संगम, जल कौव्वे और प्रदीप कुमार निषाद की नाव

और ये कव्वे से मिलती जुलती आवाज करते उड़ रहे जल कौव्वे।

संगम क्षेत्र में जमुना गंगाजी से मिल रही थीं। इस पार हम इलाहाबाद किले के समीप थे। सामने था नैनी/अरईल का इलाका। दाईं तरफ नैनी का पुल। बस दो चार सौ कदम पर मिलन स्थल था जहां लोग स्नान कर रहे थे।

सिंचाई विभाग वालों का वीआईपी घाट था वह। मेरा सिंचाई विभाग से कोई लेना देना नहीं था। अपनी पत्नी जी के साथ वहां यूं ही टहल रहा था।

वीआईपीयत उत्तरोत्तर अपना ग्लिटर खोती गई है मेरे लिये। अन्यथा यहीं इसी जगह मुझे एक दशक पहले आना होता तो एक दो इंस्पेक्टर लोग पहले से भेज कर जगह, नाव, मन्दिर का पुजारी आदि सेट करने के बाद आया होता, आम जनता से पर्याप्त सेनीटाइज्ड तरीके से। उस वीआईपीयत की सीमायें और खोखलापन समझने के बाद उसका चार्म जाता रहा। :sad: 

एक दो नाव वाले पूछ गये – नाव में चलेंगे संगम तक? पत्नीजी के पूछने पर कि कितना लेंगें, उन्होने अपना रेट नहीं बताया। शायद तोल रहे हों कि कितने के आसामी हैं ये झल्ले से लगते लोग। पर एक बोला आइये वाजिब रेट 200 रुपये में ले चलता हूं, अगर आप दो ही लोगों को जाना है नाव पर। पत्नीजी के बहुत ऑब्जेक्शन के बावजूद भी मैने हां कर दी।

उसने नाम बताया प्रदीप कुमार निषाद। यहीं अरईल का रहने वाला है। एक से दूसरी में कूद कर उसकी नाव में पंहुचे हम। बिना समय गंवाये प्रदीप ने पतवार संभाल ली और नाव को मोड़ कर धारा में ले आया।

बहुत से पक्षी संगम की धारा में थे। नावों और आदमियों से डर नहीं रहे थे। लोग उन्हे दाना दे रहे थे। पास से गुजरती नाव के नाविक ने पूछा – दाने का पैकेट लेंगे? पक्षियों को देने को। दस रुपये में तीन। मैने मना कर दिया। दाना खिलाऊंगा या दृष्य देखूंगा।

प्रदीप निषाद ने बताया कि ये जल कौव्वे हैं। साइबेरिया के पक्षी। सर्दी खत्म होने के पहले ही उड़ जायेंगे काशमीर।

कश्मीर का नाम सुनते ही झुरझुरी हो आयी। आजकल बशरत पीर की किताब कर्फ्यूड नाइट्स पढ़ रहा हूं। भगवान बचाये रखें इन जल कौव्वों को आतंकवादियों से। उन्हे पता चले कि संगम से हो कर आ रहे हैं तो इन सब को हिंदू मान कर मार डालेंगे! :lol:

प्रदीप कुमार निषाद बहुत ज्यादा बात नहीं कर रहा था। पूछने पर बता रहा था। सामने का घाट अरईल का है। माघ मेला के समय में वहां शव दाह का काम नहीं होता। वह सोमेश्वर घाट की तरफ होने लगता है। यह नाव बारहों महीने चलती है। बारिश में भी। तब इसपर अच्छी तिरपाल लगा लेते हैं। वह यही काम करता है संगम पर। पर्यटक/तीर्थ यात्री लोगों को घुमाने का काम। सामान्यत: नाव में दस लोग होते हैं। लोग संगम पर स्नान करते हैं। उसने हमें हिदायत दी कि हम नहीं नहा रहे तो कम से कम नदी का जल तो अपने ऊपर छिड़क लें।

मैने अपने ऊपर जल छिड़का, पत्नीजी पर और प्रदीप निषाद पर भी। ऐसे समय कोई मंत्र याद नहीं आया, अन्यथा ज्यादा आस्तिक कर्मकाण्ड हो जाता वह!

धूप छांव का मौसम था। आसमान में हलके बादल थे। लगभग चालीस पचास नावें चल रही थीं संगम क्षेत्र में। ज्यादातर नावों पर काफी लोग थे – अपने अपने गोल के साथ लोग। प्रसन्न दीखते लोग। प्रसन्नता संगम पर घेलुआ में मुफ्त बंट रही थी।

दृष्य इतना मनोरम था कि मुझे अपने पास अच्छा कैमरा न होने और अच्छी फोटो खींच पाने की क्षमता न होने का विषाद अटैक करने लगा। यह अटैक बहुधा होता है और मेरी पत्नीजी इसको अहमियत नहीं देतीं। सही भी है, अहमियत देने का मतलब है पैसा खर्च करना कैमरा खरीदने पर!

करीब आधा घण्टा नाव पर संगम में घूम हम लौटे। प्रदीप अपेक्षा कर रहा था कि मैं बकसीस दूंगा। पर मैने उसे नियत 200 रुपये ही दिये। वह संतुष्ट दिखा।

संगम क्षेत्र का आनन्द देख लगा कि फिर चला जाये वहां!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

24 thoughts on “संगम, जल कौव्वे और प्रदीप कुमार निषाद की नाव

  1. बांट तो आप भी उसी हिसाब से रहे हैं..संगम वासी जो ठहरे. :)

    उस वीआईपीयत की सीमायें और खोखलापन समझने के बाद उसका चार्म जाता रहा।- सही ही है…काश!! सबकी मानसिक हलचल ऐसी हो जाये तो दृष्य बदले.

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  2. जहॉं हर कोई वीआईपी बनने को हाथ पैर रहा हो वहॉं वीआईपीयत से मुक्‍त होना ‘विचित्र किन्‍तु सत्‍य’ जैसा लगता है। आपने यह दुरुह काम साध लिया। आप प्रणम्‍य हैं। आपके साथी अधिकारियों को यह रहस्‍य मालूम मत होने दीजिएगा वर्ना वे आफिसर क्‍लब में आपका प्रवेश निषिध्‍द कर देंगे।

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  3. “ऐसे समय कोई मंत्र याद नहीं आया, अन्यथा ज्यादा आस्तिक कर्मकाण्ड हो जाता वह!”
    ओम और अहा और स्वाहा के मध्य मे कुछ भी जोड़ दीजीये, मत्रं हो जाता! संस्कृत आती भी किसे है ? पुरोहितो तक को तो मालूम नही होता कि वे जो मंत्र पढ़ रहे है, उसका अर्थ क्या है! उन्हे मालूम हो भी श्रोताओ को पता नही होता।

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  4. आप की वीआईपीयत पुश्तैनी न रही होगी। इसलिए जल्दी पल्ला झाड़ इंसान हो गए। वरना वीआईपीयत होती ही इसलिए है कि इंसान चराए जाएँ। जो चरवाहा या तो चराए जाने वालों की पीठ पर बैठे या फिर हंटर लिए घोड़े पर। वह इंसान कैसे हो सकता है।

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  5. आपके लेखन में चित्रात्मकता है. कई बार आपके चित्र भी छोटी पोस्ट को ‘आराम से पढ़ने लायक’ बना देते हैं. मुझे स्लाइड शो बहुत अच्छा लगता है.
    एक डिजिटल कैमरा ले ही लीजिये. मैंने हाल में ही एक DSLR खरीदा है. आजकल उसमें ही लगे रहते हैं इसलिए नेट पर सक्रियता कम हो चली है.

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  6. चलिए आपके साथ थोड़ा सा वी आई पीनत्व जैसा तत्व थोड़ी देर को हमारे अंदर भी आ गया वी आई पी घाट को देखकर. वैसे माननीयों का बस/ट्रक/कार कुछ नहीं चलता वर्ना ऊपर वाले के यहाँ (मंदिर नहीं, वहाँ तो जुगाड़ है) भी वी आई पी एंट्री करा लें,… :)

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  7. एक निषाद ने रघुकुल दम्पत्ति को पार लगाया था और दूसरा पाण्डेय दम्पत्ति को :)

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