
फाफामऊ तिराहे पर दुकान है मदनलाल की। चाय, पान, डबलरोटी, गुटका, बिस्कुट, पाव, टॉफी – सब मिलता है। सवेरे साढ़े छ बजे बैठे थे। दो ग्राहक उनके सामने चाय पी रहे थे। मैं भी रुक गया। चाय मांगने पर उन्होने एक लीटर के थर्मस से चाय निकालनी प्रारम्भ की। यह नया अनुभव था मेरे लिये। सामान्यत: चाय की केतली – अल्यूमीनियम की हेण्डल वाली – में चाय रखते हैं दुकान वाले। मैने पूछा उनसे कि आप नये तरीके से थर्मस में रखे हैं चाय?!
जी, थर्मस में चाय ठण्डी नहीं होती और स्वाद भी अच्छा बना रहता है।
चाय पीने लगा मैं उनके सामने की बेंच पर बैठ कर। अस्पताल के मरीज की देख रेख में होने और एक व्यक्ति मरीज के पास बैठा कर आने के कारण मेरे पास समय की बहुत कमी नहीं थी। ब्लॉग पोस्ट के लिये सामग्री तलाशी जा सकती थी, इत्मीनान से। मैने दुकान में उपलब्ध वस्तुओं का जायजा लिया। स्टोव पर बनाई थी चाय उन्होने। सामने एक कोयला भट्टी भी लगी थी। मैने पूछा – इसका प्रयोग नहीं करते?
मदनलाल ने जवाब दिया – उतनी ग्राहकी नहीं है। भट्टी में एकबारी जलाने में पचास रुपये का तो कोयला लग जाता है। ग्राहक बने रहें तो भट्टी का नफा है। अब साढ़े पांच से बैठा हूं चाय बना कर। समझो कि आप तीसरे ग्राहक हैं। इसके लिये तो ये स्टोव ही ठीक है।
दिन भर में कितनी चाय बिक जाती है?
अब अन्दाज नहीं। बहुत ज्यादा नहीं।
मुझे थर्मस रखने का अथशास्त्र समझ आ गया। कम ग्राहकी में ज्यादा समय तक चाय गर्म रख कर बेचने के लिये केतली की बजाय चाय बेहतर है। नहीं तो हर ग्राहक के लिये चाय बनानी पड़े।
सोचता हूं, मदनलाल जैसों के बारे में जानने, बतियाने, लिखने का क्या औचित्य है? वो ऐसे वर्ग के आदमी नहीं हैं, जिनके बारे में अन्दाज न हो। ऐसे भी नहीं कि उनके बारे में लोगों को न पता हो। पर अगर लिखने का विषय कुछ अलग, कुछ विलक्षण ही होता है, तो पूरे प्रेमचन्द में अलग क्या है समाज से? बस उनके पास आईना बेहतर है, जिससे वे समाज का चित्र दिखा रहे हैं समाज को।
हम सब अपनी कलम, अपने की-बोर्ड, अपनी नोटबुक, अपने कैमरे की क्लिक और अपने दिमाग में नोट करने की ड्रिल में उसी आईने की सर्फेस तराश कर समतल/चिकनी बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि जो है, उसे जस का तस प्रस्तुत कर सकें। बाकी, उसमें हरा, सफ़ेद, काला, लाल और केसरिया रंग उभारने वाले तो अनेक हैं।
आधा स्वेटर, कान पर मफलर की जगह शाल बांधे मदनलाल मुझे विपन्न व्यक्ति नहीं लगे। पान, गुटका, चाय और अन्य सामग्री से काम लायक बिक्री हो जाती होगी। पर हर तीस कदम पर एक प्रतिद्वन्द्वी दुकान खोले था उस व्यस्त तिराहे पर। इस लिये उनकी दुकान काम लायक ही चलती होगी।
मदनलाल की चाय में अदरक भी पड़ा था। सवेरे की पहली चाय अच्छी ही मिली मुझे। दाम लगे पांच रुपये। मैने पैसे देते समय उनसे कहा – एक फोटो ले लूं आपका?
प्रसन्न हो गये मदनलाल। उनका फोटो उन्हे मैने मोबाइल में दिखाया। मुझसे उन्होने पूछा कि सबेरे सबेरे कैसे हूं वहां। मैने बताया कि मेरी मां भरती हैं पास के अस्पताल में।
कहां से आये हैं?
यहीं इलाहाबाद में रहता हूं। यह सवाल शायद इस लिये था कि इस अस्पताल में इलाहाबाद के बाहर के – गांवों के मरीज ज्यादा आते हैं इलाहाबाद-प्रतापगढ़ बेल्ट के।
चलते समय हम दोनो का परस्पर इतना परिचय हो गया था कि मदनलाल ने मुझे नमस्कार किया और मैने उसका उत्तर दिया।
सबेरे की पहली चाय। थर्मस की गर्म चाय। मदनलाल की दुकान से, मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉगर, फाफामऊ, इलाहाबाद।
व्यवसाय में पैसे कैसे बचाया जा सकता है, कैसे जुगत कर गरीबी रेखा से ऊपर आया जा सकता है, भारतीय बुद्धि के लिये कठिन नहीं है। बड़े अवसर मिले तो।
LikeLike
परफ़े्क्ट रपट है जी
LikeLike
गंगा-कछार रिपोर्टर का दायरा वक्ती तौर पर बदला, लेकिन यहां भी शानदार रिपोर्टिंग।
माताजी जल्द स्वस्थ हों।
LikeLike
When I read such things I miss India!
Here in California, you will not find tea stalls like this.
Here, when you order tea, they give you a kettle of hot water, they give you tea bag, a paper packet of sugar, and a sachet containing some milk powder.
You prepare your own tea, and pay the restaurant for this privilege!
The tea also tastes insipid.
Hope your mother is progressing.
Our prayers for her speedy recovery
Regards
GV
LikeLike
It’s indeed an experience walking around these people, talking to them, getting feel of their lives and then penning down the experience. 🙂
LikeLike
बहुत बढ़िया सर ,माता जी जल्द स्वस्थ हो ,,,पिताशिव से प्रार्थना ,,,,
LikeLike
मस्त रिपोर्टिंग. बाइलाइन में आप “कैमरामेन GDP के साथ” कहना भूल गए.
LikeLike
बढिया रिपोर्टिंग।
LikeLike
Liked the post about ‘Madan Lal Kee Thermos Wali Chay’
Gajab Ka Intazam…….
LikeLike