
वह तेजी से गंगा किनारे चलता जा रहा था। एक हाथ में मछली पकड़ने की बन्सी (डण्डी) लिये और दूसरे हाथ में तितली पकड़ने वाला जाल। गेरुये रंग की टी-शर्ट पहने और नीचे गमछा लपेटे था। उग रहे सूर्य के सामने वह आस पास के वातावरण में विशिष्ट लग रहा था। मैं अपनी सवेरे की सैर पूरी कर कछार से लौट रहा था पर उसका चित्र लेने के लोभ में वापस, उसकी ओर मुड़ गया। वह निकल न जाये, मैने लगभग आदेश के स्वर में उससे कहा – रुको, जरा फोटो लेनी है।
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दूर जाता दिखा था वह मछुआरा सूर्योदय की रोशनी में।
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वह रुका। एक पोज सा बनाया। गेरुआ टी-शर्ट में बांस की डण्डी कांधे पर टिकाये वह दण्डी स्वामी जैसा लग रहा था – मानो किसी मठ का सन्यासी हो!
चित्र लेते हुये मैने पूछा – कैसे पकड़ते हो मछली?

इस जाल में छोटी मछली पानी में ऐसे ही बीन लेते हैं और फिर छोटी को कांटे में फंसा कर बड़ी पकड़ते हैं।
अच्छा, कितनी बड़ी मिल जाती हैं?
वह साइज़ पर प्रतिबद्ध नहीं हुआ। ठीक ठाक मिल जाती है।
कुल कितनी मिल जायेगीं, दो तीन किलो?
हां, काम भर को। कभी मिलती हैं, कभी नहीं।
कब तक पकड़ते हो?
यही, कोई आठ बजे तक।
छ बज रहे थे सवेरे के। उसके पास मेरे सवालों का जवाब देने को ज्यादा वख्त नहीं था। मेरे सामने वह तट पर उथले पानी में जाल से छोटी मछलियां पकड़ने लगा।
समय हो चुका था लौटने का। मैं चला आया।

फोटो अच्छे हैं। मछली पकड़ना भी कलाकारी का काम है।
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छोटी के माध्यम से बड़ी को पकड़ना, मछली ही क्या, हर क्षेत्र में यही विधि कारगर है।
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मछली से मछली का शिकार.
दण्डी स्वामी के मन में शायद सवाल आया हो कि यह भला मानस यहां क्या झख (मछली) मार रहा है.
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aapki vajah se agar kabhi shivkuti aana hua to kafi kuchh jana pehchana sa lagega.- ganaga tat bhi aur ganga teer ke kirdaar bhi.
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रोचक. छोटी पकड़कर कांटे में फंसाते हैं और बड़ी फंसती है.
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Bol meri machhli kitna paani…:-)
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