बोबिल्ली से मद्रास का सफर

दिनांक – पच्चीस अक्तूबर, २०१२

इस पोस्ट का शीर्षक लिखते समय एक बारगी लगा कि नाम मद्रास नहीं चेन्नै होना चाहिये। पर मद्रास से स्मृतियां जुड़ी हैं। शायद सन ७९ में एक बार मद्रास आया था, तब वह मद्रास था। आकाशवाणी पर तमिळ उद्घोषिका का उच्चारण सुनाई देता था – चेन्नै पतनम। उस समय लगता था कि वह क्या नाम बोल रही है! कालान्तर में नाम चेन्नै हो गया। अभी एक चेन्नै पर पुस्तक पढ़ी – बिश्वनाथ घोष की “तमरिण्ड सिटी”। उसमें है कि विजयनगरम राज्य के स्थानीय प्रतिनिधि दमर्ला वेंकप्पा के पिता चेन्नप्पा के नाम पर यह नाम तमिळ लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता था। दमर्ला वेंकप्पा ने अंग्रेजों को फोर्ट सेण्ट जॉर्ज के निर्माण के लिये जगह दी थी और उसकी ख्वाहिश थी कि जगह को उसके पिता चेन्नप्पा के नाम पर जाना जाये। पर मछेरों का वह गांव जहां फ्रांसिस डे ने किला बनाने की सोची थी, मद्रासपतनम के नाम से जाना जाता था। अंग्रेजो ने वही नाम जारी रखा।

सो मद्रास या चेन्ने – दोनो ही नाम तमिळ हैं। और उनमें अंग्रेज बनाम तमिळ का राष्ट्रवाद नहीं आड़े आता।

खैर मद्रास तो मैं २५ अक्तूबर की दिन-रात की यात्रा कर २६ के भोर में पंहुचूंगा। यह विवरण असल में बोबिल्ली से कोरोमण्डल तट के उत्तरी किनारे का होगा। उसके बाद – तेनाली के आगे तो रात हो चुकी होगी। कोरोमण्डल तट पर तो रात जल्दी घिरती है इलाहाबाद की अपेक्षा!

बोबिल्ली स्टेशन आने के पहले का दृष्य

फिलहाल आज सवेरे जब नींद खुली तो बोबिल्ली जंक्शन आ रहा था। रात में जब सोया था तो मेरा डिब्बा गार्ड के डिब्बे के बाद सबसे पीछे लगा था। जब उठा तो वह इंजन के साथ गाड़ी का पहला डिब्बा था – रात में कहीं न कहीं इंजन रिवर्सल हुआ होगा। अब यह इंजन चेन्नै तक मिनट मिनट पर हॉर्न बजाता यह अहसास कराता रहेगा कि मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा हूं।

वैसे हर अधिकारी को यह लगता है कि वह अगर इंजन के आसपास हो तो ट्रेन ड्राइवर जरा ज्यादा ही हॉर्न बजाता है।


बोबिल्ली के बाद का दृष्य

बोबिल्ली ट्रेन कम ही रुकी – दो पांच मिनट। यहां से समुद्र तट लगभग ४०-५० किलोमीटर पूर्व-दक्षिण में होगा। फिर भी पेड़ों के प्रकार बदले नजर आ रहे थे। आम और नीम की बजाय ताड़ ने उनका स्थान ले लिया था। बोबिल्ली के आस पास जल भी काफी दिखा – वैसा जैसा तटीय क्षेत्रों में नजर आता है। धान की फसल थी खेतों में। और नहीं, धान ही धान।

पौने आठ बजे आया विजयनगरम्। पूरे प्लेटफार्म पर किसी आपसी समझ के आधार पर हॉकर्स टेबल लगा कर इडली-वडा-सांभर-चटनी बेंच रहे थे। गाड़ी रुकते ही लोग उनपर टूट पड़े।

विजयनगरम् में इड़्ली-वड़ा बेचता हॉकर

साढ़े सात रुपये का एक पीस वड़ा और पांच रुपये की इडली सस्ते ही जान पड़े। मैने उतर कर वह खरीदा और खाने में स्वाद वास्तव में अच्छा था – यात्रा में पहली बार दक्षिण भारतीय स्वाद मिला। स्टेशन पर पीले रंग के फूल बहुत सुन्दर लग रहे थे। उनके पेड़ को जाने क्या कहते हैं। फूल कनेर की तरह के थे – उनसे अलग और कुछ ज्यादा चटक।

स्टेशनों पर हिन्दी के हिज्जों की बनावट बदल गयी थी। मानो उनमें भी नारियल और इमली का जायका भर गया हो। नामों का प्रकार भी बदल गया था – विजयनगरम्, कण्टकापल्लि, कोत्त्वलसा, विशाखापतनम्…

स्टेशन पर पीले रंग के फूल बहुत सुन्दर लग रहे थे। पेड़ को जाने क्या कहते हैं।

विशाखापत्तनम दस बजे आना था, कुछ जल्दी आ गया। यहां भी टेबल लगा कर हॉकर्स इडली-वड़ा बेंच रहे थे। चूं कि नाश्ते का समय लगभग बीत चुका था, उनपर यात्री टूट कर नहीं पड़े। पर फिर भी ठीक ठाक बिक्री हुई होगी इस अल्लपुझा एक्स्प्रेस से।

सफेद झख कुरता-पायजामा और स्कल कैप लगाये मुसलमान व्यापारी/आढ़तिये पार्सल लदाई देख रहे है।

यहां पार्सल लोडिंग बहुत थी। मछली लोड हो रही थी। सफेद झख कुरता-पायजामा और स्कल कैप लगाये मुसलमान व्यापारी/आढ़तिये पार्सल लदाई देख रहे थे। उनके हाथ में मैने मंहगे वाले मोबाइल भी देखे। मछली जल की रानी है, इन्हे बनाती है अमीर! मछलियों के ट्रॉली पर भी मैने नीम्बू-मिर्च के टोटके लटके पाये। यह टोटका उत्तर-दक्षिण सब ओर पाया जाता है। अल्लापुझा एक्स्प्रेस से मैने बोरियों मेम् मिर्ची जैसा कुछ उतरते भी देखा। एक पीस निकाल कर देखा तो शंका समाधान हो गया – मिर्च नहीं वह फली जैसी कोई सब्जी थी।

एक विक्षिप्त दिखा। खम्बे के चबूतरे की बैंच पर गर्मी में कम्बल ओढ़ कर लेटा था और बार बार बड़बड़ाते हुये हाथ पैर फटकता था। फटकने के बाद सरके हुये कम्बल को फिर से सहेजता था और फिर हाथ पैर फटकने लग जाता था। ऐसे विक्षिप्त उत्तर में भी हैं और दक्षिण में भी।

राजमण्ड्री

मुझे रघुनाथ जी ने बताया ट्विटर पर कि विशाखापातनम के बाद अन्नवरम् में सत्यनारायण जी का मन्दिर दायीं ओर दिखेगा। पर लगता है अन्नवरम मेरे स्नान करने के दौरान निकल गया। उसके बाद स्टेशन आये – एलमंचलि, अनपर्ति और राजमण्ड्री।

राजमण्ड्री (जैसा स्टेशन पर लिखा था) या राजमहेन्द्री (राजा महेन्द्रवर्मन के नाम पर) आन्ध्र की सांस्कृतिक राजधानी है। कवि नान्नैय्या का जन्म स्थान। उन्होने तेळुगु भाषा को लिपि दी, जिससे यह भाषा बन सकी। स्टेशन के बाद गोदावरी नदी पर पुल दिखा – विशालकाय जलराशि और विशालकाय पुल! मैने जो चित्र उसपुल से गुजरते हुये लिये, उसमें अधिकांश पुल के गर्डर के खम्भों के कारण आधे अधूरे आये। चित्रों को काफी काटना छांटना पड़ा। काफी झटके में निकल गया राजमण्ड्री। अन्यथा एक दो मन्दिर, चर्च और गोदावरी के पुल को देख कर मन हुआ कि यहां रुकना चाहिये था। पर भारत में कितने ऐसे स्थान मिलेंगे जहां रुकने का या बसने का मन करे!

गोदावरी नदी पर पुल दिखा – विशालकाय जलराशि और विशालकाय पुल!

आंध्र के तटीय ताड़ के वृक्ष और चावल के खेतों की विशाल कालीन देखना एक अनुभव है। वह कैमरे में लेने के लिये न जाने कितने चित्र लिये। गाड़ी के डिब्बे का शीशा साफ कराया छोटेलाल से। पर चित्रों में वह न आ पाया जो आंखों से दिखता था। चलती ट्रेन और कैमरा आंख देखे का विकल्प बन ही नहीं सकते। शायद सबसे अच्छा होता है अपने शब्दों में वर्णन की क्षमता विकसित करना। पर एक ब्लॉगर – जो खुरदरी भाषा में लिखने का अभ्यस्त हो गया होता है, के लिये वह करना भी कठिन काम है। यह सब मैं पोस्ट रिटायरमेण्ट जिन्दगी के लिये पोस्ट-पोन कर रहा हूं, मानो वह जिन्दगी चालीस-पचास साल की एक्टिव जिन्दगी हो!

क्या सुन्दर कालीन है!

एलुरु गुजरा। छोटा सा शहर और कम देर के लिये रुकी गाड़ी। बीच में एक नहर नुमा नदी थी। छानबीन करने पर पता चला कि वह कृष्णा-गोदावरी नहर है।


विजयवाड़ा बड़ा बन्दरगाह है और रेलवे स्टेशन भी उसी के मुताबिक। यहां ट्रेन कुछ ज्यादा रुकने वाली थी तो हम आधे प्लेटफार्म का चक्कर लगा आये। शाम के नाश्ते के लिये दोसा, वड़ा और आलूवड़ा मिल रहे थे – केटरिंग वाले वह एल्यूमीनियम फ्वॉइल और कैसरोल में बेंच रहे थे। खुला केला मिल रहा था। अच्छा था पर मंहगा – चालीस रुपया दर्जन। बहुत मीठा भी नहीं था। शायद पेड़ पर नहीं, गोदाम में पकाया गया था। एक सेक्ट के लोग-लुगाई लाल कपड़े पहने प्लेटफार्म पर बहुतायत में दिख रहे थे। कुछ के तो झोले भी लाल रंग के थे।

पुष्पगुच्छ लाते आरपीएफ वाले सज्जन

मेरे डिब्बे के पास एक आरपीएफ़ वाला खड़ा था। उसने एक ताक झांक करने वाली महिला को डपटा। मुझे लगा कि मेरी अफसरी को वजन दे कर यह कर रहा है, पर शायद वह औरत कुछ गड़बड़ थी। उल्टे पांव भाग गयी। उस सिपाही से मैने पीले फूल का नाम पूछा जो मुझे पूरे तटीय स्टेशनों पर दिख रहा था और यहां भी स्टेशन के पट्ट के पास ही लगा था। सिपाही ने कहा कि उसे नाम तो नहीं मालुम, पर वह तुरत गया और उस फूल का एक गुच्छा मुझे भेट करने के लिये तोड़ लाया। स्वीट चैप! मैने उसका फोटो लेने का उपक्रम किया तो रुक कर उसने अपना फोटो खिंचाया और उसके बाद मुझे भेट किया।

विजयवाड़ा स्टेशन पर लाल कपड़ों में कुछ यात्री

विजयवाड़ा से जब ट्रेन चली तो शाम छ से ऊपर हो गये थे। अंधेरा हो गया था। आगे कोरोमण्डल तट प्रारम्भ हो रहा है। रात में इस तट के सहारे सहारे चलती ट्रेन मद्रास, बोले तो चेन्ने पंहुच जायेगी। मेरा रहने का इन्तजाम पास की इमारत पर नवीं मंजिल पर किया गया है। पर मैं रात ३-४ बजे वहां ऊठ कर जाने से रहा।

इस पोस्ट को यहीं विराम दिया जाये।

(सवेरे गाड़ी समय पर मद्रास पंहुच गयी ! यह पोस्ट २६ अक्तूबर को मद्रास से पोस्ट हो रही है।)

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

15 thoughts on “बोबिल्ली से मद्रास का सफर

  1. जायकेदार था आपका ये पोस्ट! वैसे आपके ट्विट्स लगातार मुझे अहसास दिला रहे थे जैसे मै खुद यात्रा में हूँ और आप मेरे सह-यात्री! और जैसे मैं आपका सेल्फ-अपाइंटेड गाईड! लौटती यात्रा में आपका उत्साह थोडा कम दिखा! ना जाने क्यों? महाबलिपुरम की थकान उतारते आएं हों शायद!

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    1. कभी हम दोनो एक साथ यात्रा करें और उसका ट्रेवेलॉग लिखें तो जबरदस्त चीज होगा वह लेखन!

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  2. श्रेष्ठ रस . गोदावरी नदी की फोटो में बादलों के किनारों से निकलती सूर्य की किरणे बहुत अच्छी लग रही हैं. खेत का चित्र भी बहुत अच्छा है. अनुरोध है कि अगले लेख में वहाँ के दैनिक जीवन से जुड़े कुछेक चित्र रखियेगा.

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