चार दिन पहले गंगा उफन रही थीं। बहाव तेज था और बहुत सी जलकुम्भी बह कर आ रही थी। बढ़ती गंगा में आसपास के ताल तलैयों, नहरों नालों की जलकुम्भी बह कर आने लगती है। वैसा ही था। खबरें भी थीं गंगा और उत्तर की अन्य कई नदियों में उफान की।
किनारे एक धतूरे का पौधा बारिश में नवजीवन पा लहलहा रहा था। कई फूल लगे थे। वह जलधारा के इतना करीब था कि मुझे लगा वह व्यर्थ लहलहा रहा है – यह नहीं जानता कि दो दिनों में गंगा उसे जलमग्न कर लेंगी।
पर मैं कितना गलत था। गंगा में उफान रुक गया। जिस दशा में उस दिन देखा था, आज लगभग उसी दशा में; या उससे कुछ कम फैलाव लिये थीँ। वह धतूरा अपनी जगह पर उसी अन्दाज में लहलहा रहा था।

दूर लगभग एक रेखा की तरह गंगा के बीच एक टापू बचा था। अगर बढ़ी होतीं तो वह जलमग्न हो गया होता। किनारे से लगभग 250-300 मीटर दूर थी वह टापू की रेखा। संझा का समय था। धुन्धलका हो रहा था। उस रेखा पर एक व्यक्ति कन्धे पर एक सफेद बोरी लिये चल रहा था। जहां वह टापू खत्म हुआ तो वह जल में भी उसी अन्दाज में चलता रहा। काफी दूर आगे चलने के बाद वह किनारे आने के लिये नब्बे अंश के कोण पर मुड़ा। अभी उसके कमर तक पानी था। थोड़ी ही देर में उसके सीने और गरदन तक पानी आ गया। वह उसी आत्मविश्वास से और तेज चाल से चल रहा था। चल वह रहा था, पर डर मुझे लग रहा था कि कहीं बैलेंस न बिगड़े और वह डूब जाये।

पर वह दक्ष था गंगा की गहराई की जानकारी के बारे में। थोड़ी ही देर में किनारे आ गया। बोरी जमीन पर रखी तो कई अन्य शाम की कछार सैर वाले उसके पास हो आये। एक ने पूछा – कितनी पाये?
मछेरा था वह। बदन से पानी झटकते हुये वह बोला – खाइ भरे के पाई ग हई (खाने भर को मिल गयी हैं)। फिर बोरी में से एक छोटी बोरी निकाल कर दिखाई। उसके आकार से लग रहा था कि तीन किलो तक तो रही होगी। उत्सुक ग्राहकों में से एक ने पूछा – कौन सी है?

उसने उत्तर नहीं दिया। बोरी कछार की रेत में रख कर गंगाजी में फिर हिल गया वह – और स्नान करने लगा। ग्राहकों में से एक दो हटे पर कुछ खड़े रहे। मुझे मछली खरीदने में दिलचस्पी नहीं थी, सो अन्धेरा होते देख चल दिया घर जाने के लिये।

उस मछेरे को मैं पहचानता हूं। डेढ़ महीना पहले अपनी पत्नी-बच्चों के साथ उसे टापू पर सब्जियां उगाने के लिये जाते देखता रहा हूं। एक बार अपनी छोटी बच्ची को टापू से किनारे छोड़ कर वापस जाते देखा थ मैने। बच्ची रोने लगी थी तो जेब से दो रुपये निकाल कर उसे बिस्कुट खाने के लिये भी दिये थे। सब्जियाँ उगाने का काम गंगाजी के घटने बढ़ने से फेल हो गया था। आज उसे मछली पकड़ कर लाते देखा। कुल मिला कर उसकी जिन्दगी गंगा पर ही आर्धारित है। गंगा पालित है वह। गंगा जी का बेटा।
फिर कभी दिखा तो उससे पूछूंगा कि गंगा नदी को किस भाव से देखता है?
भाव से देखना – मेरी पत्नीजी कहेंगी इस तरह से भाव से देखना-फेंखना टाइप सवाल तुम ही कर सकते हो। लोग भाव-फाव नहीं रखते, गंगा को बस गंगा की तरह लेते हैं वे, बस।
हो सकता है, एसा हो। पर ऐसे लोगों को कभी कभी मैने इतनी आश्चर्यजनक बातें करते भी देखा है मैने कि मुझे यकीन है दार्शनिकता अर्बन एलीट के बाप की जागीर नहीं है। कत्तई नहीं!
जब जानकीनाथ सहाय करें, तब कौन बिगाड़ करे नर तेरो …
भाव? बेचने पर ऊंचा भाव, खरीदने पर सस्ता भाव। भावनगर में न हो अभाव, बस …
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खाने भर का ही इकट्ठा करने का भाव हो तो सब कुछ कितना सरल हो जायेगा। हम तो सात पुश्तों का भविष्य सहेजने में लग जाते हैं।
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“दार्शिनिकता किसी के बाप की जागीर नहीं,
हमारा भी चंद शेयर लिये है इस चोचले के।”
पढैं भरे और टिपियाय भरे क पाय ग ह! 🙂
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