मुझे अपने जूनियर/सीनियर/प्रशासनिक ग्रेड के प्रारम्भिक वर्ष याद आते हैं। अपनी जोन के महाप्रबंधक का दौरा बहुत सनसनी पैदा करता था। कई दिनों की तैयारी होती थी। पचास-सौ पेज का एक ब्रोशर बनता था। जब ग्राफ/पावरप्वाइण्ट बनाने की सहूलियत नहीं थी, तो उसमें ढेरों आंकड़ों की टेबल्स होती थीं। कालान्तर में एक्सेल/ग्राफ/पावरप्वाइण्ट आदि की उपलब्धता से वे काफी आकर्षक बनने लगे। महाप्रबंधक के आगमन के लिये किसी भी मण्डल पर मिनट-मिनट के प्रोग्राम की प्लानिंग होती थी। कहां कहां जायेंगे महाप्रबन्धक; यूनियनें और प्रेस कैसे और कब मिलेंगे उनसे। अगर शहर के सांसद/विधायकों से मिलाना हुआ तो किस जगह मिलाया जायेगा उन्हे। अधिकारियों को वे कब एड्रेस करेंगे। लंच-डिनर… यह सब नियत किया जाता था और इस काम को बहुत बारीकी के साथ सोचा/कार्यान्वित किया जाता था।
अब समय बड़ी तेजी से बदला है। एक ही दशक में बहुत बदला है।
मैं पढ़ा करता हूं कि फलानी देश के प्रधानमन्त्री अपनी साइकल पर सवारी कर दफ्तर आते हैं या फलाने देश के राष्टपति बस में सफर करते पाये गये। इन्फोसिस के नन्दन निलेकनी की साइकल सवारी की तस्वीर बहुधा दिखी है। रेलवे अभी वैसी तो नहीं हुई, पर जैसे हालात बदल रहे हैं, कुछ ही सालों में वैसा हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा।
कल सवेरे हमारे उत्तर-मध्य रेलवे के महाप्रबन्धक श्री आलोक जौहरी जी ने मुझे फोन पर कहा कि चलो, इलाहाबाद रेल मण्डल का एक चक्कर लगा लिया जाये। दो दिन पहले वहां सिगनलिंग की केबल चुराने की घटना से ट्रेनों के परिचालन में बहुत व्यवधान आया था। उसके बाद की दशा और बढ़ते यातायात की जरूरतों का जायजा लेना चाहते थे श्री जौहरी।
मैं उनके कमरे में पंहुचा और हम बिना किसी तामझाम के उनकी कार में इलाहाबाद मण्डल के लिये निकले। मण्डल कार्यालय पर इलाहाबाद के मण्डल रेल प्रबन्धक ने स्वागत किया – एक सादा स्वागत। पुराना जमाना होता तो मार अफरातफरी होती। आधा दर्जन बुके होते और दो तीन फोटोग्राफर कैमरे क्लिक कर रहे होते। यहां मण्डल रेल प्रबंधक ने एक (अपेक्षाकृत छोटा) बुके दिया। फोटोग्राफर तो कोई था नहीं! 😦
श्री जौहरी ने मण्डल के नियंत्रण कक्ष में लगभग सवा घण्टे बैठक की। बैठक में भी कोई औपचारिक एड्रेस नहीं – परस्पर वार्तालाप था। मैं देख रहा था कि कनिष्ठ प्रशासनिक ग्रेड के अधिकारी भी बहुत सरलता और तनावहीनता के साथ अपने विचार रख रहे थे। … यह माहौल दस साल पहले नहीं हुआ करता था …
और बैठक खत्म होने के बाद हम सब अपने अपने रास्ते (लंच का समय हो रहा था तो अपने अपने घर या दफ्तर में अपना टिफन बॉक्स खोलने) चले गये।
पता नहीं सरकार या कॉर्पोरेट सेक्टर के शीर्षस्थ अधिकारी के साथ बाकी/फील्ड अधिकारियों का इण्टरेक्शन किस हॉर्मोनी के साथ हुआ करता था और अब कैसे होता है, पर रेलवे में तो बहुत अधिक परिवर्तन आया है। सम्प्रेषण के लिये फोन और मोबाइल सेवा का बाहुल्य; सप्ताह पखवाड़े में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा “मुलाकात” ने जूनियर और सीनियर के परस्पर अजनबीपन को लगभग समाप्त कर दिया है। लोग अब बहुत सहज हैं। हाइरार्की, संस्थान के ऑर्गेनाइजेशन-चार्ट में है, पर व्यवहार में धूमिल पड़ रही है।
लगता है कि कुछ ही सालों में सरकारी सेवाओं में भी शीर्षस्थ सीईओ के अपने ट्विटर और फेसबुक अकाउण्ट सक्रिय होंगे। उनकी सामाजिकता सबको पता चला करेगी। उनका व्यक्तित्व खुला होगा। उनके क्लाउट स्कोर इनहाउस सेलीब्रिटी की माफिक होंगे और वे अपनी सामाजिक-वर्चुअल छवि सहजता से बनाये-संवारेंगे।
जब मैने रेलवे ज्वाइन की थी, तब, अधिकारी डेमी-गॉड्स हुआ करते थे, अब वे उसके उलट, कॉमनर्स के नजदीक हो रहे हैं। इस बदलाव का मेनेजेरियल और सोशियोलॉजिकल – दोनो प्रकार से अध्ययन किया जा सकता है!
महाप्रबंधकगण ओपन-अप हो रहे हैं। और बहुत तेजी से।

कोई फोटोग्राफर नहीं था तो मैने अपने मोबाइल से लियी चित्र।
बदलाव सुखद ही लगता है लेकिन इस बदलाव को हम झेल तो लेंगे न?
बैंकों में भी कोई-कोई वरिष्ठ अधिकारी सामान्य व्यवहार करता दिखे तो ’ये तो कहीं से भी एक्ज़ीक्यूटिव लगता ही नहीं’ ऐसे जुमले अपने कुलीग्स के मुँह से कई बार सुने हैं। मुझे तो अब भी यही लगता है कि हम लोगों को आदत ही दबने या दबाने की है।
LikeLike
बहुत श्रेष्ठ है यह लेख. यह बदलाव किसी भी विभाग में बहुत सकारात्मकता प्रवाहित करता है.
बस बात ये है के यह अच्छी आदत स्वयं के विवेक से न आ कर पश्चिमी देशों के कल्चर का कॉपी-पेस्ट(अनुसरण) करने से आई है. हालाँकि अच्छी बात चाहे किसी भी तरीके या माध्यम से प्राप्त की जाये वह अच्छा ही है. परन्तु यह कॉपी-पेस्ट कई विनाशकारी बातों को भी बुलावा देता है. जैसे आज़ादी के बाद स्वयं के विवेक से व्यवस्था बनाने की जगह भारतीयों ने अंग्रेजो की दी हुई व्यवस्था को कॉपी-पेस्ट कर लिया जिस से दफ्तरों में बैठे अधिकारी खुद को ऊंचा
और आम आदमी को नीचा या सेवक समझने लगे थे जो संस्कृति अभी तक ज़्यादातर सरकारी व्यवस्था में नज़र आती है. फर्क बस ये है के अब ग्लोबलाईज़ेशन की बदौलत पश्चिमी एक्स्पोसर के चलते हमने अंग्रेजो की जगह यू एस ए एवं अन्य देशों का कॉपी-पेस्ट करना शुरू किया है. पहले ये अंधानुसरण कारपोरेट सेक्टर में आता है फिर वहाँ की देखा देखि सरकारी दफ्तरों में. हालाँकि अभी तक तो हम अच्छी चीजों का ही अनुसरण कर रहे हैं (जैसा की आपने यहाँ उदहारण प्रस्तुत किया है ) परन्तु स्वयं के निर्माणकारी विवेक की अनुपस्थिति भी है.
कुछ भी हो यहाँ जो आपने दृश्य उल्लेखित किया है यह बहुत सकारात्मक और अच्छा है. इतनी लंबी टिपण्णी कर दी 🙂 हालाँकि इस वषय पर काफी लंबा लिखा जा सकता है परन्तु आप सभी आदरणीयो के बीच मुझ अल्पज्ञानी को ज्यादा नहीं बोलना चाहिये 🙂 सो अब बस………… ये तो आपका नियमित पाठक होने के कारण आपके लेख का मेरा रुचिपूर्ण विश्लेषण था. आखिर नियमित पठन से लिखित सामग्री से स्नेह होना सामान्य बात है और जहाँ स्नेह होता है वहाँ थोडा बहुत विश्लेषण भी हो जाता है 🙂
LikeLike
बहुत बहुत धन्यवाद इस श्रमसाध्य टिप्पणी के लिये विपुल जी। मेरे ख्याल से लोग फैशन के कारण नहीं आवश्यकता के कारण ओपन-अप हो रहे हैं। आखिर रेलवे वह मोनोपॉली तो रही नहीं। 🙂
LikeLike