट http://www.urthepowerhouse.com/ पर जा सकते हैं। आप उनके ब्लॉग http://www.dppoddar.com/default.aspx सब्स्क्राइब कर सकते हैं। वहां आप को एक अढ़सठ साल के अधेड़/वृद्ध पर ऊर्जावान व्यक्ति से मुलाकात होगी और आपको महसूस होगा कि अगर ये सज्जन खुद ऐसी ऊर्जा रखते हैं तो उनके कहे में तथ्य जरूर होगा।
श्री पोद्दार सन 41 में जन्मे। कलकत्ता में टेक्समेको के कर्मचारी के रूप में नौकरी प्रारम्भ की। अपनी कर्मठता और प्रतिभा के बल पर बिरला और थापर समूह के वरिष्ठ एग्जीक्यूटिव रहे। कालांतर में उन्होने अपनी स्टॉक ब्रोकिंग फर्म – डीपी पोद्दार एण्ड को. बनाई। सन 1997 में उन्होने दिल का दौरा भी झेला और उसके बाद सन 2004 में बिजनेस से रिटायर हो कर अपनी यह पुस्तक लिखी जिसकी चर्चा इस पोस्ट में कर रहा हूं मैं। आप उनके बारे में विस्तार से इस पन्ने पर पा सकते हैं।
श्री पोद्दार अपनी पुस्तक में जो कहते हैं, वह अपील करता है, और बहुत पहचाना हुआ लगता है। भारतीय मूल्यों और संस्कृति के करीब। अत: ब्लॉग पर प्रस्तुत करने के लिये उनकी पुस्तक में सही सामग्री है।
[ब्लॉग पर वह सामग्री जिससे पाठक कुछ परिचय रखता हो और वह सामग्री उसे बौद्धिकता से आतंकित न करे, सही सामग्री होती है!]
यद्यपि मेरा ब्लॉग आत्म-विकास विषयक नहीं है, पर मैं कोशिश कर सकता हूं कि उनकी पुस्तक में उठाये गये विषयों पर उनके कहे से प्रारम्भ कर अपनी सोच से विस्तार दूं। मैं यदा कदा उनकी पुस्तक में वर्णित एक ऋणात्मक या धनात्मक घटक को ले कर पोस्टें प्रस्तुत करने की सोच रहा हूं। इसमें मेरा अपना स्वार्थ मेरे अपने आत्म-विकास के लिये अपने विचारों को कोहेसिव (cohesive) बनाने का है।
और मुझे लगता है, मैं काम की पोस्टें लिखने में सफल रहूंगा। ऑफ्टर ऑल मैं कुछ तो माद्दा रखता हूं – पोद्दार जी की अपेक्षाओं का अंश मात्र ही सही!
एक और किताब पढ़कर जीवन में उतारने की कोशिश करते हैं, परंतु अगर आप गाह्य भाषा में लिखेंगे तो हम जैसे ५-१० प्रतिशत वालों को बहुत आसानी होगी।
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तभी तो कबीर ने कहा भी है- तू ने रात गंवाई खाय के दिवस गंवाया पीय के/ हीरा जनम अमोल था कौडी बदली जाय। कोई एक बिरला ही इस कौडी को हीरा बना पाता है॥
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अधिक ऊर्जा को समाज एकोमोडेट (रादर डाइजेस्ट) नही कर पाता है और रोड़े अटकाता है| हम तो इस बढ़े हुए स्तर को कम करने के उपाय खोज रहे हैं ताकि आम आदमी का सुख भरा जीवन जी सके| शिखर का एकांत दूर हो|
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इसके मूल में शायद समाज की ईर्ष्या है। यह बहुतायत में पाया जाने वाला गुण है।
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बड़ा मुश्किल है इस तरह की बातों को निभाना, जब तक कि ये आदत का हिस्सा न हो जाएं. ……….मैं कोशिश करता हूं कि याद रखूं कि किसी की बुराई नहीं करनी है. पर निंदारस इतना स्वादिष्ट होता है कि अक्सर चटकारे के चक्कर में यह एक बात भी याद नहीं ही रहती 🙂
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बेंजामिन फ्रेंकलिन की ऑटोबायोग्राफी यहां से डाउनलोड की जा सकती है। उसमें पेज 68 के आगे वे 13 महत्वपूर्ण गुणों और उनको आदत के रूप में आत्मसात करने के अपने तरीके की बात करते हैं।
बड़ा प्रेरणास्पद लगता है वह।
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2-3 दिन के लिए बाहर जा रहा हूं. ऑटोबायोग्राफी डाउनलोड कर रहा हूं. फ़्लाइट AI-947 एक घंटा लेट बताई गई है. लगता है रास्ते में ही खूब समय मिलने वाला है 🙂 लौटने से पहले, पृष्ठ 68 के आगे ज़रूर पढ़ने का प्रयास करूंगा. जानकारी के लिए अत्यंत आभार.
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न जाने क्यूँ मैं बहुत भाग्यवादी हूँ. ये पक्का यकीन करता हूँ कि जितना किया है कभी पहले उतना ही मिलेगा. जीवन आसान प्रतीत होता है ऐसा सोच लेने पर.
आप के पोस्ट जैसे विचार पढ़ कर लगता है कि “नहीं! ऐसा बहुत कुछ है जो मैं स्वयं चाह कर के भी कर सकता हूँ”. उथल पुथल मचने के लिए आप को धन्यवाद!
आदि शंकर ने हिंदुत्व को पुनर्जीवित किया या फिर हिन्दू धर्म को? जहाँ तक मेरा ख्याल है, हिंदुत्व एक अपेक्षाकृत नयी अवधारणा है जो कि सावरकर जैसे विचारकों के दिमाग कि उपज है. और इसे हिन्दू धर्म का एक तरह का विश्लेषण मात्र कहा जा सकता है.
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जो भी नाम दिया जाये – बौद्ध धर्म के स्थान पर हिन्दुत्व या सनातन धर्म या ब्रह्मवादिन/वेदांतवादी धर्म की पुनर्स्थापना की शंकर ने।
मैं दर्शन का छात्र नहीं हूं, अत: पारिभाषिक शब्दों के फेर में नहीं जा पाता! 🙂
बाकी, कॉज-इफेक्ट और फ्री-विल दोनो ही हिदुत्व के स्तम्भ हैं। जो अर्जित किया है, तदानुसार फल मिलेगा ही। साथ ही ईश्वर ने मानव को फ्री-विल प्रदान की है जिससे वह भविष्य की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है। अंतत: मोक्ष ही ध्येय है, जो सतत यत्न से मिलना है।
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पुनर्जन्म का सिद्धान्त कर्मों के संरक्षण का सिद्धान्त है। जब कुछ भी व्यर्थ न होने का आश्वासन हो तो प्रयास रंग दिखाने लगते हैं।
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पुनर्जन्म में तो मैं भी विश्वास करता हूँ। एक तो यह कि जिन पदार्थों से हम बने हैं वे रूप बदल कर नया जन्म लेते हैं। दूसरा यह कि एक व्यक्ति के गुणसूत्र उस के जीवनसाथी के गुणसूत्रों के साथ मिल कर एक नए रूप में जन्म लेते हैं। प्रकृति में ये दोनों ही प्रकार के पुनर्जन्म हैं। पुनर्जन्म संबंधी शेष सभी विचार …. दिल को खुश रखने को ख़याल अच्छा है।
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अलबत्ता तो हम अपनी क्षमताओं को पहचानने की कोशिश ही नहीं करते और धारणा बना लेते हैं कि हममें वे क्षमताऐं हैं ही नहीं, जो हमें न्यूटन आदि के समकक्ष ले जा सकें। हम अपनी हार खुद ही स्वीकार कर लेते हैं, ऐसे में आत्मशक्ति का विकास कैसे होगा? एक सार्थक पोस्ट! आपकी आत्मविकास विषयक पोस्टों का मुझे इंतजार रहेगा।
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yes i am power house but without energy
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Looking at your presence and activity on the net, I am inclined not to believe on this comment! 🙂
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आप तो ढेर माद्दा रखते हैं जी…शुरु हो जाईये नियमित…बस जरा ’गुउ के अभाव में बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैँ’ इसे गुरु के अभाव में बहुत सी पुस्तकें पढ़ी हैँ- कर लिजिये.
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क्या बतायें लैपटॉप पुराना हो गया है और कुछ कुंजियाँ कभी कभी दगा दे जाती हैं।
ठीक कर दिया! 🙂
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