फाफामऊ से चन्द्रशेखर आजाद सेतु को जाती सड़क के किनारे चार पांच झोंपड़ी नुमा दुकाने हैं। बांस, बल्ली, खपच्ची, टाट, तिरपाल, टीन के बेतरतीब पतरे, पुरानी साड़ी और सुतली से बनी झोंपड़ियां। उनके अन्दर लड़के बच्चे, पिलवा, टीवी, आलमारी, तख्त, माचा, बरतन, रसोई, अंगीठी और दुकान का सामान – सब होता है। लोग उनमें रहते हैं और गंगा किनारे जाने वाले तीर्थयात्रियों/मेलहरुओं पर निर्भर दुकान लगाने वाले उनमें रहते और दुकान लगाते हैं।
कल अपेक्षाकृत गर्म दिन था। सवेरे कोहरा न्यूनतम था। मैने उन झोंपड़ियों में चहलपहल समय से पहले होती देखी। सवेरे के सात बज रहे थे। एक दुकान का सामान लगाते एक दम्पति दिखे। जवान दम्पति थे – पच्चीस से तीस की उम्र के। आदमी सिर पर गमछा बांधे था। जींस और जैकेट पहने। औरत साड़ी में थी। ऊपर शॉल ओढ़े। दोनो मिल कर लाई, गट्टा, भुना चना, चिवड़ा की ढेरियां, बोरे और तसला-टब अन्दर से निकाल कर बाहर सजा रहे थे। आधे घण्टे में लगता था, बिजनेस शुरू हो जायेगा।
अपने एम्बियेंस से वह व्यक्ति मुझे रुक्ष लगा। पर यह सोच कर कि दुकान लगा रहा है तो बात करेगा ही; मैने पूछा – चना क्या भाव?
आदमी बोला – ले लीजिये बाबूजी, पच्चीस रुपये पाव। दस रुपये का सौ ग्राम।
दस रुपये का दे दो।
आदमी ने औरत को तोलने को कहा – जरा बाहर वाला नहीं, अन्दर वाला निकाल कर दे दो। (बाहर वाला रखने पर नमी से सील गया हो सकता था)।
दो प्रकार का चिवड़ा था – पतला और मोटा। बात बढ़ाने को मैने पूछा – ये किस काम आते हैं?
चिवड़ा है बाबू जी। यह मोटा वाला पोहा है। पोहा आप समझते हैं? पतला वाला दूध/दही में मिला कर खाया जाता है। – वह आदमी मुझे बड़ा शहरी समझ रहा था, जिसे पोहा/चिवड़ा की एलीमेण्ट्ररी समझ न हो। मैने पोहे का भाव पूछा – पैंतीस रुपये किलो।
वहीं से मैने अपनी पत्नी जी को मोबाइल पर पूछा – पोहा ले लिया जाये? स्वीकृति मिलने पर मैने कहा कि एक किलो पोहा भी दे दो।
भुना चना और चिवड़ा लेने पर मेरा उनका ग्राहक-दुकानदार का सम्बन्ध बन गया। मैने पूछा – कहां के रहने वाले हैं आप लोग?
यहीं तेलियरगंज के बाबूजी। इसपार यह झोंपड़ी बना कर रहते हैं। रेलवे की जमीन है यह। पर फिर भी पुलीस वाला गाहे बगाहे डण्डा फटकारते चला आता है। कहता है जगह खाली करो।
अच्छा, फिर पैसा भी मांगता है?
हां। किसी से सौ, किसी से छ सौ। जैसा दबा ले और जितना लह जाये। पर मैं नहीं देता पैसा। ढाई साल से हैं हम यहां पर। हम छोटे आदमी हैं बाबूजी। पुलीस का काम है धमकाना, मारना। धमकाने से असर नहीं हम पर। मारना हो तो मार ले। पर हम धमकी में नहीं आते।
इस कहे में औरत तो नहीं बोली, पर जैसा लगता था, उसकी सहमति थी आदमी के साथ।
पोहा और चना पन्नी में बंध गया था, मैने कहा एक फोटो ले लूं मैं उनका। पहले औरत का फोटो लिया, फिर आदमी का। आदमी ने अपना फोटो खिंचाने के पहले अपना सिर पर बंधा गमछा उतारा। उसके बाद वह हैण्डसम लगने लगा। चित्र उन लोगों को दिखाये भी। चलते हुये आदमी का नाम भी पूछा – आनन्द कुमार गुप्ता। आनन्द छरहरे बदन का जवान आदमी। लगता है जैसे जीवन की रुक्षता सहने-फेस करने को तत्पर हो और सक्षम भी।

इन लोगों से तादात्म्य स्थापित करने की तकनीक मुझमें शायद विकसित हो रही है। छोटा सौदा खरीदना, उनके बच्चों को प्यार से देखना, उनसे निरीह से सवाल कर उनकी मैत्री की नब्ज को टटोलना और उनमें अपना जेन्युइन इण्टरेस्ट दिखाना – यह सब काम करता है।
एक बात मुझे स्पष्ट हुयी। झोंपड़ी के प्रकार – जिसमें किसी भी दीवार या घातु का प्रयोग न होने से मुझे लगता था कि ये लोग बहुत विपन्न होंगे। पर वास्तव में विपन्न नहीं हैं। इनमें व्यवसाय करने की, जिन्दगी की रुक्षताओं का सामना करने की और सिवाय झोंपड़ी के, अन्य सुविधाओं में मध्यवर्ग से तुलनीय होने की आश्चर्यजनक क्षमता है। यह वर्ग (जैसा आनन्द कुमार गुप्ता ने कहा) व्यवस्था के आतंक से कहीं अधिक बेबाकी से लड़ सकता है, बनिस्पत मध्यवर्ग के। शायद इन लोगों के पास राशनकार्ड या वोटर कार्ड जैसी सहूलियतें पूरी न हों, और उसके कारण वे तथाकथित वोटबैंक का पार्ट न हो पाते हों, पर वे समाज के अच्छे वेल्थ क्रीयेटर हैं। अर्थव्यवस्था में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। परसों इन्ही झोंपड़ी में रहते बच्चे (जो दूध पेरने – दूध से क्रीम निकालने – का काम करता है) की एवन क्रूजर साइकल देख कर मुझे भी ईर्ष्या होने लगी थी।
अब देखते हैं कब किस नये व्यक्ति से मुलाकात करते हैं ब्लॉगर जीडी! 😆
KABHI KABHI MAIN SOCHTA HOON KI AAP KAISE KISI BHI GHATNA KA KITNA SAJEEV CHITRAN KARTE HAIN JAISE SAMNE GHAT RAHI HO,BEHATREEN PRASTUTI
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”इस कहे में औरत तो नहीं बोली, पर जैसा लगता था, उसकी सहमति थी आदमी के साथ।”
आआपा (आम आदमी/आम औरत) जैसा.
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Thanks for this fascinating insight into the lives of this small and humble section of our population.
My respect for these people has always been high.
They excel in survival skills which we the middle class and the upper classes lack.
Regards and best wishes
G Vishwanath
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मध्यवर्ग फैल रहा है. यह अच्छा निशान है.
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A good blog about these revenue creating persons. Right way to earnigs & creating wealth & keeping it for their futures.
Regards&Thanks
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नये लोगों से मिलना समाज की नयी विमाओं के समझने सा है।
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हैण्डसम पोस्ट!
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