“विशिष्ट व्यक्ति रेस्ट हाउस” के सामने पोलोग्राउण्ड की चारदीवारी के पास बैठे थे वे दोनो बच्चे। आपस में बेर का बंटवारा कर रहे थे। बेर झरबेरी के नहीं, पेंड़ वाले थे। चालीस-पचास रहे होंगे। एक पॉलीथीन की पन्नी में ले कर आये थे।
मैने पूछा – अरे काफी बेर हैं, कहां से लाये?
गुलाबी कमीज वाले ने एक ओर हाथ दिखाते हुये कहा – वहां, जंगल से।
अच्छा, जंगल कितना दूर है?
पास में ही है।
बंटवारा कर चुके थे वे। दूसरा वाला बच्चा अपना हिस्सा पन्नी में रख रहा था। मैने पूछा – कहां रहते हो?
तीनसौबावन के बगल में।
अन्दाज लगाया मैने कि 352 नम्बर बंगला होगा पास में। उसके आउट-हाउस के बच्चे होंगे वे।
चलते चलते; सुखद और अनापेक्षित बोला वह – आप भी ले लीजिये!
अच्छा लगा उस बच्चे का शेयर करने का भाव। मैने कहा – नहीं, मैं खाना खा चुका हूं। अभी मन नहीं है।
कहानी अच्छी है ।बच्चों में बाँटने की भावना अब मिटती जारही है ,जो बहुत ही जरूरी है ।
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हां। और कहानी नहीं, वाकया है!
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन – आधा फागुन आधा मार्च मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
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बचपन…. कुदरत की करामाती स्टेज है …. अनेकों कवियों ने खूब बखाना है उम्र के इस मोड़ को। ज्यों हम जिम्मेदारिओं के पहाड़ के पहाड़ लान्गते चले जाते हैं …. यादों की यह सुनहरी घाटी, यह बचपन जैसे हमें खींचता रहता है , लगातार लौट आने का मौन निमंत्रण दिए जाता है। हम लौटना भी चाहते हैं लेकिन … वक्त की लगाम हमें लौटने नहीं देती।
…हाँ कुदरत ने एक छोटा सा मार्ग हमें जरूर दे दिया है … और वह है कि हम जीवन के किसी भी मुकाम पर क्यों ना पहुँच गए हों… बच्चों के साथ कुछ पल भी रहें तो वक्त ठहर ही नहीं बल्कि हमें अस्थाई तौर पर पीछे जरुर घुमा लाता है…एक बच्चा ही बना कर ।
बचपन का वर्णन करू और आपके चेहरे पर मुस्कान जो आ गई हो तो मैं समझ लूँगा कि आप मेरी बात से सहमत जरूर हैं।
सर , आपको अनुसरण करते हुए मैंने भी मन की कह देने की खातिर एक ब्लॉग आरम्भ किया है ajoshi1967.wordpress.com
आप मेरे विचारों पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी सर। मन बचपन से ही कुछ लिखने को कुलबुलाता रहा । अब जाके लगा कि हाँ भड़ास निकालने को एक कोना मिल गया है।
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बहुत अच्छा बन्धु!
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🙂 अच्छा लगा.
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काश बचपन में.… ये सस्नेह आग्रह और देने का भाव परमात्मा बड़े होने पर भी लोगों कायम रखता।
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इस छोटी सी घटना से याद आया एक फ़ौजी अफसर का वाक़या जिसने अपने रिटायरमेण्ट के रोज़ छावनी के पेड़ से इसी तरह बादाम बटोरने वाले एक स्कूली बच्चे को गोली मार दी थी! आज आपने इस छोटी सी घटना में कितना अपनापन भर दिया है!!
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चकाचक !
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निस्पृह भाव बचपन के।
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‘आप भी ले लीजिए’ का यह भाव छोड़कर बाक़ी सब पश्चिम में उपलब्ध है.
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अच्छा लगा
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