“विशिष्ट व्यक्ति रेस्ट हाउस” के सामने पोलोग्राउण्ड की चारदीवारी के पास बैठे थे वे दोनो बच्चे। आपस में बेर का बंटवारा कर रहे थे। बेर झरबेरी के नहीं, पेंड़ वाले थे। चालीस-पचास रहे होंगे। एक पॉलीथीन की पन्नी में ले कर आये थे।
मैने पूछा – अरे काफी बेर हैं, कहां से लाये?
गुलाबी कमीज वाले ने एक ओर हाथ दिखाते हुये कहा – वहां, जंगल से।
अच्छा, जंगल कितना दूर है?
पास में ही है।
बंटवारा कर चुके थे वे। दूसरा वाला बच्चा अपना हिस्सा पन्नी में रख रहा था। मैने पूछा – कहां रहते हो?
तीनसौबावन के बगल में।
अन्दाज लगाया मैने कि 352 नम्बर बंगला होगा पास में। उसके आउट-हाउस के बच्चे होंगे वे।
चलते चलते; सुखद और अनापेक्षित बोला वह – आप भी ले लीजिये!
अच्छा लगा उस बच्चे का शेयर करने का भाव। मैने कहा – नहीं, मैं खाना खा चुका हूं। अभी मन नहीं है।
Zindgi ke irdgird ek bhola sa saundarya Bikhda pada hai. Jise hum aapki aankhon(blogs) se dekh pate hain. Dhanyavad
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